This post is a part of Back To School, a global movement to ensure that access to education for girls in India does not suffer post COVID-19. Click here to find out more.
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Covid-19 का नाम आते ही दिमाग में एक तरह का करंट दौड़ जाता है। विकास तो दूर की बात है, हर ओर विनाश और तबाही का मंज़र याद आता है। पूरा विश्व इस महामारी से जूझ रहा है।
जीवन लीलाएं निगल चुकी इस महामारी ने देश में चल रहे विकास कार्यों और विकास के स्रोतों के क्षेत्र में ऐसा तूफान आया कि सब कुछ तहस-नहस हो गया। सबसे ज़्यादा नुकसान शिक्षा के क्षेत्र में हुआ। वहीं इस नुकसान में सबसे ज़्यादा प्रभावित लड़कियां हुईं।
लड़कियों की शिक्षा covid 19 से पहले जर्जर हालत में थी। जैसे-तैसे भारत सरकार और राज्य सरकार ने कई तरह की नीतियां बनायीं और पेरेंट्स को आकर्षित करने के लिए लड़कियों की शिक्षा के लिए कई कार्यक्रम बनाए। मोदी जी ने प्रसिद्ध नारा दे दिया “बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ।”
कई राज्यों में लड़कियों को पढ़ाने पर पैसे दिए जाने लगे। इसके बाद कुछ लोगों ने अपनी लड़कियों को स्कूल भेजना शुरू कर दिया। कहीं न कहीं लड़कियों की भागीदारी के आंकड़े बढ़ने लगे। बेटी बचाओ और बेटी पढ़ाओ के देश में लड़कियों को पढ़ाने के लिए लोगों को प्रेरित करना होता है।
विद्यालय हमेशा से गरीब और समाज से निष्क्रिय जाति के लिए एक सुरक्षित ठिकाना रहा है। कई बार लड़कियां बोर्डिंग स्कूल में भेज दी जाती हैं। जहां उनको सुरक्षित वातावरण मिलता है लेकिन अब जब वह अपने घरों तक ही सीमित हैं, तो क्या होगा? कई लड़कियों को स्कूलों में बुनियादी चीज़ों की पूर्ति की जाती है। जैसे सैनिटरी पैड और मिड डे मील से बहुत मदद मिल जाती है परंतु लॉकडाउन में ऐसी प्राथमिक स्तर की चीज़ों से स्कूल के सभी छात्राओं को दूर होना पड़ा।
विद्यालय में 6-7 घंटे लड़कियों के विकास के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हुआ करते थे। लड़कियां कई तरह की समस्याओं से दूर रहा करती थीं। भवनात्मक और शारीरिक तौर पर मज़बूत आधार मिल जाता है। दुर्भाग्य से बंद स्कूलों के दौरान बहुत ऐसे नुकसान हुए, जो वास्तव में लड़कियों के लिए बहुत बुरे साबित हुए।
दिल्ली में रहने वाली सुप्रिया और अनामिका अपने घर के बाहर बैठकर सब्ज़ियां काटते हुए बताती हैं कि हमारे घर में सिर्फ एक ही स्मार्ट फोन है। पापा उस फोन के लिए सिर्फ भाई के लिए इजाज़त देते हैं। जबकि वह पांचवी कक्षा में पढ़ता है और हमारी दसवीं कक्षा है, हमको बहुत चिंता होती है। हम यही समस्या अगर माँ या पापा से बताते हैं तो वह बोलते हैं कि दसवीं क्लास में क्लास की क्या ज़रूरत सब कुछ अपने आप पढ़ो। सारी किताब आएगी, हमको अभी तक यह भी नहीं पता लगा कि सीबीएसई ने सिलेबस में जो कटौती की है उसमें क्या-क्या है।
यहां पर लैंगिक भेदभाव का जीता-जागता सुबूत है। लॉकडाउन में शायद अधिकतर लड़कियों की यही समस्या रही होगी।
रुख़सार और मरियम जो पटपड़गंज की झुग्गियों में रहती हैं। दोनों नौवीं कक्षा की छात्रा है। उन्होंने अपने अनुभव मेरे साथ साझा करते हुए कहा, “हमारे घर में एक भी फोन नहीं है। पापा बिहार के एक गांव में हैं और हम दोनों की माँ फ्लैट में काम करने जाती हैं। हमारी पढ़ाई के लिए उनसे जो कुछ हुआ उन्होंने किया। उन्होंने 50 रुपए महीना पर हमको ट्यूशन में दाखिला दिलवा दिया। हम भी खुश थे कि हमको अब पढ़ाई से रिलेटेड कोई परेशानी नहीं होगी। हमारे ट्यूशन टीचर ने लड़कों और लड़कियों का समय अलग-अलग रखा था।”
हम जब ट्यूशन जाते तो सर जी हमारे गाल खींचते और जब हम कभी टेस्ट में खराब नंबर लाते तो वो हमारे पीछे अपने हाथों से मारते थे। हमको ऐसा लगता था हम यहां पढ़ने नहीं, बल्कि शारीरिक शोषण कराने आते हैं। हमारे दो महीने बहुत बुरे बीते, मई और जून। इसके बाद हमने ट्यूशन छोड़ दिया। तब से आज तक हमको पता ही नहीं चला कि स्कूल में कब ऑनलाइन टेस्ट हुआ और कब प्रैक्टिकल फाइल मिली।”
यह एक यौन हिंसा का उदाहरण है। जिसे देश में न जाने कितनी लड़कियां झेल रही होंगी। घर के बाहर तो बाहर घर के अंदर भी लड़कियां सेफ नहीं है। इस कोरोना काल में लड़कियों के लिए जितनी समस्याएं खड़ी हुई हैं उतनी शायद किसी के लिए नहीं हुई होंगी। जितने भी शोषण हैं। महिलाओं और लड़कियों के लिए यह कोरोना काल बहुत घातक सिद्ध हुआ।
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