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“पेशेवर लेखिका नहीं हूं मगर अपने जज़्बातों को शब्दों में पिरोती हूं”

कामना व्यास

कामना व्यास

एक बार 6ठी क्लास में मुझे मेरी हिंदी और सोशल साइंस की टीचर ने कहा कि मैं अपनी उम्र से ज़्यादा बेहतर शब्दों को जानती हूं और स्टाफ रूम में मेरे उत्तरों और निबंधों के बारे में बहुत बातें भी होती हैं।

मुझे यह सुनकर बहुत अच्छा लगा और मैंने निर्णय लिया कि मुझे आगे चलकर किताबें लिखनी हैं लेकिन प्रिंसिपल द्वारा मेरी हॉबी का मज़ाक उड़ने के बाद मैंने शब्दों, लेखों और कविताओं से जैसे सारा रिश्ता ही खत्म कर दिया।

उसके बाद टेक्निकल लैंग्वेजेज़, कोडिंग और मॉड्यूल्स के जंजाल में इस तरह फंसती चली गई कि अंग्रेज़ी और हिंदी दोनों से ही एक अजनबीपन पैदा हो गया। आज के हालत ये हैं कि मैं अपनी 12 वर्ष की आयु के ज्ञान से केवल 10% शब्दों का ही इस्तेमाल कर पाती हूं।

इन सबके बीच मैंने समाज, इसमें होने वाली गतिविधियां, इसकी कमियां, इसकी अच्छाइयां, ऊंच-नीच, औरतों की स्थिति और वर्ण व्यवस्था को काफी नज़दीक से देखा और समझा भी है।

इनकी व्यथा जानने के बाद भी हमारे समाज में किसी को भी इतनी आज़ादी नहीं है कि वे इन सबके बारे में खुलकर कह सकें और बात कर सकें।

चूंकि मैं व्यवस्था के उस घेरे से आती हूं, जिसे समाज उच्च वर्ग कहता है और मेरे लिए यह जानना ज़रूरी था कि हमारे पुरखों ने ऐसा क्या किया कि एक बहुत बड़ा वर्ग समाज की गिनती से भी बाहर है।

खैर, यह एक बहुत बड़ा मसला है जिस पर काफी कुछ लिखा भी गया है और आगे और भी लिखा जाना है। इन सबसे इतर मुझे लगता है कि मैं समाज में अंतिम पंक्ति पर खड़े लोगों के लिए कुछ कर पाऊं, क्योंकि मैं उस वर्ग आती हूं जो धन से ना सही मगर शिक्षा आदि से सम्पन्न ज़रूर है।

तो मेरा दायित्व बनता है कि मैं समाज के उस तबके से आने वाले लोगों के उत्थान के लिए कुछ करूं जो सदियों से सताए हुए हैं।

मुझे आज से पांच साल पहले गूगल सर्च के ज़रिये Youth Ki Awaaz के बारे में जानकारी मिली थी और उसी समय मैंने यह तय कर लिया कि समाचारपत्र और मैगज़ीन आदि में लिखने से बेहतर है इस पोर्टल पर अपनी आवाज़ रखना।

समय का आभाव होने पर भी कोशिश करती हूं कि उन चीज़ों को पन्ने पर ऊतारूं जिन्हें मैंने जिया है। भले ही वो ईद में मिलने वाले 2 रुपयों की कहानी हों या समाज में कुछ बेहतर करने की कोशिश में बहिष्कार झेलने की बात हो।

मैंने अब तक कई विषयों पर अपनी आवाज़ बुलंद की है। नक्सली इलाके की घटनाओं से लेकर दिल्ली दंगों और दहेज प्रथा जैसे विषयों पर लगातार मैंने बेझिझक होकर लिखने का काम किया है।

इन सभी लेखों में सच्चाई यह है कि इन्हें उसी तरह लिखी गई है जिस तरह हम पहली बार किसी विषय पर बात कर रहे होते हैं। चूंकि कही गई बातों को सुनने वाला मिल पाए या नहीं, लिखे हुए जज़्बातो को कोई ना कोई पढ़ ज़रूर लेता है।

इस पोर्टल पर आकर मुझे मालूम हुआ कि जज़्बातो का भंडार लिए घूमने वाली इस दुनिया में अकेली मैं ही नहीं हूं, बल्कि मेरे साथ इस सफर में लाखों लोग हैं।

मुझे दूसरे लेखों को पढ़कर भी प्रेरणा मिलती है। मुझे आगे भी कोशिश करनी चाहिए, भले ही मैं लेखक ना बन पाऊं लेकिन अपने जज़्बातों को शब्दों में पिरोना तो सीख जाऊं।

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