किसान, अन्नदाता, कृषक, हलधर, भूमिपुत्र जैसे यह नाम हैं जो हमारे किसान समाज से जुड़े हुए हैं। वहीं आजकल तानाशाही सरकार से जुड़े लोग किसानों को आतंकवादी, खालिस्तानी, पाकिस्तानी, देश के गद्दार और भी न जाने क्या-क्या नामों से जोड़ रहे हैं।
ज़मीन से जुड़े हुए किसान आज अपने हक के लिए लड़ रहे हैं। अमीर का बंगला हो या गरीब की कुटिया आपको अन्नदाता हर हाल में मिल जाएगा, सुबह आपकी चाय से लेकर रात के दूध तक।
किसानों को नोच खाने की सरकारी रणनीति
किसानों का शोषण होना कोई नई बात नहीं है। यह तो सदियों से चली आ रही एक प्रथा बन गई। समाज में लाखों बदलाव हुए परंतु किसानों की समस्या वहीं की वहीं अटकी हुई है।
आज़ादी के बाद से किसानों की स्थिति का निरीक्षण करेंगे तो पाएंगे कि सरकार ने कई नीतियां ऐसी बनाईं जो निरर्थक साबित हुईं और उनसे कोई भी फायदा नहीं हुआ। किसान का हर हाल में शोषण किया गया। इसकी ज़िम्मेदार सिर्फ और सिर्फ उस समय की मौजूदा सरकार रही।
1859 का नील आंदोलन और आज का किसान आंदोलन
150 साल पहले भी किसान हताहत था और आज का किसान भी अपने हक के लिए लड़ रहा है। यह कितना असभ्य मालूम पड़ता है। 18वीं शताब्दी के बाद न जाने कितने ही किसान आंदोलन हुए। समाज ने हमेशा से किसान के विकास को दोयम दर्जे पर रखा।
किसानों के विद्रोह का वर्तमान रूप हम आज देख सकते हैं। दिल्ली सीमा से सटे हुए लाखों किसान आज भी सर्द रातों में अपने हक के लिए लड़ रहे हैं। आज भी किसान उसी दोराहे पर खड़ा है जहां 2 सदी पूर्व था।
किसान नेता राकेश टिकैत के आंसू में झलकता तानाशाही का दर्द
कहते हैं जब अन्याय अपने चरम पर होता है तो दुनिया का हर हिस्सा उसको छोटा लगने लगता है। अहंकार मनुष्य के अंदर मानवता का रूप तहस नहस कर देता है। 26 जनवरी को अपने गुंडों द्वारा लाल किले पर झंडे को फहराना किसानों का काम नहीं था। यह एक सोची समझी साज़िश रची गई थी जो पहले से ही नियोजित था।
किसानों के साथ उस दिन भी इंसाफ नहीं हुआ, उनको रास्तों से भटका दिया गया। 23 जनवरी 2021 को जब दिल्ली पुलिस और गृह मंत्रालय की बैठक में यह निर्णय लिया गया कि किसान परेड निकाल सकते हैं। उनकी यही इजाज़त इस बात का सुबूत है कि कुछ न कुछ गड़बड़ तो होनी है। जो सोचा उससे भी गिरी हुई हरकत हुई। सिर्फ और सिर्फ किसानों की छवि को खराब करने के लिए सरकार ने यह पैंतरा आज़माया।
वहीं जब बात करें 28 जनवरी की शाम की तो किसान के नेता राकेश टिकैत जी की हिम्मत ने अपनी भावुकता का द्वार खोल दिया। उनकी आंखों से आंसुओं की झड़ी निकल पड़ी। इसके बाद शायद हम सभी को यह बात नागवार गुज़री। यह बहुत तकलीफदेह रहा। जब सरकार एनआरसी का कानून लाने जा रही थी। उस दौरान भी आंदोलन हुए परंतु मुझे उस बात ने दुःखी तो ज़रूर किया था लेकिन रुलाया नहीं था। वहीं राकेश जी के आंसू देख किसानों की महापंचायत में भीड़ उमड़ पड़ी।