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“विद्यालय कैम्पसों को बंद रखना डिजिटल डिवाइड का समर्थन करने जैसा है”

मेरे कारण मेरा परिवार कई आर्थिक समस्याओं का सामना कर रहा है। मैं अपने परिवार के लिए बोझ हूं। मेरी शिक्षा एक बोझ है। अगर मैं पढ़ाई नहीं कर सकती तो मैं जिंदा भी नहीं रह सकती। मैं इसके बारे में सोच रही थी और अब मुझे लगता हैं कि मौत ही मेरी लिए एक मात्र रास्ता रह गया है।

12वीं में 98.5 प्रतिशत स्कोर करने वाली 19 साल की ऐश्वर्या रेड्डी के ये अंतिम शब्द थे जब उन्होंने अपने परिवार कि मुश्किलें कम करने के लिए दुनिया को छोड़ना बेहतर समझा।

दरअसल कानूनी शब्दावली में इसे आत्महत्या कि संज्ञा दी गई है लेकिन वास्तव में ये सरकार एवं विश्वविद्यालय की नीतियों द्वारा की गई एक संस्थानिक हत्या है।

ऑनलाइन शिक्षण प्रक्रिया के नाम पर पल्ला नहीं झाड़ सकती सरकार

दो नवंबर के दिन हुई इस संस्थानिक हत्या के बाद भी अगर ध्यान दे तो स्कूल, कालेज, हॉस्टल खुलने के संदर्भ में केवल गाइड लाइन ही जारी हो रही है। सरकार को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि छात्र अपनी पढ़ाई-लिखाई को लेकर किस हद तक परेशान है।

इन मुश्किलों को कम करने की दिशा में अब तक सरकार के तरफ से कोई ठोस कदम देखने को नहीं मिला हैं। समस्त शिक्षण प्रकिया ऑनलाइन हो रही हैं यह कहते हुए सरकार अपना पल्ला हर बार झाड़ लेती है।

लेकिन अगर आप ध्यान दे तो आप को कई ऐसे मुद्दे नज़र आएंगे जिसका समाधान ऑनलाइन नहीं हो सकता है। इस दिशा में जो सबसे बड़ी समस्या है वो डिजिटल डिवाइड की समस्या है। इसी समस्या को पैदा करके ऐश्वर्या जैसी होनहार छात्रा की संस्थानिक हत्या की गई। इसलिए इस समस्या के संदर्भ में कई वामपंथी छात्र संगठनों द्वारा पुरजोर तरीके से इसके विरोध में आवाज उठाई जा रही हैं।

आइए जानते हैं क्या है डिजिटल डिवाइड?

अब अगर आप इस डिजिटल डिवाइड शब्द से पहली बार परिचित हो रहें हैं तो शायद इसका मतलब आप को समझ में न आ रहा हो, लेकिन इसका मतलब बेहद असान है। दरअसल, आप ने अपने स्कूल कालेज में देखा होगा कि वहां कई तरह के लैब होते है उसी में एक कम्पूटर लैब या लाइब्रेरी भी होती है जहां बहुत सारे कंप्यूटर लगे होते है। वो कम्पूटर वहां इसलिए होते है ताकि वो डिजिटल डिवाइड की समस्या को दूर कर सके।

मतलब ये कि जो छात्र इन महंगे उपकरणों की खरीद नहीं कर सकते वो इन उपकरणों का इस्तेमाल कर, अपनी पढ़ाई-लिखाई को जारी रख सकें।

आर्थिक रुप से कमज़ोर छात्रों के लिए छ्लावा है ऑनलाइन शिक्षा

वो छात्र जिनकी आर्थिक स्थिति इतनी दयनीय है कि वो किताब खरीदने में भी खुद को सक्षम नहीं समझते, वो लाइब्रेरी से अपनी समस्या का समाधान कर लेते हैं। किन्तु लॉकडाउन के कारण सभी शिक्षण संस्थाए बंद हो गयीं। ये सभी उपकरण एवं किताबें आम छात्रो की पहुंच से बाहर हो गए। ऐसी स्थिति में केवल वही पढ़ सकता था जो आर्थिक तौर पर मजबूत हो, चूंकि शिक्षा ऑनलाइन चल रही थी और भारत में ऐसे छात्रो कि तादात ज्यादा है जो तकनीकि कारणों से खरीद करने में सक्षम नहीं है।

इसलिए इस समस्या को डिजिटल डिवाइड की समस्या की संज्ञा दी गई। लम्बें समय तक स्कूल-कॉलेजो को बंद रखना इस समस्या को और भी गंभीर बनाता है।

डिजिटल डिवाइड के इतर भी कई ऐसी समस्यायेेें हैं जो सरकार की गलत नीतियों के चलते उत्पन्न हुई है, जिसकी कोई खास जरुरत नहीं थी। आप को पता है कि अब तक अनलॉक कि प्रक्रिया में धीरे-धीरे लगभग सभी पाबंदियों को हटा लिया गया है। अब आप एहतियात के साथ एक राज्य से दूसरे राज्य में सफ़र कर सकते हैं, सिनेमा देख सकते हैं, मॉल में शॉपिंग कर सकते हैं, चुनावों की रैलियों में शामिल हो सकते हैं इत्यादि इत्यादि।

विद्यालयों में आखिर ताला कब तक?

लेकिन एक चीज अभी भी है जो छात्र नहीं कर सकते हैं। वो ये कि छात्र अपने स्कूल कॉलेज के हॉस्टलों में नहीं रह सकते हैं, कैम्पस उनके लिए बंद है। कारण पूछने पर संस्थानों के प्राचार्य, निदेशक, कुलपति द्वारा बताया जाता है कि ‘कोरोना है’। 2021 आ गया लेकिन छात्रों के लिए अभी भी कोरोना है।

वो कहतें हैं कि ऐसा ऐसी गाइड लाइन उनको ऊपर से मिली है। आप को ये बता दे कि जो छात्र कोरोना आने से पहले हॉस्टलों में रह गए थे और अपने घर नहीं गए, अनलॉक के दौरन विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा उन्हें जबरदस्ती या किसी बहाने से बाहर कर दिया गया। अभी ताजा मामला योगी जी के संसदीय क्षेत्र में अवस्थित दीनदयाल दयाल उपाध्याय, गोरखपुर यूनिवर्सिटी का है।

जहां छात्रों का आरोप है कि हॉस्टलों को सेनेटाईजेशन के नाम पर जबरदस्ती खाली कराया जा रहा है। अब ऐसे में सोचने वाली बात ये है कि अगर अभी इतनी लेट में कोरोना को लेकर गोरखपुर यूनिवर्सिटी प्रशासन की नींद खुली है तो ये एक अपराध है। क्योंकि जब जरुरत थी उस समय आप के प्रशासन ने कोरोना को गंभीरता से नहीं लिया और अब ठंड में उनको बाहर करके उनके साथ आप अन्याय कर रहे हैं।

एक और बात आप के संज्ञान में होनी चाहिए कि अनलॉक के प्रारंभिक चरण से ही कुलपति, प्रोफ़ेसर, कर्मचारी इत्यादि प्रशासन से जुड़े लोगों का बाहर की दुनिया से अवागमन सुचारू रूप से चल रहा है लेकिन वो खुद को कोरोना का वाहक नहीं समझते हैं। ऐसा क्यों है? ये एक सोचने वाली बात है। दरअसल छात्रो का मत है कि वि. वि. प्रसाशन और सरकार नहीं चाहती की पूर्ण रूप से पढ़ाई लिखाई की प्रक्रिया प्रारंभ हो। जिसकी दो वजह है-

प्रथम कारण

पहला, तो ये के विश्वविद्यालय के टीचिंग स्टॉप को बिना कोई खास अध्ययन और अध्यापन कार्य के ही मोटी तनख्वाह मिल ही रही है तो वो क्यों चाहेगें कि विश्वविद्यालय खुले बल्कि वो तो चाहेंगे कि कोरोना के नए स्ट्रेन के नाम पर कुछ और दिनों के लिए कैम्पस छात्र विहीन बना रहे।

दूसरा कारण

यह कारण सरकार के हित में जाता है कि यदि उन्होंने पूरी तरीके से कैम्पस खोल दिया तो ऐसे में छात्र देश हित के तमाम मुद्दों को लेकर आंदोलित हो सकते है। सरकार के विरोध में जा सकते है। ये भी हो सकता है किसानों के समर्थन में एक जुटता दिखलाते हुए किसानों के आन्दोलन को और भी तेज कर सकते है। इसलिए कैम्पस न खोलना ही सरकार को अपने हित लगता हो।

छात्रों के बीच के इस गतिरोध में लाभ केवल उन्हें मिल रहा है जो काम नहीं करना चाहते। साथ ही उन्हें भी जो ऑनलाइन कोचिंग बिजनेस का प्रचार प्रसार कर डिजिटल डिवाइड की समस्या को और भी गंभीर बना रहे है इस बीच जो शोषण का सबसे ज्यादा शिकार हुआ है वो छात्राएं है। जिनकी न केवल पढ़ाई बाधित हुई है अपितु कैम्पस और हॉस्टलों के न खुलने के कारण उन्हें घर पर रहते हुए पारिवारिक कामकाज का अतिरिक्त बोझ भी झेलना पड़ रहा है।

ऐसा भी हो सकता है कि कोरोना से उपजे आर्थिक संकट या फिर किसी अन्य कारण से उनके साथ घर-परिवार में हिंसा भी हो रही हो और वो दोबारा कालेज ही न भेजी जाये।

जो भी हो, सब कुछ बेहद चिंताजनक एवं दुखी करने वाला है। इसलिए जरुरी है कि सरकार को तर्कसंगत निर्णय लेते हुए अब कैम्पसों को पूर्ण रूप से खोल दिया जाना चाहिए ताकि डिजिटल डिवाइड के साथ ही अन्य समस्त समस्याओं का निराकरण एक साथ संभव हो सके।

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