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घरेलू हिंसा के खिलाफ ज़रूरी है महिलाओं का खुद आवाज़ उठाना

हर हंसते हुए चेहरे के पीछे उसकी मुस्कुराहट हो यह ज़रूरी नहीं। एक घुटन, आंसुओं से भरा दिल भी हो सकता है, जिन्हें शायद आपकी मदद की ज़रूरत हो। हर काला निशान ज़रूरी नहीं कि मच्छर के काटने का हो या किसी से टकराने पर लगी हुई चोट का हो। हो सकता है उसे किसी ने बुरी तरह शारीरिक रूप से प्रताड़ित किया हो और उसकी उसी मुस्कान के पीछे उसका मानसिक दर्द हो।

शुरुआती पंक्तियों का संदर्भ कुछ ऐसा है कि अभी कुछ दिन पहले ही रिश्तेदारी में किसी की मौत की खबर आई। घर से बाहर हूं और दूर के रिश्तेदार हैं, तो खबर आने में थोड़ा समय लग गया। उम्र का अंदाज़ा लगाया तो पता चला उनकी उम्र कुछ 65 से 70 बरस की होगी। उम्र सुनकर मौत का कारण जानने का नहीं सोचा।

फोन रखने लगी तो माँ ने कहा पूछ तो ले मौत कैसे हुई। ऐसा सुनकर थोड़ा अजीब लगा मगर पूछा तो पता चला कि उन्होंने कुएं में कूदकर आत्महत्या कर ली थी। आत्महत्या का सुनकर जितना दुख नहीं हुआ, उतना तो उसका कारण जानकर हुआ। दिन-रात की नींद उड़ गई, कारण था-घरेलू हिंसा।

सोचकर मन दुखी हो रहा था, घबराहट हो रही थी कि कितना सहा होगा उस औरत ने, जो इस उम्र में ऐसा कदम उठाया। इतने पर भी लगा कि पति शराब पीता होगा इसलिए मार-पीट करता होगा। जैसा कि ज़्यादातर मामलों में सुनने में आता है या यूं कहें कि जैसा मैंने देखा है।

मगर इस मामले में ऐसा भी नहीं था। किसी इंसान के मानसिक दुखों को अकसर हम अनसुना कर देते हैं, क्योंकि वह हमें दिखाई नहीं देते मगर किसी इंसान की शारीरिक पीड़ा चाहकर भी अनसुनी नहीं की जा सकती है। अभी भी पितृसत्तात्मक समाज का प्रभाव इतना है कि किसी औरत पर मर्द का हाथ उठाना भी जायज़ ठहरा दिया जाता है। हैरत होती है, जब होश में भी लोगों का ऐसी हरकतें करते हुए दिल नहीं पसीजता।

शराब पीकर मार-पीट करने वालों को मैंने देखा है। एक बार सब्ज़ी मंडी में, तो एक बार अपने पड़ोस मेंसब्ज़ी मंडी वाले केस में भी मैंने अपने आपको यही समझाया था कि यह लोग गरीबी से जूझ रहे हैं, पढ़े-लिखे नहीं, हैं इसलिए इनके आसपास का माहौल ऐसा नहीं है कि कोई इनको समझाए। 

अपने पड़ोस में जब ऐसा देखा तो समझ आया कि शायद इस समाज ने ही मर्दों को औरत पर अपना हुकुम चलाने और बात ना मानने पर मार-पीट करने का हक दिया है। साथ ही औरत को भी अपने खुद पर हो रहे अन्याय सहने का हक दिया है।

दिमाग अपना आपा तो तब खो देता है, जब एक औरत ही दूसरी औरत के लिए खड़ी नहीं होती है। क्या एक माँ अपने कायर बेटे को दो तमाचे जड़कर उस दूसरी औरत के साथ होने वाली अनहोनी को रोक नहीं सकती? क्योंकि पीड़ा सहना और अपने पति की हर बात में सहमती तो नारी के चरित्र के दो गहने हैं।

स्थिति तो यह है कि घरेलू हिंसा की गिनती हिंसा में ही नहीं होती है, क्योंकि पत्नी है यानी अपनी प्रॉपर्टी है। जिसका इस्तेमाल अपनी सहूलियत के हिसाब से किया जाएगा। उसमें उसकी रज़ामंदी तो कहीं ज़रूरी ही नहीं है।

जब घरेलू हिंसा नाम का कीड़ा ही औरत को काट रहा है, तो घर के बाहर बैठे हिंसक जानवरों से औरत की सुरक्षा पर बात का कोई औचित्य ही मुझे समझ नहीं आता है।

यह सब लिखने से पहले घरेलू हिंसा से संबंधित जानकारी जुटाने का प्रयास किया तो घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 की जानकारी मिली, जो पीड़ित महिलाओं की घरेलू हिंसा से मदद करता है।

परेशान करने वाले आंकड़े, जो राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2015-16 (National family health survey) से मिले वह थे,

घरेलू हिंसा के मामलों को कम करने के लिए औरत को खुद अपनी लड़ाई लड़नी होगी। इसके साथ ही अगर आदमी उसे अपने पैर की जूती ना समझे और उसके साथ अपने साथी की तरह बर्ताव करे तो ऐसे मामलों में कमी आ सकती है।

अपने रिश्तेदार की आत्महत्या की खबर सुनकर लगा कि मुझे लिखना चाहिए। उन सभी महिलाओं के लिए, जो यह सब झेल रही हैं या झेलने के बाद अपनी जान गंवा चुकी हैं। मेरी माँ अक्सर मुझसे कहा करती हैं, “बुरे के साथ बुरा नहीं बना जाता” मगर आज इसके साथ ही मुझे यह भी याद आया, “अन्याय करने वाले से ज़्यादा अन्याय सहने वाला गुनाहगार होता है।”

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