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हमारी कानून-व्यवस्था के बारे में बहुत कुछ बताती है फिल्म नेलपॉलिश

गुनाह कौन करता है, दिमाग या शरीर? इस प्रश्न के साथ नेलपॉलिश फिल्म की शुरुआत होती है। नेलपॉलिश 1 जनवरी 2021 को डिजिटल प्लेटफॉर्म ज़ी 5 पर रिलीज़ हुई।

फिल्म के लेखक और निर्देशक बग्स भार्गव कृष्णा हैं। जबकि फिल्म के मुख्य किरदार में मानव कौल (वीर सिंह), अर्जुन रामपाल (सीड जयसिंह), आंनद तिवारी (अमित कुमार) और राजित कपूर (जज भूषण) हैं।

कहानी

कहानी शुरू होती है उत्तर प्रदेश से जहां पिछले 5 सालों में 36 प्रवासी लोगों के बच्चों को बेहरेहमी के साथ शारीरिक उत्पीड़न के बाद मारकर जला दिया जाता है। उसके बाद 2 बच्चों श्याम और श्यामला को ठीक वैसे ही मारा जाता है, जिसका इल्ज़ाम वीर सिंह पर लगता है, जो पहले इंडियन फोर्स में थे फिर बाद में सामाजिक कार्यकर्ता बने। अर्जुन रामपाल जहां वीर सिंह के पक्ष में खड़े होते हैं, वहीं अमित कुमार उनके विपक्ष में केस लड़ते हैं।

कहानी आगे बढ़ती है, एक घण्टे के बाद एक ऐसा हादसा होता है, जो पूरी कहानी को बदलकर रख देता है। वीर सिंह की जेल में कैदियों के साथ लड़ाई होती है और उसे बहुत पीटा जाता है। 3 महीने हॉस्पिटल में ज़िंदगी और मौत से लड़कर जब वीर सिंह ठीक होते हैं तो पाया जाता है कि वीर सिंह शरीर से तो वही रहता है परंतु दिमाग से नहीं।

वीर सिंह ‘Dissociative Identity Disorder’ यानि DID से ग्रसित हो जाता है। जहां वह वीर सिंह से वो चारु रैना बन जाता है। उसे ऐसा लगता है कि वह चारु रैना है और वह उसी की तरह व्यवहार करने लगता है। उसका चाल-चलन कुछ दिनों में सब बदल जाता है और कहानी अपने नए रुख पर आती है।

वीर सिंह का यह डिसऑर्डर कोर्ट के लिए जितना आश्चर्यजनक होता है, उतना ही दर्शकों के लिए भी, क्योंकि उन्हें यह देखने को मिलता है कि एक डी.आई.डी. से ग्रसित रोगी के साथ लोग कैसा व्यवहार करते हैं।

जेल में उसे शारीरिक उत्पीड़न सहना पड़ता है और उसके बाद भी कोई उसकी बातों को नहीं समझता। यह फिल्म कहीं ना कहीं हमें हमारी कानून-व्यवस्था के बारे में बहुत कुछ बताती है। जैसे अगर कोई इंसान इस डिसऑर्डर से पीड़ित है तो उसके लिए जेल में कोई सुविधा नहीं है। उसके साथ लोग बद से बदतर व्यवहार करते हैं। इसी के साथ कहानी का अंत होता है, जहां यह पता चलता है कि वीर सिंह वास्तव में इस डिसऑर्डर से पीड़ित है और कोर्ट अपना फैसला सुनाती है।

कोर्ट का फैसला

जज भूषण कहते हैं कि दलीलें हवा के रुख के साथ बदल जाती हैं लेकिन एक चीज़ कभी नहीं भटकती है और वो है इंसाफ। यह लाइन बखूबी बोली गई हैं लेकिन इस फिल्म ने इस बात को कहीं ना कहीं जस्टिफाई नहीं किया।

जहां एक तरफ वीर सिंह को इंसाफ मिला, वहीं दूसरी ओर 38 बच्चों के कातिल का पता नहीं चला। यह कहानी जिस कहानी के साथ शुरू हुई, वहीं अंत किसी और कहानी पर हुआ लेकिन फिल्म का जो मकसद था वह बढ़ चढ़कर बोल उठा।

किरदारों की बात

मानव कौल ने दोनों ही किरदार वीर सिंह और चारु रैना दोनों को बखूबी निभाया। अर्जुन रामपाल ने अपने अंदाज़ को इस फिल्म में भी ज़िंदा रखा है। आंनद तिवारी ने एक साधारण और सक्षम वकील की भूमिका निभाई है। वहीं, राजित कपूर ने बाकि किरदारों को काफी अच्छे से सपोर्ट किया है। जज भूषण के पत्नी के किरदार को क्यों फिल्म में डाला गया समझ में नहीं आया।

नेलपॉलिश घिसीपिटी हिंदी फिल्म जैसी बिल्कुल भी नहीं है। इस फिल्म ने कुछ ऐसे बिंदुओं को उजागर किया है जिससे आज भी हिंदी सिनेमा अछूता है। साथ ही फिल्म में मेंटल इलनेस को वैसे ही दिखाया गया है जैसा होता है। बाकी फिल्मों की तरह नहीं, जहां मेंटल इलनेस का मतलब बस इलेक्ट्रिक शॉक होता है। दो घण्टे आठ मिनट की यह कहानी शुरू से लेकर अंत तक दर्शकों का ध्यान बनाए रखने में सक्षम है।

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