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पितृसत्ता ही नहीं संसाधनों की कमी भी तोड़ रही है आधी आबादी के सपने

महिला किसान

महिला किसान

ज़िन्दगी में हर किसी इंसान का कोई ना कोई सपना ज़रूर होता है। कोई ज़िन्दगी में प्रसिद्धि के सपने देखता है, तो कोई अपने सम्मान के सपने देखता है। कुछ लोग ऐसे भी है जिनके सपने पूरे नहीं हुए लेकिन वे अपने बच्चों के सपनों में ही अपने सपने देखते हैं।

अपने सपनों को पूरा करने के लिए बहुत सारे व्यक्ति एक शहर से दूसरे शहर की तरफ रुख भी करते हैं। सपने देखना और अपने सपनों के लिए प्रयास करना तो सभी का हक हैं लेकिन जब बात हक की आती है, तो एक बहुत बड़ा हिस्सा हमारे समाज का ऐसा भी है, जिनके सपनों के बारे में अकसर बात नहीं होती है।

इस हिस्से की ज़िंदगी के हर एक अहम फैसले की डोर पितृसत्तात्मक सोच के हाथ में है। उनकी ज़िंदगी में कब, क्या और कितनी मात्रा में होगा इसका निर्णय यह सोच (पितृसत्तात्मक) ही करती है।

फोटो साभार- Getty Images

पितृसत्ता की गहरी जड़ें

हमारे समाज का वह हिस्सा है हमारे समाज की बेटियां। हमारे समाज की बेटियों का भविष्य इस बात पर निर्भर करता है कि परिवारों में पितृसत्ता की जड़े कितनी गहरी है। बचपन से ही लड़कियों को इस बात का एहसास दिलाया जाता है कि उनकी ज़िदंगी का हर निर्णय लेने का अधिकार उनके पास नही हैं।

बात सिर्फ यहीं तक ही सीमित नहीं है बल्कि परम्पराओं और समाज का हवाला देकर ये स्थापित करने की कोशिश लगातार की जाती है कि निर्णय ना लेना ही लड़कियों के लिए हितकारी है। विश्व स्तर पर, 10 में से 9 लड़कियां अपनी प्राथमिक शिक्षा पूरी करती हैं लेकिन 4 में से केवल 3 अपनी निम्न माध्यमिक शिक्षा पूरी कर पाती हैं।

स्कूल जाती हुई लड़कियां, फोटो साभार- Getty Images

कम आय वाले देशों में, एक तिहाई से कम लड़कियां अपनी प्राथमिक शिक्षा पूरी करती हैं और केवल 3 में से 1 निम्न माध्यमिक विद्यालय पूरा करती हैं। 2017 का राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग की रिपोर्ट (NCPCR) भी इसी तरह की चिंता व्यक्त करता है कि 15-18 आयु वर्ग में लगभग 39.4 प्रतिशत किशोरियां किसी भी शैक्षणिक संस्थान में नहीं जा रही हैं ।

अगर ग्रामीण क्षेत्रों की बात करें तो लड़कियों में प्राथमिक शिक्षा से वरिष्ठ स्कूली शिक्षा तक, साफ तौर पर ड्रॉप आउट देखा जा सकता है। जैसै-जैसे स्कूली शिक्षा से आगे की पढ़ाई की बात आती है तो ड्रॉप आउट की खाई ओर गहरी होती चली जाती है। जब हम शहरों में या कॉलेज में लड़कियों को आते देखते हैं, तो यह गलतफहमी होती है कि सारी लड़कियां उच्च शिक्षा के लिए आगे बढ़ रही हैं।

जबकि वास्तविकता में यह अनुपात बहुत कम है। लड़कियों के सपनों के बीच बहुत सारी मुश्किलें है जो सामाजिक- सांस्कृतिक,आर्थिक एवं अन्य कारकों से बहुत गहराई से जुड़ी हुई है।

लड़कियों को बोझ समझने की मानसिकता

विज्ञान और तकनीकी के समय में आज भी हमारे समाज में जब किसी परिवार में लड़की पैदा होती है, तो यह मान्यता हैं कि उस परिवार पर तो बोझ आन पड़ा या फिर आर्थिक सकंट आ गया है। लड़कियों को एक बोझ समझने की मानसिकता ही वह कारण है जिसके चलते लड़कियों के सपनों को लेकर घरों में बात नहीं होती है।

यह मान्यता कहती है कि यह बोझ तब ही उतर सकता है जब लड़की की शादी हो जाए। लड़की के जल्दी से हाथ पीले करने के सामाजिक दबाव के कारण बहुत से माता-पिता सिर्फ लड़कियों को दसवीं या बारहवीं तक कि पढ़ाई कराते हैं और उसके बाद सिलाई -कढ़ाई सिखाकर शादी कर देतें है।

ऐसे में जब कोई परिवार सामाजिक दबाव से परे अपनी लड़कियों को आगे पढ़ाने की पहल करता है तो समाज उन्हें ताना मारना शुरू कर देता है। ऐसे परिवारों को यह एहसास दिलाने की भरपूर मात्रा में कोशिश की जाती है कि वे समाज के खिलाफ जाकर गलत कार्य कर रहे हैं। जिसका खामियाज़ा उस परिवार को ज़रूर भुगतना पड़ेगा।

फिल्म पार्च्ड का एक दृश्य, फोटो साभार-YouTube

यहां तक कि परिवार को यह डर भी दिखाया जाता है कि लड़की हाथ से निकल गई तो समाज मे इज़्ज़त खराब हो जाएगी। ऐसा इसलिए भी किया जाता है क्योंकि समाजिक तौर पर यह माना जाता है कि अगर किसी लड़की के साथ किसी प्रकार की यौन हिंसा या उत्पीड़न होता है या लड़की ने अपनी मर्ज़ी से शादी कर ली, तो परिवार की इज़्ज़त चली जाती है।

सही मायनों में समाज मे इज़्ज़त से ज़्यादा इस बात कर डर है कि अगर कोई लड़की पढ़-लिखकर अपने पैरों पर खड़ी हो गयी तो वह अपनी ज़िंदगी से जुड़े फैसलों में खुद से निर्णय लेने लगेगी। अगर वह अपने निर्णय स्वंय लेने लगी तो पितृसत्ता की जड़ें खोखली हो जाएंगी। पितृसत्ता को कायम रखने के लिए डराने की नीति का इस्तेमाल समाज बहुत पहले से करता आ रहा है।

लड़कियों को हमारे समाज मे पराया धन समझा जाता है। यह भी एक कारण है जिसकी वजह से लड़कियों की पढ़ाईलिखाई पर ज़्यादा खर्च नहीं किया जाता है। यह सामाजिक मान्यता है कि लड़कियां तो दूसरे घर का उजाला है। शादी के बाद वह अपने ससुराल चली जाएगी तो उसके सपनों और पढ़ाई लिखाई के बारे ज़्यादा सोचने से क्या फायदा।

लड़की की सुरक्षा भी है एक कारण

एक लड़का तो बुढ़ापे का सहारा होता है, इसलिए माता-पिता उसकी पढाई-लिखाई और सपनों के प्रति सचेत रहते हैं। सामाजिक रूप से यह अवधारणा कि अगर लड़की अपने पैरों पर खड़ी हो भी गई तो वह अपने ससुराल पक्ष को ही आर्थिक लाभ पहुंचाएगी। दूसरा लड़की की कमाई पर जीवन यापन करना सामाजिक रूप से माता-पिता के लिए एक बहुत बड़े पाप जैसा है। इसलिए परिवार और समाज कभी भी एक लड़की को बुढ़ापे का सहारा नहीं मानते।

लड़कियों को इसलिए स्कूल जाने से परिवार द्वारा रोक दिया जाता है क्योंकि घर से स्कूल की दूरी ज़्यादा है। ऐसे में स्कूल से लेकर घर के रास्ते तक सुरक्षा का सवाल हर माता-पिता के मन मे ज़रूर आता है। जब गाँव मे माता-पिता से लड़कियां आगे की पढ़ाई के बारे में सवाल करती हैं तो परिवार और गाँव के व्यक्ति माहौल खराब होने की दुहाई देते हैं।

फोटो साभार- Flickr

वे यह बात स्वीकार तो करते हैं कि लड़कियों और महिलाओं के लिए अब माहौल बहुत खराब है किन्तु इस माहौल को बदलकर एक बहतर समाज बन जाए इसकी पहल कोई नहीं करता। ऐसे माहौल पर चर्चा नहीं की जाती, जहां हमारे गाँव और कस्बे की लड़कियां अपने सपनों को बिना किसी डर के पूरा कर सके। जैसे,

समाजिक तौर पर यह माना जाता है कि घरेलू कार्य और बच्चों की देखभाल करना सिर्फ महिलाओं और लड़कियों की ही ज़िम्मेदारी है। जिसके चलते ज़्यादातर लड़कियों पर घरेलू कार्य या अपने छोटे भाई-बहनों की रेख-देख का भार आ जाता है। इस वजह से शुरू-शुरू में लड़कियों की  स्कूल से अनुपस्थित बढ़ती जाती हैं और बाद में स्कूल ही छुड़वा दिया जाता है।

ऐसे में लड़कियों के सपनों की जो बड़ी सी आशा है वह घर की चार दीवारों में सिमट कर रह जाती है और जिन किताबों को हथियार बनाकर वे पितृसत्तात्मक सोच पर हमला कर सकती थीं। वे घर के किसी कोने में धूल चाट रही होती हैं।

महिलाओं की रैली, फोटो साभार- Getty Images

संसाधनों या ज़रूरी सुविधाओं की कमी

अभी तक हमनें सिर्फ उन कारकों पर चर्चा की है जो सामाजिक परम्पराओं के इर्द-गिर्द घूमती हैं लेकिन कुछ कारण इनसे परे हैं। वे कारण हैं संसाधनों या ज़रूरी सुविधाओं तक पहुंच की कमी का होना। इनमें से स्कूलों या कॉलेज का दूर होने का ज़िक्र हम ऊपर कर चुके हैं। इनके अलावा भी कुछ अन्य कारण हैं, जो सामाजिक तौर से तो नहीं आते लेकिन समाज के गैर-ज़िम्मेदार होने की वजह से ज़रूर आते हैं।

आज भी अधिकतर सरकारी स्कूलों में लड़कियों के लिए उपयुक्त टॉयलेट की सुविधाएं नही हैं, जिसके कारण उन्हें अनेक प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। शिक्षा के केंद्र में आज भी हम लड़कियों के लिए स्कूलों में सैनिट्री पैड व अन्य सुविधाओं को देने से कतराते हैं यहां तक की उसपर खुल कर बात भी नहीं कर पाते।

पीरियड के दिनों में सुविधाओं के अभाव में लड़कियों को स्कूल से छुट्टी करनी पड़ती है और इसके साथ -साथ कुछ लड़कियों को तो स्कूल ही छोड़ना पड़ जाता है। एक स्कूल के स्तर पर स्कूल मैनेजमेंट कमेटी (SMC) एक ऐसी कड़ी है कि अगर उन्हें जागरूक किया जाए तो बहुत सारी समस्याओं का समाधान किया जा सकता है।

फोटो साभार- सच्चिदानंद सोरेन

एक बेहतर और स्थाई भविष्य को ध्यान में रखते हुए अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने 2015 में संयुक्त राष्ट्र के माध्यम में 17 सतत विकास लक्ष्यों को निर्धारित किया। जिसमें सतत विकास लक्ष्य 4 जो की गुणवत्ता शिक्षा पर ज़ोर देता है और सतत विकास लक्ष्य 5 लैंगिक समानता पर ज़ोर देता है।

इन 17 सतत विकास लक्ष्यों को 2030 तक प्राप्त करने का भी लक्ष्य बनाया गया है। ऐसे में इन लक्ष्यों को 2030 तक प्राप्त करने के लिए हमारी कोशिशों को और तेज़ करने की ज़रूरत है। हमें समाज के हर किसी पक्ष तक इस चर्चा को लेकर जाने की ज़रूरत है, जो जाने अनजाने में लड़कियों के सपनों को प्रभावित कर रहे हैं।

लड़कियों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और लैगिंक समानता तक पहुंचाने के लिए, चाय की टपरी से लेकर संसद तक हर जगह सख्त प्रयास करने की ज़रूरत है। तभी हमारे गाँवों और शहरों में रहने वाली हर लड़की छोटी सी आशा नही ,बल्कि बड़ी सी आशा रख पाएगी।

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