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वेब सीरीज़ तांडव में महिला पात्रों का ऑब्जेक्टिफिकेशन कितना सही है?

एमेज़ॉन प्राइम पर पिछले दिनों अली अब्बास ज़फर ने वेब सीरीज़ ‘तांडव’ में एक पॉलिटिकल ड्रामा वाली कहानी कहने की कोशिश की। अली अब्बास ज़फर ने डिजिटल दुनिया में पैर जमाने के लिए जिस तरह की कहानी बुनी है वह शायद ही लोगों के दिलों में कोई छाप छोड़ पाए। खासकर तब जब कहानी कहने के लिए जिन महिला पात्रों की कहानी बुनी है वह केवल सेक्सिज़म से घिरी दिखती हैं या औरत कम ऑब्जेक्टिफ़िकेशन की मूर्ति अधिक दिखती हैं।

क्या एमबिशस औरतें ऐसी ही दिखाई जानी चाहिए?

पूरी कहानी में लगता है यह बताने की ज़िद्द अधिक है कि औरतों को कुछ और नहीं आता है, आता है तो केवल अपने शरीर का इस्तेमाल करके ऊपर चढ़ना। कॉलेज की छात्रा सना अपने प्रोफेसर के साथ सेक्स करती है क्योंकि उसे पैसे चाहिए। अनुराधा की पार्टी में उपस्थिति उसके काम का सिला नहीं है, उसके प्रधानमंत्री देवकीनंदन से संबंधों की वजह से है। एक काबिल नेता जो डिफेन्स का पोर्टफोलियो चाहती है क्योंकि वह पूर्व प्रधानमंत्री के बेटे के करीब है।

आशया हमेशा समर के साथ होती है पर उसकी भूमिका सोफे पर अदा से बैठने और जाम बनाने के अलावा कुछ भी नहीं है। कोई काम नहीं मिला है एक दमदार संवाद भी नहीं है उसका। सीरीज़ का एक डायलॉग आखिरी तक दिमाग में घूमता रहता है। एक ऊंची जात का प्रोफेसर अपनी ऊंची जात की प्रोफेसर पत्नी से कहता है, जो उसे छोड़कर एक दलित नेता को डेट कर रही होती है। “जब एक नीची जात का आदमी किसी ऊंची जाति की स्त्री को डेट करता है, तो वो उस एक स्त्री से हजारों सालों के जूल्मों-सितम का बदला ले रहा होता है”।

यह देखकर मन और झन्ना जाता है कि कहानी के अंत में ऊंची जाति की प्रोफेसर पत्नी इससे कन्विंस भी होती दिखती है। पूरी सीरिज़ में महिलाओं को जिस तरह पोट्रे किया गया है उसको देखकर यही लगता है कि निर्देशक-लेखक महोदय को यह सलाह दे दी जाए कि जनाब औरतें एमबिशस होती है। एम्बिशस होना कोई गुनाह नहीं है लेकिन एमबिशस औरतें बिछ नहीं जातीं। ना ही अपने प्रिय लोगों के मौत का सौदा करती हैं। क्या छवि बनाई है महत्वकांक्षी औरतों की? अफसोस है आपकी सोच पर पर।

क्या कहानी है अली अब्बास के “तांडव” की?

अली अब्बास ज़फर के पॉलिटिकल ड्रामा में कहानी तिग्मांशू धूलिया से शुरू होती है, जो बड़े नेता हैं और उनकी पार्टी तीसरी बार सत्ता पर काबिज़ होने वाली है। नतीजे आने से पहले ही उसके महत्वकांक्षी बेटे सैफ अली खान के सा़जिश के कारण उसकी मौत हो जाती है।

सैफ अली खान पीएम बनने जा रहे हैं लेकिन गेम पलट जाती है। बाज़ी डिंपल कंपाड़िया के हाथों में चली जाती है। इसके बाद राजनीति का खेल शुरू होता है जिसमें शिक्षण संस्थानों की छात्र राजनीति भी दिखती है। सीरिज़ की कहानी जहां खत्म होती है वह अधूरी लगती है जो अगले सीज़न की सम्भावना को खत्म कर देती है।

क्यों देखा जाए तांडव?

अभिनय की बात करें तो डिजिटल डेब्यू करने वाली डिंपल कपाड़िया का अभिनय प्रभावित करता है। सैफ ने भी अपने पात्र को अच्छी तरह से जिया है। ज़रूरत के हिसाब से वह अपने अभिनय को नॉर्मल और लाउड करते हैं। जीशान अयूब, कृतिका, कुमुद शर्मा और गौहर खान अधिक प्रभावित नहीं कर पाते हैं। सुनील ग्रोवर में अभिनय क्षमता है। उनके लिए गुत्थी, रिंकू भाभी, मशहूर गुलाटी और तमाम नकली किरदार जो उन्होंने किया है जो मिल के पत्थर की तरह है इसलिए उससे आगे निकलना काफी कठिन है मगर वह प्रभावित ज़रूर करते हैं।

पूरी सीरीज़ का सबसे घटिया प्रयोग छात्र राजनीति के दृश्यों में बैकग्राउंड में मणिरत्नम की युवा फिल्म का गाना बजना है। यह और कुछ नहीं सीरिज़ के म्यूज़िक टीम की गरीबी दिखाता है। उसके बाद 2016 के भारत और दिल्ली के राजनीतिक प्रयास को जिंदा करके ठूंसना मसलन जेएनयू को वीएनयू, वसंत कुंज को महंत कुंज और नजीब के अपहरण को प्रतीकात्मक रूप से दिखाना, कोई प्रभाव नहीं छोड़ता है।

छात्र राजनीति में नई पार्टी का नाम तांडव रखना एक चुटकुला से ज़्यादा कुछ नहीं लगता है। सबसे अधिक चुभता है, “अब टेररिस्ट बॉर्डर पार से न आ रहे, ये यूनिवर्सिटी में तैयार हो रहे”। पुलिस का यह संवाद साबित कर देता है कि तांडव सीरिज को राजनीति का उथला खेल समझकर देख लें मगर ज़्यादा गहराई की उम्मीद कतई न करें।

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