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बात इतिहास के पन्नों में दर्ज़ कुछ महिला आंदोलनों की

पोलैंड पूर्वी यूरोप का एक प्रमुख देश है। जब सोवियत यूनियन का अस्तित्व था, तब पोलैंड भी एक ‘समाजवादी’ देश था पर वर्ष 1989 में पूंजीवादी पुनर्स्थापना के पश्चात यहां की राज्य सत्ता ने समाजवाद का मुखौटा उखाड फेंका।

वास्तव में पोलैंड में भी, सोवियत रूस और अन्य समाजवादी देशों के साथ ही 1953 के बाद के दशकों में जब ख्रुश्चेव गिरोह सत्ता में आया तब पूंजीवाद पुनर्स्थापित होने लगा था और अंततः पूंजीवादी सत्ता स्थापित हो गयी। सिर्फ वक्त की ही बात थी जब औपचारिक रूप से घोषणा होनी बाकी बची थी।

भ्रूण हत्या पर रोक और इसके समर्थन में आंदोलन

अभी यहां के सत्ताधारी सरकार ने भ्रूण हत्या या गर्भपात पर कानूनन रोक लगा दी है, खास परिस्थितियों को छोड़कर जैसे- बलात्कार और गर्भ से सम्बंधित कठिन मामलों में। कैथोलिक चर्च और दक्षिण पंथी दल इस कानून का समर्थन कर रहे हैं और  इस कानून  को तोड़ने वालों को 5 साल तक की सजा हो सकती है। इस आन्दोलन के विरोध में हज़ारों की संख्या में महिलाएं सडकों पर हैं और इस काले और महिला विरोधी कानून का विरोध कर रही हैं, जिसमें केवल कामकाजी महिलाएं ही नहीं हैं बल्कि घरेलू महिलाएं और छात्राएं भी शामिल हैं।

एक सर्वे के मुताबिक 50% महिलाओं ने आंदोलन में भाग लेने की बात कही है और इस कानून को खत्म करने तक लड़ने की ठानी है जब कि 15% ने इस कानून का बाहर से समर्थन किया है। कुछ ऐसा ही आंदोलन वर्ष 1975 में हुआ था। पोलैंड में पहले भी गर्भपात के कड़े कानून थे, जिसके कारण यहां की महिलाएं गर्भपात की जरुरत होने पर यूरोप के दूसरे देशों में जाती थीं, अब इसके गैरकानूनी होने के कारण यह समस्या और भी दुर्गम हो गई है। जिससे आर्थिक तथा शारीरिक समस्याएं बढ़ जाएंगी, वैसे भी पोलैंड इस समय आर्थिक संकट और कोरोना वायरस संक्रमण के दौर से गुज़र रहा है।

आज़ादी का असली मतलब जीवन को अपनी तरह जीने की स्वतंत्रता

महिलाओं की आज़ादी का वास्तविक मतलब है खुद के बारे में निर्णय लेने की स्वतंत्रता, यानी खान-पान, पहनावा, जीवन साथी चुनने, उच्चतम शिक्षा और रोजगार, गर्भ धारण करने और बरकरार या खत्म रखने की छूट होना। वैसे पुरुषों की आज़ादी भी तकरीबन इन्हीं मसलों पर आधारित है। आर्थिक आज़ादी ही बाकी आज़ादियों की आधार बनती है, पर एक पूंजीवादी “प्रजातंत्र” में मज़दूर वर्ग के लिए व्यक्तिगत आज़ादी अर्थहीन हो जाती  है, क्योंकि वह रोजगार पाने और उसे बरकरार रखने तक ही सीमित हो जाता है।

स्त्रियों के लिए लिंग भेद के कारण यह और जटिल हो जाता है जब खास कर राज्य सत्ता अति दक्षिण पंथी दलों  के हाथ में चला जाता है, धर्म और संस्कृति के ठेकेदार और उनके दलाल भी कानून बनाने और लागू करने वाले बन जाते हैं। ऐसी परिस्थिति पोलैंड के अलावा और भी कई देशों में दिखती है जैसे- सऊदी अरब, भारत आदि।

जब उनके पुरुष साथी द्वारा प्राप्त मजदूरी अति शोषण के कारण घर चलाने में अपर्याप्त साबित हो रही थीं ,उस समय स्त्रियां और भी गुलामी की जंज़ीर में फंस गयीं। घर से बाहर निकलना, पुरुषों के साथ कंधे से कंधे मिलकर आगे बढ़ना और फैशन युग में साथ ही नहीं होना बल्कि उसे आगे बढ़ने में साथ देना, आदि स्वतंत्रता का पर्याय बन गया।

जब से निजी पूंजी का जन्म हुआ तब से स्त्रियों की आज़ादी संकुचित होने लगी और निजी पूंजी के विकास के साथ, खासकर पूंजीवाद के आगमन के बाद यह पूरी तरह से ध्वस्त हो गई। वास्तव में दास प्रथा से सामंतवाद तक ही यह प्रक्रिया पूरी हो चुकी थी, हालांकि पूंजीवादी ‘प्रजातंत्र’ में कई बंधन टूटे जैसे- स्त्रियों को भी पुरुषों की भांति समान मतदान का अधिकार मिला और पूंजीवाद ने उन्हें रोजगार ढूंढने के लिए घर से बाहर निकलने को विवश किया।

खुलेपन की जंज़ीरों में जकड़ी महिलाओं की स्थिति

खुलापन और स्वच्छंदता अराजकतावाद हो सकता था या यह बहुत ही सीमित वर्गों के लिए था लेकिन पूरे महिला समाज के लिए हरगिज़ नहीं खासकर मेहनतकश महिलाओं के लिए तो यह बिलकुल नहीं था। अविकसित देशों जहां पूंजीवाद आधे-अधूरे ढंग से विकसित हुआ या पूरा लेकिन स्त्रियां आज भी समाज में दोहरे शोषण और प्रताड़ना का शिकार हो रही हैं।

पुरुषों की गुलामी (घरेलू हिंसा तक) पूंजीवादी शोषण का ही रूप है, जिसके द्वारा मुनाफा दर में इज़ाफा हो सके जैसे- समान काम के लिए कम मजदूरी देना और मजदूर वर्ग के 50% भाग जो स्त्रियों का है उसे अपंग कर देना, सर्वहारा आन्दोलन को कमजोर बना देना, रंगभेद, जातीय और धार्मिक उत्पीड़न,राष्ट्रीय दमन आदि भी पूंजीवाद के हथियार हैं। जिनका उपयोग दोहरा है जैसे- अतिरिक्त सापेक्ष आधारित मूल्य और सर्वहारा वर्ग की एकता और संघर्ष करने की क्षमता को कमज़ोर करना।

राजनैतिक सामाजिक रूप से भी स्त्रियों के अभिभावक बने कई संस्था, समूह खड़े हो जाते हैं जैसे- समाज में जाति विभाजन के कारण पिछड़े लोग, अल्प संख्यक समूह,एंटी रोमियो स्क्वाड, राज्य प्रायोजित लव जिहाद कानून भी इसी का अगला चरण है।

अब देखते हैं कुछ ऐतिहासिक महिला आंदोलन:

मार्च 1911 में न्यूयॉर्क में एक ब्लाउज बनाने की फैक्ट्री में आग लगी और 146 मजदूर जल कर मर गए, जिसमें 123 महिला मजदूर थीं। फैक्ट्री में आग लगने के बाद मजदूरों ने भागने की कोशिश की पर वे ऐसा नहीं कर सके क्योंकि दरवाजे बाहर से बंद थे और उन पर  ताले लगे हुए थे, ताकि काम करते वक्त मजदूर बाहर ना जा सके और श्रम समय में एक मिनट की भी कमी ना हो और मुनाफा दर नीचे ना आए। इस आंदोलन में लाखों मजदूरों ने भाग लिया, जिसमें स्त्रियाँ ज्यादा संख्या में थीं।

प्रशासन और सरकार को मजबूरन श्रम कानून और काम करने के तरीकों में परिवर्तन करना पड़ा, सुरक्षा उपाय लागू करने पड़े। वैसे ये कानून दिखावे के हैं दिल्ली की एक फैक्ट्री में आग लगने के कारण दर्जनों मजदूर मारे गए जो दरवाजों में  ताले लगे होने के कारण भाग नहीं सके।

दक्षिण अफ्रीका में महिलाओं का मार्च 

जब इस देश में रंग भेद कानून संवैधानिक था, पास लॉ कानून के मुताबिक अश्वेत नागरिकों को अंतर्देशीय पासपोर्ट की तरह एक कार्ड लेकर चलना पड़ता था। यह कानून सिर्फ पुरुषों के लिए था, पर जब 1950 में अश्वेत महिलाओं के लिए भी यह कानून लाया गया तो, महिलाओं द्वारा इसका भारी विरोध किया गया।

09 अगस्त, 1956 में 20,000 से अधिक महिलाओं ने वहां के प्रधानमंत्री के सामने प्रदर्शन किए और ज्ञापन दिया अंततः जिसके कारण यह पास लॉ 1986 में खत्म हो गया। इस आंदोलन की याद में हर साल दक्षिण अफ्रीका में 09 अगस्त को  राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जाता है।

1975 में आइसलैंड की स्त्रियों ने एक देशव्यापी आंदोलन किया,जो उनके हक के लिए था और पुरुषों के साथ बराबरी की मांग को लेकर था। इस आंदोलन में उन्होंने घर का काम बंद कर सड़कों पर आंदोलन किया और स्त्रियों के हक और सम्मान के लिए एक नयी दिशा दी। इस आंदोलन का नतीजा यह रहा कि 1980 में एक तलाकशुदा स्त्री वहां की राष्ट्रपति बनीं।

08 मार्च, 2018 की हड़ताल

हम जानते हैं कि इस दिन विश्व महिला दिवस मनाया जाता है। वहीं, 2018 में कई देशों की स्त्रियों ने हड़ताल की उनका नारा था ‘हमारे बिना दुनिया रुक जाती है।’ इस आंदोलन में कई मांगें प्रमुखता से थीं जैसे- समान काम के लिए समान वेतन, पुरुषों के साथ बराबरी, स्वतंत्रता, आदि।

स्त्रियों का वाशिंगटन मार्च

2017 में डोनाल्ड ट्रम्प के चुने जाने के विरोध में लाखों स्त्रियों और पुरुषों का प्रदर्शन किया क्योंकि ट्रम्प कम मत पाने के बावजूद वहां की अप्रत्यक्ष चुनाव पद्धति से अमेरिका के राष्ट्रपति बने । ट्रम्प द्वारा स्त्रियों के खिलाफ भद्दी टिप्पणियों के बावजूद भी उनका राष्ट्रपति बनना अमेरिकी जनता के गले नहीं उतर रहा था। यह प्रदर्शन स्त्रियों के बराबरी और उनकी स्वतंत्रता के लिए किया गया था। जिसमे करीब 70 लाख प्रदर्शनकारियों ने हिस्सा लिया था। (विश्व के दूसरे हिस्सों में भी स्त्रियों और पुरुषों ने भी इस आंदोलन में साथ दिया था)।

अर्जेंटीना में स्त्रियों का आन्दोलन

30 दिसंबर 2020 अर्जेंटीना के स्त्रियों के लिए उनके अनवरत, सशक्त और लम्बे आंदोलन का सफल दिन था, क्योंकि उस दिन अर्जेंटीना की राष्ट्रीय कांग्रेस ने अपनी इच्छा से गर्भावस्था रूकावट परियोजना (Voluntary Pregnancy Interruption Project) कानून को मान्यता दी। सर्वप्रथम गर्भपात करवाने की कानूनी मान्यता लैटिन अमेरिका में पहले से सिर्फ उरुग्वे और क्यूबा में ही थी।

भारत में महिला किसानों का प्रदर्शन

भारत में 3 फार्म बिलों के खिलाफ किसानों का आंदोलन डेढ़ महीनों से चल रहा है। इस आंदोलन में  महिला किसानों ने भी  भारी संख्या में इस आंदोलन में शामिल हो कर अपनी जगह बनाई है। 18 जनवरी, 2021 को भारी संख्या में उन्होंने अपना प्रदर्शन किया और इस ऐतिहासिक दिन को ‘ महिला किसान दिवस ‘के रूप में मनाने की घोषणा की साथ ही उन्होंने यह भी घोषणा की कि वे  इस आंदोलन में पूरे तरीके से भागीदार हैं और क्रांति की भी अगुआई करेंगी।

इन सब आंदोलनों में यह ध्यान देने की बात है कि सिर्फ स्त्रियों द्वारा किये गए आंदोलन स्त्री सम्बन्धी मांगों को लेकर ही थे, चाहे कितने ही बड़े क्यों ना हों लेकिन ऐसे आन्दोलनों से उनकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता और बराबरी पर असर पड़ा है। ऐसे अधिकार क्षणिक भी होते हैं जैसे- हमने पोलैंड, इराक, अफ़ग़ानिस्तान, ब्राज़ील, भारत, पाकिस्तान, आदि में देखा है।

आर्थिक और पूंजीवाद में गहराते संकट (जिसके कारण ट्रम्प, नेतान्याहू, बोल्सारो, आदि जैसे नेता भी राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री बन जाते हैं,वैसे ट्रम्प हार चुका है और बिडेन अमेरिका के नए राष्ट्रपति बन चुके हैं) के कारण अति दक्षिण पंथी पार्टी सत्ता में आ जाती हैं और उनका पहला निशाना स्त्रियों की स्वतंत्रता (अल्पसंख्यक के साथ ही) पर ही होता है।

स्त्री प्रश्न सर्वहारा संघर्ष से हज़ारों सालों से जुड़ा हुआ है, यानि एक ऐसा संघर्ष जो मानवता को पूंजीवाद से मुक्ति दिला सके, एक नयी समाज की संरचना कर सके, ऐसा समाज जो हर हाथ को 100% रोजगार दे सके, जहां शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था सबको मुफ्त मिल सके, और कोई भी इंसान बेघर ना हो।

ऐसा समाज जहां कोई भी इंसान दूसरे इंसान का शोषण ना कर सके। ऐसे ही समाज में स्त्रियां पूर्ण रूप से समाज की बराबर हकदार सदस्य होंगी, जहां उनके साथ लिंग आधारित कोई भी भेद भाव नहीं होगा और वे समाज के हर उत्पादन और सुविधाओं का उपभोग कर सकेंगी।

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