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क्या बापू ज़िंदा होते तो वो इस देश में रहते?

महात्मा गाँधी की किताब मेरे सपनों का भारत में उनके यंग इंडिया के एक संस्करण (6 मार्च 1921) का ज़िक्र है। जहां वह लिखते हैं,

यदि भारत ने हिंसा को अपना धर्म स्वीकार कर लिया और यदि उस समय मैं जीवित रहा, तो मैं भारत में नहीं रहना चाहूंगा।

हम महात्मा गाँधी की 150वीं जयंती मना रहे हैं। क्या जिस तरह के भारत की कल्पना महात्मा गाँधी ने की थी, उस राह पर भारत आगे बढ़ रहा है?

लींचिंग वाला देश

जून 2019 में क्रांतिकारी समाजवादी पार्टी कोल्लम के सांसद एन के प्रेमचंद्रन के एक सवाल पर जानकारी देते हुए केंद्रीय गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय ने लोकसभा को बताया था कि राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के पास लींचिंग का डाटा सही नहीं है।  जबकि इसी जुलाई महीने में बिहार के छपरा ज़िला में मवेशी चुराने के संदेह में एक भीड़ ने तीन लोगों को पीट-पीटकर मार दिया था।

भीड़ के हत्थे अपनी जान गंवाने वालों में सबसे अधिक अल्पसंख्यक समुदाय के लोग इसके शिकार हुए हैं। इंडियास्पेंड की रिपोर्ट के मुताबिक 2015 से अबतक कुल 117 मामले गौरक्षक और इससे जुड़े हिंसा के सामने आए हैं। जबकि 2015 से अबतक 88 लोग भीड़ हिंसा में अपनी जान गंवा चुके हैं।

गाय से जुड़ी हिंसा के लिए 2017, 2010 के बाद से सबसे ख़राब साल रहा। इस साल 20 गौ-तस्करी हमले के मामले सामने आए। जिसमें भीड़ ने 11 मुस्लिमों को मार दिया।

बीते साल दिसंबर में भी इसी तरह की घटना योगी के राज्य बुलंदशहर में हुई थी। जिसमें शहर के स्याना में गोकशी के शक में हिंसा हुई थी और पुलिस इंस्पेक्टर सुबोध सिंह की हत्या कर दी गई थी। तो वहीं साल 2015 में दादरी में बीफ के शक में, भीड़ ने अखलाक को मौत के घाट उतार दिया था। इसी साल चोरी के शक में झारखंड में तबरेज़ अंसारी पर भीड़ ने इतना कहर बरपाया कि उसकी मौत हो गई।

इस तरह की कई घटनाएं हम गाँधी के भारत में देख रहें हैं। तो क्या यह वही भारत है जिसकी कल्पना कभी राष्ट्रपिता ने की थी? क्या बापू ज़िंदा होते तो वो इस देश में रहते?

कुटीर उद्योग का बट्टाधार करने वाली नीति

गाँधी कहते हैं,

भारत को अपने प्राथमिक उद्योगों की वैसे ही रक्षा करनी चाहिए, जैसे एक माँ पूरी दुनिया से अपने बच्चों की रक्षा करती है।

आगे वे लिखते हैं,

बड़ी मात्रा में जनता में गरीबी और आर्थिक बदहाली स्वदेशी के बाहर हो जाने की वजह है। अगर गाँव बर्बाद होते हैं तो भारत भी बर्बाद हो जाएगा।

गाँधी हमेशा भारत को गाँवों में देखते थे। उनका मानना था कि बड़े उद्योग ग्राम्य गणतंत्र और कुटीर उद्योग के लिए खतरनाक हैं लेकिन धीरे-धीरे हस्त उद्योग और कुटीर उद्योग हाशिए पर चला गया।

भूमंडलीकरण ने इसमें और तेज़ी ला दी। आलम यह हुआ कि गाँव में काम ना होने की वजह से शहरों की तरफ पलायन बढ़ता चला गया। इसकी मार सबसे ज़्यादा उत्तर भारत के लोगों पर पड़ी। हालांकि सरकार के आंकड़ों के मुताबिक बिहार और उत्तरप्रदेश में सबसे ज़्यादा सूक्ष्म लघु एवं मझोले उद्योग खोले गए।

केंद्रीय सूक्ष्म लघु एवं मध्यम उद्योग मंत्रालय से आरटीआई कार्यकर्ता रंजन तोमर द्वारा दायर एक आरटआई में मिली जानकारी के अनुसार मई 2016 से अगस्त 2018 के बीच बिहार में सर्वाधिक 5,88,200 छोटे उद्योग पंजीकृत हुए। इस दौरान पूरे देश में करीब 43,27,293 सूक्ष्म, लघु एवं मझोले उद्योग शुरू किए गए।

2017 में सरकार द्वारा जारी आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार, साल 2011 से 2016 के बीच पांच सालों में अंतरराज्यीय स्तर पर सालाना 90 लाख लोगों ने शिक्षा व रोजगार को लेकर पलायन किया। गाँधी के विचार इससे कहीं परे हैं। खेती किसानी की बदहाली और इन पर आधारित मज़दूरी को छोड़कर प्रवासी मज़दूर शहर में अव्यवस्थित माहौल में रहने को मजबूर रहते हैं।

गाँधी के हिंदुस्तानी शिक्षा पद्धति से हम कितने दूर हैं?

बापू का मानना था कि शिक्षा हिंदुस्तानी होनी चाहिए। अंग्रेज़ों की शिक्षा पद्धति देश-दुनिया को उनकी नज़र से देखती है। ऐसा हरगिज़ नहीं होना चाहिए।

गाँधी ने शिक्षा के उद्देश्यों को लेकर दो बातें कही थी। एक तात्कालिक और दूसरी दूरगामी। तात्कालिक उद्देश्य में उन्होंने रोज़ी-रोटी के लक्ष्यों, सांस्कृतिक उद्देश्यों और सभी शक्तियों के संभावित विकास, चरित्र निर्माण और स्वतंत्रता की बात कही थी। जबकि दूरगामी लक्ष्य जीवन के आखिरी लक्ष्य से संबंधित है, जो आत्मबोध, सच्चाई और ईश्वर का ज्ञान हासिल करना है।

गाँधी  मानते थे कि शिक्षा हमें आत्मनिर्भर बनाने वाली होनी चाहिए, ताकि वह बेरोज़गारी का सामना करने में सक्षम हो। बीते महीने एनएसएसओ ने बेरोज़गारी पर एक रिपोर्ट जारी करते हुए कहा कि बेरोज़गारी दर 45 साल के सबसे उच्चतम स्तर पर है।

शिक्षा के मामले में देश के उच्य शिक्षण संस्थान इतने पीछे रह गए हैं कि सितम्बर महीने में जारी टाईम्स हायर एजूकेशन की रिपोर्ट के मुताबिक शीर्ष 300 में कोई भी भारतीय शिक्षण संस्थान जगह नहीं बना पाया है।

बीते साल नीति आयोग ने केंद्र से सिफारिश करते हुए कहा था कि सरकार को कुल सकल घरेलु उत्पाद का कम से कम 6% शिक्षा पर खर्च करना चाहिए। जबकि भारत शिक्षा पर दुनिया में सबसे कम खर्च करने वाले देशों में शुमार है।

2013 वर्ल्ड बैंक के आंकड़ों के मुताबिक केंद्र और राज्य दोनों मिलकर कुल जीडीपी का 3.8% खर्च करती हैं। जबकि पूरे विश्व का शिक्षा पर औसतन खर्च 4.7 फीसदी है। क्या यह परिस्थिति नई शिक्षा नीति लागू होने के बाद बदल पाएगी? क्योंकि 33 साल के बाद देश में कस्तूरीरंगन कमेटी की अध्यक्षता में बनी नई शिक्षा नीति लागू होने वाली हैं।

नए भारत में गांधी के नशा मुक्त समाज की परिकल्पना

गाँधी कहते थे,

जो राष्ट्र शराब की आदत का शिकार है, उसके सामने विनाश मुंह बाये खड़ा है। मद्दपान से शरीर और आत्मा दोनों ही क्षतिग्रस्त होते हैं अर्थात नशा समाज को पंगु बनाता है।

लेकिन जिस देश की अर्थव्यवस्था ही नशे के आसरे खड़ी हो, वह देश नशा मुक्त गाँधी के भारत की कल्पना कैसे कर सकता हैं? लैंसेट द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक साल 2010 से 2017 के बीच भारत की वार्षिक शराब की खपत में 38 फीसदी की वृद्धि हुई है।

अमेरिका और चीन में शराब की प्रति व्यक्ति सर्वाधिक खपत के बाद भारत प्रति वयस्क 6 लीटर की सालाना खपत करता हैं। इस साल तमिलनाडु ने सबसे ज़्यादा शराब गटके। आंकड़ों के मुताबिक तमिलनाडु को शराब बेचने से 26130 करोड़ की आमदनी हुई।

राज्य सरकारों को तकरीबन कुल राजस्व का 20% आमदनी शराब पिलाने से होती है। यही नहीं, 2018 के दिसम्बर में आई जर्नल तम्बाकू कंट्रोल द्वारा जारी रिपोर्ट के मुताबिक सिर्फ राज्य सरकारों को तकरीबन कुल राजस्व का 20% आमदनी शराब पिलाने से होती है।

यही नहीं, 2018 के दिसम्बर में आई जर्नल तम्बाकू कंट्रोल द्वारा जारी रिपोर्ट के मुताबिक सिर्फ बीड़ी पीने की वज़ह से बिमार होने और ईलाज करवाने में भारतीय ने 80,550 करोड़ रूपए बर्बाद कर दिए।

अब सामने खड़े इन सारे तथ्यों के बीच बापू के ‘सपनों का भारत’ की कल्पना करना कितना चुनौती भरा है?

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