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यदि हॉरर फिल्में देखना आपको पसंद है, तो अस्सी के दशक की ये फिल्म ज़रूर देखनी चाहिए

एक देखने लायक हॉरर फिल्म। बारीक सूक्ष्म दृष्टि लिए हुए फिल्म। इस किस्म की हॉरर फिल्में बहुत कम बनती हैं। इस विषय की फिल्मों  की एक खास रूपरेखा-सी गढ़ दी गई है। क्यों एक हॉरर फिल्म वैसी ही होनी चाहिए जैसी की बनाई जाती है। अस्सी के दशक में रिलीज़  ‘गहराई’ प्रचलित  मान्यता को तोड़ती  फिल्म है।

अस्सी के दशक की हॉरर फिल्में

हिन्दी सिनेमा में हॉरर फिल्मों का मतलब या तो रामसे बंधुओं की बनाई टिपिकल फिल्मों से लगाया जाता है, या फिर रामगोपाल वर्मा के निर्माण कारखाने से निकली कुछ फिल्मों के ज़रिए। बहुत अधिक हुआ तो हमारा ध्यान विक्रम भट्ट पर जाकर टिक जाती है। माधवन अभिनित 13बी तक हम सोच पाते हैं लेकिन जिस फिल्म की तरफ नज़र नहीं जा पाती, वो अस्सी दशक की फिल्म ‘गहराई’ है।

विकास देसाई-अरुणा राजे ने अपनी फिल्म से हिन्दी सिनेमा में हॉरर फिल्मों की प्रचलित मान्यता को चुनौती दी। संवेदनशील होकर पहल लेने से ‘गहराई’ जैसी फिल्म बनी। आत्मा, काला जादू, भूत, अलौकिक शक्तियों के विषय को बहुत संयत तरीके से स्पर्श किया गया।

फिल्म का एक दृश्य, तस्वीर साभार: सोशल मीडिया

इसमें तकनीकी हथकण्डों के चतुर प्रयोग से दर्शक को डराने वाला मनोरंजन नहीं रचा गया, बल्कि किरदारों के मनोविज्ञान की परतों को सामने लाकर रख दिया गया। कम बजट का उपक्रम होकर भी बढिया फिल्में ऐसे ही बनती हैं। इस फिल्म में दर्शकों को गुमराह करने का प्रयास नहीं किया गया। इस फिल्म ने अपने विषय के प्रति ईमानदारी बरतने की मिसाल रखी।

कैमरे के साथ बाज़ीगरी कर दर्शकों को मुग्ध करने की कोशिश यहां नहीं हुई और ना ही किसी किस्म की ट्रिक का अनावश्यक इस्तेमाल किया गया। फिल्म में किसी खास किरदार को गलत रुप में  प्रोजेक्ट करने के लिए टारगेट भी नहीं किया गया। दर्शकों के मन में गलत चीज़ें गढ़कर मनोरंजन नहीं किया और परत दर परत कहानी को संयत तरीके से मंजिल तक पहुंचाया।

सबसे प्यारी बात फिल्म ने यथार्थ का दामन नहीं छोड़ा। यहां मौजूद यथार्थ अलग ही स्तर का है। ज़मीनी हकीकत के करीब होने के कारण कहानी आम दर्शकों से सीधे रिश्ता जोड़ पाती है। घटनाओं को इस अंदाज़ में पेश किया गया जैसा कि वो किसी भी शख्स की हो सकती है। अलौकिक शक्तियों को लेकर वास्तव में लोग किस तरह रिएक्ट करेंगे, इसका अध्ययन फिल्म में देखने को मिलता है।

विज्ञान और अंधविश्वास के बीच फंसे लोग

इंसानी जिंदगी में कई घटनाएं होती हैं। विज्ञान इन सभी का ठीक-ठीक जवाब दे पाने में असमर्थ है लेकिन चूंकी विज्ञान ने हमें कहा है कि किसी भी तथ्य पर तब तक यकीन नहीं करना जब तक कि वो वैज्ञानिक रुप से वैध ना हो। मतलब यह कि आदमी हमेशा उलझन में रहे। विज्ञान का भी आंख बंद करके भरोसा करना ठीक नहीं लेकिन अंधविश्वास की पंक्ति में विज्ञान खड़ा कर दिया जाता है।

वैज्ञानिक शोध में गहरे उतरे लोगों तक बात को समझा जा सकता है लेकिन बहुसंख्यक उन लोगों का क्या जिन्हें विज्ञान का कुछ भी नहीं पता।अखबार टेलीविजन द्वारा जो भी इन्हें बताया जाता है, उसी को मानने लगते हैं। इन्हें हमेशा दूसरों को सुनने के लिए मजबूर होना है। बड़े लोग सामने चीख-चीख कर अपनी बातें मनवाते हैं।

फिल्म का एक दृश्य, तस्वीर साभार: सोशल मीडिया

अलौकिक शक्तियों के बारे में किताबों में पढ़ना, उनके प्रतिरूप को टीवी और फिल्मों में देखना अलग बात है। उलझन के दौर में उलझन में जी रहे लोगों का ऐसी चीज़ों से वास्तव में वास्ता पड़ना दूसरी बात है। अलौकिक ताकतों को समझ पाना या उनकी व्याख्या करना बहुत सरल नहीं है।

अनदेखी अनजान समस्याओं के गिरफ्त में आ जाने से परिवार का चैन सुकून छिन जाता है। वो तबाह हो जाते हैं। ज़ाहिर-सी बात है, यह लोग मनोवैज्ञानिकों या डॉक्टरों के चंगुल में फंस जाते हैं, क्योंकि सारा मामला व्यक्ति को दिमागी रूप से बीमार या पागल करार देने तक रुक जाता है। ऐसे लोगों की मदद को कोई आगे नहीं आता लेकिन पागल बता देना सबसे आसान होता है।

कैसे उपभोक्तावाद और पूंजीवाद के फेर में आदमी फंस के रह गया है?

उपभोक्तावाद, पूंजीवाद के फेर में आदमी फंस के रह गया है। इन दोनों अवधारणाओं ने आदमी को आदमी से दूर कर दिया। फर्क करके समाज को बांट दिया। नतीजतन समाज संवेदनाविहीन हो गया। सबको बस अपनी पड़ी है। गरीब तबके की मदद करना तो दूर उसके बारे में सोच को लेकर भी कमी है।

पूंजीपति की ज़मीन पर काम करने वाले किसान का ही उदारण देख लीजिए। सारा जीवन अपना घर समझ कर काम करने वाले यह लोग मालिक का झूठा स्नेह भी नहीं पाते। फिर भी सब कुछ त्याग कर वहीं पड़े रहते हैं लेकिन यह लोग एक झटके में बंधन तोड़ दिए जाने पर कहीं के नहीं रहते। विकास के नाम पर उन्हें सब छोड़ने को मज़बूर किया जाता है। क्या इसकी भरपाई हो सकती है? शायद कभी नहीं हो सकती।

मामला दूसरा काम दिलाने या मिलने का नहीं। मामला ज़मीन से अटूट स्नेह का है। खेत पर काम करते-करते किसान भाई उससे भावनात्मक रिश्ता जोड़ लेते हैं। इतना गहरा रिश्ता टूटने पर आदमी टूट जाता है, क्योंकि मेहनतकश लोगों के पास जिंदगी में और कुछ होता नहीं। पेड़-पौधे, पशु, ऋतुओं से आजीवन रिश्ते का आशय लगाया नहीं जा सकता।

फिल्म में एक युवक अपनी प्रेमिका को घर के लोगों से मिलवाने लाया है। युवक की किशोरी बहन (पदमिनी कोल्हापुरे) नई मेहमान को घर दिखाने अपने साथ भीतर ले जाती है लेकिन थोड़ी ही देर में वो लड़की उतरा हुआ चेहरा लेकर चली आती है। घर वापस ले जाने की ज़िद करने लगती है।

फिल्म में की कुछ बातें कतई सामान्य नहीं हैं। किशोरी बहन का बड़े भाई की ओर वयस्कता मे झुकना सामान्य नहीं है। घर के सारे लोग एक साथ एक कमरे मे जमे हुए हैं। बेटा नहाने को गुसलखाने की ओर जा रहा है। यकायक तभी किशोरी छोटी बहन उठकर उसकी तरफ आई और उसे बाहों में भर लिया। उससे वो सब बातें कहने लगी जो कि एक बाज़ार वाली बाई अपने ग्राहक से करती है।

घर का हरेक सदस्य इस घटना से स्तब्ध है। भाई किसी तरह बच-बचाकर रहा कि अनजाने पाप से बचे। कैरम में सारे लोग मग्न से हैं। तभी छोटी बेटी उठी और पिता पर शारीरिक शोषण के संगीन इलज़ाम लगाने लगी। मां को बताया कि किस तरह पिता ने किसी दूसरी शक्ल में उसके साथ गलत किया है।

फिल्म का एक दृश्य, तस्वीर साभार: सोशल मीडिया

मां बेटी की बातों से हैरान है। सोचने की बात भी थी कि ऐसा भला हो सकता है क्या? नतीजतन उसे दिमाग के डॉक्टर के पास ले जाया जाता है। ईलाज के नाम पर किशोरी को बिजली के झटके लगाए जाते हैं।

मनोवैज्ञानिक समस्या झेल रहे एक परिवार की मनोस्थिति का स्पष्ट चित्रण ‘गहराई’ फिल्म में किया गया है। समस्या पीड़ित सदस्य तक सीमित नहीं रहती, बल्कि समूचा परिवार उसके ज़द में आ जाता है। घर के पुराने नौकर के अनुसार लड़की पर भूत का साया था।

घरवाले बीमार बेटी को डॉक्टर के पास ले जाते हैं। मगर ईलाज के नाम पर बिजली के झटके लगाए जाते हैं। हांलाकि बेटी की बीमारी को लेकर बाप -बेटे में मतभेद थे। नए इलाज में झाड़-फूंक के लिए तांत्रिक को बुलाया जाता है। अफसोस मरज ठीक होने के बजाए जंजाल-सा लगने लगता है.। किशोरी की बीमारी अबूझ रहस्य-सी हो जाती है। किसी तरह लड़की बाबा के चंगुल से मुक्त की जाती है।

कलाकारों का अभिनय फिल्म को बना देता है और शानदार

किशोरी युवती के रोल में पद्मिनी कोल्हापुरे का जबरदस्त अभिनय फिल्म की जान है। वो बिल्कुल किशोरी थीं फिर भी किरदार की बारीकियों को बहुत गहराई से पकड़ा। फिल्म में हालांकि न्यूड सीन की ख़ास ज़रूरत नहीं थी। पदमिनी के पिता के रोल में डॉक्टर श्री राम लागू, मां इंद्रानि मुखर्जी, भाई अनंत नाग सभी ने अपने किरदारों के साथ न्याय किया है। अमरीश पुरी छोटे से रोल में भी बहुत प्रभावी हैं।

इस फिल्म की कसी हुई पटकथा, सधे हुए चरित्र उनका मनोवैज्ञानिक एंगल और समस्या से आंख मिलाकर कहानी का विस्तार है। हमें यह भी याद रखना चाहिए कि फिल्म में किसी भी तकनीक का ऊलजुलूल इस्तेमाल नहीं है। यथार्थ का मार्ग अपनाया गया है।

कहना होगा कि बी और सी ग्रेड भूतिया फिल्मों की भीड़ में ‘गहराई’ वो रोशन चिराग है जिसकी रोशनी हमेशा रहेगी। चालीस बरस पहले 9सितम्बर, 1980 को  रिलीज़ होकर भी इस फिल्म ने महत्व नहीं खोया है।

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