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भगवान को छोड़ देने वाले यह कैसे मान लेते हैं कि बुद्ध या अंबेडकर उन्हें अपना लेंगे?

भारत के नास्तिक बौद्ध धर्म के प्रति इतना झुकाव क्यों रखते हैं? अगर नास्तिक ही बनना है, तब किसी धर्म की चादर ओढ़नी ज़रूरी है क्या?  आखिर बिना धर्म के मनुष्य क्यों नही जी सकता। मुझे लगता है इसका एक कारण तो यह हो सकता है कि भारत के ज़्यादातर नास्तिक दलित या पिछड़े वर्ग से आते हैं, जिन्होंने जाति व धर्म के आधार पर भेदभाव झेला है

और इस वर्ग से आने के कारण उनका अंबेडकर व बौद्ध धर्म के प्रति स्नेह लाज़मी हो सकता है। हालांकि यह सिर्फ मेरा तर्क है ज़रूरी नही यह सही हो लेकिन मानकर  चलिए कि कोई दलित है जिसके साथ धर्म व जाति के नाम पर बहुत भेदभाव हुआ है तब वह पूर्ण रूप से धर्म को क्यों नही त्याग देता है? क्यों वह दूसरे धर्मों की शरण मे जाता है?

 बुद्ध और अंबेडकर को धर्म मानता आज का नास्तिक

क्या शायद इसलिए क्योंकि वह सिर्फ भगवान बदलना चाहता है यानि उसके मन मे ईश्वर के प्रति अब भी आकर्षण है और यही बात उस नास्तिक पर भी लागू होती है, जो पहले हिन्दू धर्म को मानता था, क्योंकि वह अब हिन्दू भगवानों का विकल्प बौद्ध और अम्बेडकर में खोज रहा है मतलब ईश्वर से उसका मोह अभी भंग नही हुआ है।

शायद यही कारण है जिससे  हिन्दू धर्म मे दोष निकालने वाला एक व्यक्ति खुद को नास्तिक मानकर बौद्ध धर्म की अच्छाइयों को गिनाने लगता है और अपने आपको नास्तिक मानकर खुद को ही धोखा देने लगता है।

अगर देखा जाए तो बुद्ध द्वारा दी गयी शिक्षाओं व आज के बौद्ध धर्म में ज़मीन-आसमान का अंतर है। आज का बौद्ध धर्म हिंदू धर्म की ही राह पर चल रहा है। दोनों में ज़्यादा  अंतर नही है और कुछ सालों बाद दलितों को बौद्ध धर्म भी नही अपनाना पड़ेगा क्योंकि अंबेडकर को भगवान बनाकर एक नया धर्म शुरू हो गया है।

धर्म बदल लेना नास्तिकवाद नहीं!

जिन बातों के खिलाफ बाबा अम्बेडकर थे अब उन्हीं बातों को आज के अंबेडकरवादी पूरा कर रहे हैं। बुद्ध और अंबेडकर के द्वारा दी गयी शिक्षाओं पर अमल करने की बजाए  उनके अनुयायियों ने उनको ही भगवान बना दिया है

और जिस धर्म में किसी भी तरह का भगवान पूजा जाता हो वहां नास्तिकतावाद कभी अपने पैर नही फैला सकता और यहां धर्म द्वारा दी गयी नास्तिकता की परिभाषा की बात नही हो रही है, जो कहती है कि “वेदों को न मानने वाला ही नास्तिक है।”

हिंदुओं के अनुसार अन्य धर्मों को मानना वाले भी नास्तिक ही हैं। इसलिए धर्म बदलने से कुछ होने वाला नही है। बदलना है तो खुद को बदलिए। अपनी सोच को बदलिए।तभी कुछ बदलाव देखने को मिलेगा।

कट्टर हिन्दू और अम्बेडकरवादी अब एक दूसरे के पर्याय

आज के एक अम्बेडकरवादी और कट्टर हिन्दू में ज़्यादा अंतर नही है और इसका मैं आपको एक उदाहरण देता हूं। हाल ही में उप्र सरकार ने आदेश पारित किया है कि सरकार वाहनों पर जाति सूचक स्टीकर या शब्द लगे होने पर गाड़ी को सीज़ कर सकती है। इसके अलावा वाहन मालिक को भारी चालान भी भरना पड़ सकता है। मतलब साफ है अगर आपकी गाड़ी पर खान, यादव, क्षत्रिय, पंडित, जाट जैसे कोई भी जातिसूचक नाम लिखा है, तब ट्रैफिक पुलिस आपके खिलाफ कार्यवाही कर सकती है।

अब सरकार के इस क़दम का जातिप्रथा का विरोध करने वालो को स्वागत करना चाहिए था लेकिन एक अंबेडकरवादी ने सरकार की इस पहल पर बोला कि “इन मनुवादियों की यह सोची समझी चाल है, क्योंकि इनको समझ आ गया है कि अब दलित लोग अपने दलित होने पर गर्व करते हैं और अपनी जाति को सम्मान के साथ अपने वाहन पर लिखवाते हैं। इसलिए दलितों के कॉम्पटीशन में आते ही इन मनुवादियों ने यह कदम उठाया है

और अग़र कहीं पर जाति के नाम पर किसी को प्रताड़ित किया जाता है या मार दिया जाता है, तब यह लोग ही कहते है कि इस जाति प्रथा को खत्म होना चाहिए, जो दलितों की जान ले रही है लेकिन जब सरकार इस प्रथा पर कुठाराघात करती है तब यही लोग विरोध करने आ जाते हैं। मतलब इनका  काम सिर्फ विरोध करना है चाहे सरकार कोई सही कदम उठाए या गलत।

कट्टरपंथी नहीं मानवतावादी बनिए

बुद्ध और अम्बेडकर को एक मनुष्य की तरह मानिए। उनके द्वारा दी गई शिक्षाओं पर अमल कीजिये। यह भगवान नही हैं,तब  इनको मनुष्य ही बने रहने दीजिए। अगर आप इनके द्वारा दिखाई गई राह पर चलकर एक मनुष्य बन गए तब समझिए आपने बहुत कुछ हासिल कर लिया है।

आप किस धर्म को मानते हैं या किसी भी धर्म को नहीं मानते हैं, इस बात से तब तक कोई फ़र्क नही पड़ता जब तक आप एक मानवतावादी हैं। जिस दिन आप मानवतावाद को छोड़कर कट्टरपंथ की राह पर चल निकलें तब आप चाहे किसी भी मत को मानने वाले हों!  उस दिन आप संकीर्ण सोच लिए एक कूपमंडूक बन जाते हैं। संशयवादी बनिए और दूसरी विचाराधाराओं को भी सुन सकें इतना सहनशील बनिए, क्योंकि पूर्ण रूप से न तो कोई सही है और न ही कोई गलत सत्य तो सदैव इन दोनों के बीच ही है।

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