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“जाति और धर्म से बाहर शादी करके ही यह समाज इस जाति-धर्म के चंगुल से मुक्त हो सकेगा”

मैंने एक कहानी पढ़ी थी। एक किसान और उसके चार बेटे थे। समय आने पर उसने अपनी जमीन को चारों बेटों में बांट दिया। उसने अपने चारों बेटों को एक बराबर जमीन दी थी। सोचा चारों शांति से रहेंगे। एक आदमी बहुधा जैसा सोचता है, वैसा होता नहीं है। चारों एक समान मेहनत करते थे लेकिन पैदवार एक समान नहीं होती थी। इससे चारों भाइयों में वैमनस्य बढ़ता ही चला गया।

जिनके खेत में पैदवार कम होती थी वो अपने पिता पर क्रुद्ध रहता था। वहीं दूसरी ओर जिस बेटे की जमीन पर पैदवार अच्छी हो रही थी उसे ये लग रहा था कि वो ज्यादा प्रतिभशाली है। इस कारण ही वो फसल अच्छी उगा ले रहा है। इधर किसान के जिन बेटों की उपज कम हो रही थी, उसे प्रेम वश उसने ज़्यादा खाद-पानी देने लगा। ज़ाहिर सी बात थी उसकी पैदवार ज्यादा होने लगेगी। उस बेटे ने अपने खेत के चारों ओर बांध मजबूत कर दिया ताकि पानी और खाद अन्य भाइयों के पास न जा सके।

इसका फल वही हुआ जो होना था। अबकी बार दूसरे बेटे की पैदवार कम हो गई। इस बार किसान ने दुसरे बेटे को ज़्यादा खाद-पानी दिया। फसल अच्छी हुई और दूसरे बेटे ने भी अपने खेत के चारों ओर मजबूत बांध बंधवा दिया। फिर तीसरे और चौथे बेटों ने भी वैसे ही किया। बांध बढ़ती और मजबूत होती गई लेकिन दिल की दूरियाँ बढ़ती गई। मामला हल नहीं हुआ।

परेशान किसान अपनी समस्या लेकर गांव के सबसे बुज़ुर्ग व्यक्ति के पास गया। बुज़ुर्ग व्यक्ति हंसने लगा। उसने कहा कि जिस बेटे के खेत में पैदवार खराब हो रही है, उसको प्रोत्साहन देते रहोगे तो बांध बढ़ता ही जाएगा, दूरियां बढती ही जाएंगी। तुम ऐसा करो बांध ही तोड़ दो। पूरे खेत में जो पैदवार होगी, उसे अपने चारों बच्चों में बराबर-बराबर बांट दो। किसान ने वैसा ही किया। खेतों के बांध तोड़ दिए गए। पानी और खाद पूरे खेत में बांटी गई। जो फसल हुई उसे चारों बेटों में बराबर बांटा गया। समस्या हल हो गई।

इस कहानी में हमारे देश की सबसे बड़ी समस्या “जाति और धर्म” का हल छिपा हुआ है। भारतीय संविधान के निर्माताओं ने आरक्षण की व्यवस्था इसलिए की थी ताकि समाज में जातिगत और धर्मगत असमानताओं को दूर किया जा सके, और समतामूलक समाज की स्थापना हो सके। इसका परिणाम ठीक वैसा ही हो रहा है, जैसा कि किसान के साथ हुआ। जातिगत और धर्मगत आरक्षण प्रदान करने पर समाज में दूरियां और बढ़ती ही गई हैं।

पिछड़ी जाति के लोग अपने पिछड़ेपन का लाभ उठाने के लिए पिछड़े ही रहना चाहते हैं। जिन लोगों को किसी धर्म विशेष का होने के कारण आरक्षण मिलता है, तो वो उसी धर्म के होकर रहना चाहते हैं। इससे जाति और धर्मगत दूरियां कम होने के होने की बजाए और मजबूत होती जा रही हैं। उच्च लोगों को आरक्षण का लाभ नहीं मिल रहा है, इस कारण वो अपनी जातिगत श्रेष्ठता का बखान हमेशा करते रहते हैं। आरक्षण द्वारा ऐसी राजनैतिक पार्टियां उभर गई हैं जो जातिगत और धर्मगत राजनीति कर अपना पोषण कर रही हैं।

आरक्षण से दलितों और पिछड़ों का तो भला नहीं हुआ मगर जाति और धर्मगत राजनीति करने वाले नेताओं और राजनैतिक पार्टियों का भला आवश्य हो रहा है। ये राजनैतिक पार्टियाँ जिनका आधार ही जातिगत और धर्मगत असामनता है। फिर समतामूलक समाज की स्थापना कैसे होगी? लालू प्रसाद जी, मायावती जी, मुलायम जी, अखिलेश जी, राम विलास पासवान जी, चिराग पासवान जी, ओवैसी जी, ममता बनर्जी जी, अरविन्द केजरीवाल जी, राहुल जी, मोदी जी आदि सब इसके ज्वलंत उदहारण हैं।

कांग्रेस मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति करती आ रही है तो उसी रास्ते पर लालू प्रसाद जी, मायावती जी, मुलायम जी, अखिलेश जी, ममता बनर्जी जी भी निकल पड़े हैं। यही हालत दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल जी का है, जिन्होंने दिल्ली वासियों को फ्री वाई-फाई का वादा किया था। विकास का वादा किया था। जाति और धर्म से इतर राजनीति की बात की थी। आज तक वो सारे वादे चुनावी जुमले ही रह गए हैं। धर्म और जाति के विरुद्ध बात करते हुए वो सत्ता में आये मगर चुनाव आने पर कभी गुरूद्वारे जाकर पगड़ी पहनने लगते हैं, कभी वाराणसी जाकर गंगा में स्नान करने लगते हैं तो कभी मस्जिद में जाकर नमाज़ पढ़ने लगते हैं। यही भाजपा का भी है। हिंदुत्व का पक्षधर होकर आज वो पूरे भारत में फैलती जा रही है। ये राजनैतिक पार्टियां जो जातिगत और धर्मगत राजनीति कर अपना पोषण कर रहीं हैं, भला जाति और धर्म को मिटने क्यों देंगी?

इसका उपाय क्या है? हमें ऐसी व्यवस्था करनी होगी जिससे कि जाति और धर्म के मूल में चोट हो। मगर ये होगा कैसे ? जैसा कि हमने ऊपर की कहानी में देखा कि जबतक किसान कमज़ोर पैदावार वाले बेटे की मदद करता रहा, तब तक उसके बेटों में दूरियां बढती ही रही। समस्या तब हल हुई जब बांध गिरा दिया गया। इसी प्रकार जब तक जाति और धर्म के मूल में चोट नहीं करेंगे, ये कभी नहीं मिटेगा। जब तक जातिगत और धर्मगत बांधों को तोड़ा नहीं जाएगा, समतामूलक समाज की स्थापना नहीं हो पाएगी।

आखिर यह बांध बनती कैसे है? ज़ाहिर सी बात है कि इसका सम्बन्ध जन्मगत है। एक जाति और धर्म के लोग अपनी ही जाति या धर्म के स्त्री या पुरुष से शादी करके अपनी जाति को बचाकर रखते हैं। सोचिए अगर एक समाज में अंतरजातीय विवाह होने लगे तब क्या होगा? अगर एक धर्म के लोग दूसरे धर्म के लोगों से शादी करने लगें तब क्या होगा? जब एक समाज का बहुमत अपनी बाहर की जाति और धर्म के स्त्री या पुरुषों से शादी करने लगेंगे तब क्या होगा?

कल्पना कीजिए अगर एक परिवार में पिता ब्राह्मण, पत्नी कायस्थ, मामा क्षत्रिय, चाची दलित, नाना पंजाबी, नानी मुस्लिम, चाचा जैन, मौसी बौद्ध हो, मौसा ईसाई हो तो ऐसे परिवार में जाति और धर्म का क्या अस्तित्व होगा? जब इस तरह का समाज बन जाएगा तब जाति और धर्म अपना औचित्य खोने लगेंगे और राजनैतिक पार्टियों को विकास के अलवा किसी और चीज की चर्चा करने के अलावा कोई उपाय नहीं बचेगा।

लेकिन इस तरह के परिवार अस्तित्व में आएंगे कैसे? इसका उत्तर है जब धर्म और जाति के बाहर शादी करने वालों को आरक्षण मिलना शुरू हो जाएगा, तब इस तरह के परिवार अस्तित्व में आने लगेंगे। जो आरक्षण आजकल किसी जाति या धर्म विशेष के होने से मिलता है, उस आरक्षण को खत्म करके वैसे व्यक्तियों को आरक्षण का फायदा मिले जिसने धर्म और जाति से बाहर शादी की हो।

ऐसे ही लोगों को सरकारी नौकरी, रेलवे टिकट, हॉस्पिटल, स्कूल, इनकम टैक्स रिटर्न इत्यादि में छूट और आरक्षण देना चाहिए जिसने दूसरे धर्म और जाति के लोगों के साथ शादी की हो। इस तरह के आरक्षण और छूट का लाभ उठाने के लिए ज़्यादा से ज़्यादा युवा धर्म और जाति के बाहर शादी करने के लिए प्रेरित होने लगेंगे और धीरे धीरे हमारा देश जाति और धर्म की चंगुल से मुक्त होकर विकास की तरफ ध्यान दे सकेगा।

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