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“ग्रैजुएशन के दौरान मेरी यूनिवर्सिटी में एक भी दिन क्लास नहीं हुए”

फोटो साभार- Flickr

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राजनीति मतलब राज्य के नीति या नियम। अर्थात हम ऐसा भी कह सकते हैं कि एक राज्य, देश या पंचायत को सुचारु रूप से चलाने के लिए नीति व नियम की ज़रूरत होती है। अब इन नियमों को उच्च स्तर पर ले जाने के लिए कुछ लोगों को हम चुनते हैं ताकि हम और हमारे लोग उनके सहयोग से आगे बढ़ सकें लेकिन होता क्या है? हम और आप जिन्हें चुनेंगे, वही कल हमें धुनेंगे।

मौजूदा दौर में अगर बात राजनीति की हो और विशेषकर भारतीय राजनीति की, तो लगता है खूबसूरत राजनीति के चेहरे पर आज के मज़हबी दरिंदों ने तेज़ाब फेंक दिया है। राजनीति सड़क पर किसी जीवित व्यक्ति की भांति खून से लहूलुहान होकर लोट रही है और आम लोग तस्वीर लेने में लगे हुए हैं।

बिहार में बेहतर शिक्षा व्यवस्था की ज़रूरत

इस राजनीति को बेहतर बनाने की हिम्मत कुछ लोगों के पास ज़रूर है मगर तस्वीर लेने वाले लोग उन्हें आगे ही नहीं जाने दे रहे हैं। कुछ ऐसी ही दशा वर्तमान में शिक्षा व्यवस्था की है। मैं खुद बिहार राज्य से हूं और मैंने जो अनुभव किया है, वह मैं साझा कर रहा हूं।

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हमारे देश के प्रधानमंत्री विश्वपटल पर बहुत ही गर्व से बोल देते हैं कि हमने देश को युद्ध नहीं, बुद्ध दिया है लेकिन जिस जगह से बुद्ध आए थे, बुद्ध को जहां से बुद्धि मिली थी उस जगह यानि बिहार की हालात शिक्षा व्यवस्था के मामले में दयनीय है। हां, यह बात सच है कि देश के ज़्यादातर प्रतियोगी परीक्षाओं में अच्छे रैंक हासिल करने वाले लोग बिहार से ही होते हैं लेकिन ऐसा करने के लिए उन्हें वहां से बाहर जाना होता है।

मेरा मानना है कि बिहार में एक भी विश्वविद्यालय की हालल ऐसी नहीं है, जहां से लोग स्नातक की अच्छी पढ़ाई कर सकें। मैं यहां पर एक छोटी कहानी पर ध्यान देना चाहूंगा। मैं अभी दिल्ली में हूं और दिल्ली यूनिवर्सिटी के पत्रकारिता कोर्स में दाखिला लेने के लिए प्रयासरत हूं। पिछले दिनों जब मैं अपने गाँव गया और दोस्तों से मिला, तब वे बता रहे थे कि एक दोस्त का बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में दाखिला हो गया है। यह बताते वक्त उसकी आंखों में दोस्त के लिए इज्ज़त दिख रही थी और खुद के लिए नफरत।

दरअसल, वो यह कहना चाह रहा था कि जिसका वहां दाखिला हो गया समझो लड़के की ज़िंदगी संवर गई। अगर आप वहां जाकर यह बोल देंगे कि आप बीएचयू में पढ़ते हैं, तो बेहतर है और अगर आप दिल्ली यूनिवर्सिटी में हैं, तो आप उसकी नज़रों में और ऊपर उठ जाएंगे। इस बीच बिहार की ही किसी यूनिवर्सिटी का ज़िक्र अगर आप कर देंगे, तो वे बेकारी की कैटेगरी में आपको शामिल कर देंगे।

मैं यह दावे के साथ कह सकता हूं कि जिस ज़िले से मैं आता हू, वहां की एक भी यूनिवर्सिटी में तीन साल के अंतराल में स्नातक की पढ़ाई के लिए एक दिन भी क्लास नहीं लगी है। यहां तक कि मेरी यूनिवर्सिटी में भी एक भी दिन क्लास नहीं हुए थे।

9वीं कक्षा में भी अनियमितताओं का सामना किया

मुझे याद है 9वीं कक्षा में जब मैं फिज़िक्स की किताब लेकर जाता था, तब केमिस्ट्री की पढ़ाई हो जाती थी और जिस रोज़ हिन्दी की किताब लेकर जाता था, उस रोज़ इंग्लिश की पढ़ाई होती थी।

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दसवीं में तो बच्चे खुद स्कूल ना जाकर कोचिंग पकड़ लेते थे। ग्यारवीं-बारहवीं में बच्चे कोचिंग से पढ़कर ही पास करते थे और आज भी वैसे ही हालात हैं। कोचिंग के सर से कुछ पूछने जाओ तो वह अलग अपने तेवर में आ जाते थे कि इतना अंदर तक क्यों जानना चाहते हो, परीक्षा के लिए यह महत्वपूर्ण नहीं है।

अब आप खुद सोचिए कि जहां अपने मन के कुछ प्रश्नों का उत्तर नहीं मिल पा रहा हो, वहां बच्चे का दिमाग कैसे विकसित हो पाएगा? इस बारे में जिनसे भी बात करो, वे कलाम का ज़िक्र करने लग जाते हैं। अब हर कोई कलाम थोड़े ही बन जाएगा।

अगर किसी दूसरे राज्य के कॉलेजों की बात की जाए, तो बच्चे हाफ मिड सेमेस्टर में पहुंच गए हैं। उनका एक-दो एग्ज़ाम भी हो गया है और हम मग्न हैं अपने इतिहास को लेकर कि हमने यह दिया और हमने वह दिया।

शिक्षा व्यवस्था पर सवाल उठाने वालों को देशद्रोही बता दिया जाता है

दरअसल, हम सभी ऐसी सोच से घिर चुके हैं कि हमें इतिहास ही खुशी दे जाती है और वर्तमान पर ध्यान भी नहीं रहता। हमारे पास गर्व करने के लिए बीती हुई घटनाओं के अलावा कुछ भी नहीं है। हम बेहतर बनने की कोशिश इतने अंधे होकर कर रहे हैं कि हमें बदतर चीज़ें दिखाई ही नहीं देती। किसी को अगर बोलो कि सब कुछ सही नहीं है, तो आपको नेगेटिव थिंकिंग वाला आदमी बोल दिया जाएगा।

हमलोग बस एक सिनेमा देख रहे हैं, वह भी मन की आंखों को बंद करके, जिस दिन यह पर्दा गिरेगा सब कुछ दिख जाएगा। पिछले कई सालों से शिक्षा व्यवस्था में यही प्रक्रिया चलती आ रही है। अगर हमारे क्षेत्र के नेता इस बारे में विचार करना शुरू कर दें, तो चीज़ें बेहतर हो सकती हैं।

शिक्षा व्यवस्था पर सवाल उठाने वालों को देशद्रोही बता दिया जाता है। जो लोग कुर्सी पर बैठ गए हैं, वे बोलने के नाम पर कुछ भी बोल रहे हैं। उन्हें देश की शिक्षा व्यवस्था दिखाई ही नहीं देती है।

मानवाधिकार और नन्हें फनकार के स्वाभिमान व उनकी क्षमता को कुछ इस तरह से कुचला जा रहा है जैसे आहिस्ते से केले पर पैर रख देने पर केले और छिलके दोनों अलग-अलग हो जाते हैं। यकीन मानिये ये आहिस्ते से पैर रखने वाले लोग एक दिन ज़रूर फिसलेंगे।

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