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सोशल डिलेमा: आभासी दुनिया का कड़वा सच

फर्ज़ कीजिए आप कोई काम कर रहे हैं और आपके किए हुए हर कार्य को कोई काले शीशे के पीछे से देख रहा हो और आपको इसकी कोई जानकारी ना हो।

सूचनाओं के युग में जीते हुए आज हम स्वयं को बहुत ही खुशनसीब समझ सकते हैं कि हम इस दौर में पैदा हुए हैं। एक ऐसा दौर जहां स्मार्ट फोन पर एक क्लिक करने पर आपके लिए हर वो सुविधा उपलब्ध है, जिन्हें पाने के लिए दो दशक पहले आपको लम्बा इंतज़ार करना पड़ता था।

मोबाइल फोन के एक क्लिक पर सिमटी दुनिया

एक क्लिक पर आपके लिए बढ़िया रेस्टोरेंट का स्वादिष्ट खाना उपलब्ध है, एक क्लिक पर आप अपनी यात्रा को सुगम बनाने के लिए बस, ट्रेन, टैक्सी बुक कर सकते हैं। एक क्लिक पर आप दुनिया के एक कोने से लेकर दूसरे कोने तक किसी भी प्रकार की सूचनाओं का पल भर में आदान -प्रदान कर सकते हैं।

एक क्लिक पर आप दुनिया के किसी भी सुदूर भाग में स्थित वानस्पतिक एवं जैव विविधताओं जैसे- पहाड़, नदी, पेड़, समुद्र इत्यादि को देख एवं उनके बारे में जानकारियां प्राप्त कर सकते हैं।

एक क्लिक पर अब आप अपने जीवनसाथी की तलाश कर सकते हैं, एक -दूसरे को समझ सकते हैं। एक ही क्लिक पर आपका पसंदीदा दुनियाभर का मनोरंजन आपकी आंखों  के सामने हाजिर हो जाएगा। ज़िन्दगी वाकई आसान की है इस युग ने जिसे हम सूचनाओं का युग या इन्फॉर्मेशन ऐज कहते हैं।

लेकिन कभी आपने यह सोचा कि यह सारी जितनी भी सुविधाएं हैं, जो हमें केवल एक क्लिक करने पर उपलब्ध हो जाती हैं इसकी कीमत क्या है? पिछले साल नेटफ्लिक्स पर रिलीज़ हुई जेफ़ ओर्लोवस्की द्वारा निर्देशित डॉक्यूमेंट्री फिल्म ‘ द सोशल डिलेमा ‘ इसी कीमत के बारे में हमें बताती है, जिसके बारे में हम बात करने वाले हैं।

प्राचीनकाल से लेकर 21वीं सदी तक का सूचना के युग का सफर

सूचनाओं को जनता तक पहुंचाने के माध्यमों का इतिहास कुछ इस तरह है। प्राचीन काल में राजतंत्रीय शासन व्यवस्था में सूचनाओं को मुनादी के माध्यम से जनता तक पहुंचाया जाता था। फिर राजतंत्रीय शासन व्यवस्था के समाप्त होने के बाद देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था का उदय हुआ, जिसके फलस्वरूप देश-देशांतर से जुड़ी सूचनाओं के आदान-प्रदान के लिए दैनिक अखबार, पत्र-पत्रिकाएं एक सशक्त माध्यम बने जिन्होंने सूचनाओं के आदान-प्रदान को जनता तक पहुंचाना थोड़ा आसान और तेज़ कर दिया।

फिर इसके बाद रेडिओ का आविष्कार हुआ जिसने सूचनाओं का सम्प्रेषण आसान और तेज़ कर दिया। इसके बाद टेलीविज़न का आविष्कार हुआ वह एक ऐसा माध्यम बना जिसके आने के बाद सूचनाओं का चित्रों के रूप में घर-घर, गाँव-गांव तक पहुँचना शुरू हुआ। फिर आया इंटरनेट, सॉफ्टवेयर और स्मार्ट फ़ोन का दौर जिसने वर्तमान में दुनिया के एक-एक इंसान तक अपनी पहुँच बना ली है।

इंटरनेट ने अपनी नयी क्रांतिकारी तकनीक एवं सुविधाजनक फ़ीचर्स के माध्यम से हमारे इर्द-गिर्द एक सूचनाओं का विस्तृत जाल बुन दिया है जिसमें हम सब फँसे हुए हैं। वह भी बहुत ख़ुशी से तो आइये समझते हैं इस तकनीक के बारे में।

सोशल डिलेमा एवं आज के सोशल मीडिया का दौर

आज का दौर फेसबुक, ट्विटर, वाट्सअप, इंस्टाग्राम, गूगल और इसी तरह के सैंकड़ों एप्लीकेशन्स का दौर है। जिसे सोशल मीडिया का युग कहा जाता है। ये दुनिया की सबसे ज्यादा पैसा कमाने वाली कंपनियां भी हैं। यह सारी एप्लीकेशन्स इंटरनेट पर आसानी से बिना किसी शुल्क के उपलब्ध हैं।

कोई भी व्यक्ति जिसके पास अपना स्मार्ट फ़ोन है वह बिना किसी शुल्क के आसानी से इनका इस्तेमाल कर सकता है। अब सोचने वाली बात यह है कि अगर इंटरनेट पर यह सारी एप्लीकेशन्स फ्री में उपलब्ध हैं तो ये दुनिया की सबसे अमीर कम्पनियां कैसे बन गयीं? आखिरकार वह क्या चीज़ है जिससे यह सारी कम्पनियां पैसे कमाती हैं? आखिर इनके पास इतने पैसे आते कहाँ से हैं?

‘द सोशल डिलेमा’ डाक्यूमेंट्री  फिल्म में बहुत सारे तकनीकी विशेषज्ञों के साक्षात्कार हैं। जो इन कंपनियों में बड़े पदों पर काम कर चुके हैं। उन्हीं में से एक ट्रिस्टन हैरिस हैं जो गूगल में बतौर डिज़ाइन वैज्ञानिक काम कर चुके हैं। वह बताते हैं कि इन सोशल मीडिया प्लेटफार्मों के बिज़नेस मॉडल की मुख्य बात होती है कि यूजर को स्क्रीन से बांधे रखना या यूजर को स्क्रीन से कैसे जुड़ा रखा जाए।

यूजर फ़ोन स्क्रीन पर लगातार देखता रहे और उनकी एप्लीकेशन्स का निरंतर इस्तेमाल करता रहे। इसके लिए वो नए नए तरह के प्लेटफार्म बनाते हैं जैसे – अगर अपने फेसबुक खोला और देखना शुरू किया तो कभी न ख़त्म होने वाली जानकारी आपकी आँखों के सामने आती रहेगी।

आप यह सोचते हैं कि अब क्या नया आएगा, क्या नई जानकारी से आप रूबरू होंगे, आप क्या नया देखेंगे इसके चक्कर में आप अपने फेसबुक वॉल को अपनी उँगलियों से स्क्रॉल करते जायेंगे और ऐसा करते करते कब आपका बहुत समय ऐसे एप्लीकेशन्स पर गुजर जायेगा और आपको पता भी नहीं चलेगा।

संसार में ना जाने ऐसी कितनी ही सारी एप्लीकेशन्स मौजूद हैं जैसे – यूट्यूब, इंस्टाग्राम, इत्यादि। आपको इन सोशल मीडिया एप्लीकेशन्स को अपने फ़ोन की स्क्रीन पे देखते हुए धीरे-धीरे अपनी उँगलियों से स्क्रीन को स्लाइड करते रहने की एक आदत लग जायेगी और आपको इसका पता भी नहीं चलेगा। जिसे यह तकनीकी विशेषज्ञ मनोविज्ञान की अपनी भाषा में ” पॉजिटिव इंटरमिटेंट रिइनफोर्स्मेंट ” बोलते हैं।

निजता का हनन

एक इंसान के व्यवहार में यह आदत कैसे शामिल की जाये। इसके लिए विशेषज्ञों की एक पूरी टीम बैठ के योजना बनाती है। ऐसी योजना बनाने के लिए जरूरत होती है बहुत सारे डाटा की। ऐसे डाटा के लिए यह कंपनियां यूजर को सर्विलांस करती हैं। वह भी उनकी बिना सहमति के ऐसी कंपनियां आपके स्मार्ट फ़ोन के द्वारा आपकी हर हरकत पर नजर रखती हैं।

आप किस बात से खुश होते हैं। किस बात से दुखी होते हैं। आप किस बात से शर्माते हैं। आपने अपने स्मार्ट फ़ोन पर कौन कौन सी तस्वीरें देखीं और किस तस्वीर को आपने १ सेकंड से ज्यादा देखा, आपको कौन सा दोस्त पसंद है, किस से आपको नफरत है, आपको कैसे गाने पसंद हैं, कैसी फ़िल्में पसंद हैं, कैसा खाना पसंद है। हर वो चीज़ जो आप अपने स्मार्ट फ़ोन से करते हैं उस हर कार्रवाई का रिकॉर्ड उनके पास होता है।

अब आप सोचिये कि अगर किसी को पता हो आपको क्या पसंद – नापसंद है तो वह आपकी पसंद के हिसाब से आपके फ़ोन पर ऐसी सूचनाएं भेजता रहेगा और आप अपनी पसंद की सूचनाओं के कारण अपने स्मार्ट फ़ोन पर अधिक समय व्यतीत करना पसंद करेंगे। आपके बारे में यदि इतनी विस्तृत जानकारी किसी के पास हो तो वह धीरे-धीरे आपकी पसंद- नापसंद को भी बदल सकता है।

यहीं से इन सोशल मीडिया कंपनियों का असली खेल शुरू होता है। जिससे इन कंपनियों का अधिक मुनाफा आता है। अगर किसी कंपनी को यह पता चल जाये कि आपको क्या पसंद- नापसंद है तो उस हिसाब से आपको विज्ञापन भेजने से विज्ञापन करने वाली कंपनियों को अपना वास्तविक ग्राहक मिल जाता है।

ऐसी सोशल मीडिया कंपनियों के द्वारा आपकी निजी जानकारी को संग्रहित कर आपके व्यवहार में तब्दीली करके आपकी पसंद – नापसन्द को बदला जा सकता है। असल में यह कंपनियां हमारे फ़ोन स्क्रीन पर बिताये हुए टाइम और उससे पैदा हुए डाटा को अन्य ऐसी कंपनियों को बेच कर मुनाफा कमा रही हैं।

सोशल डिलेमा एवं उसके दुष्प्रभाव

ट्रिस्टन हैरिस बताते हैं कि सोशल मीडिया प्लेटफार्म से आज 5 चीज़ो का धंधा चल रहा है –

ऐसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स आज हमारे बीच इतनी गहराई से जड़ जमा चुके हैं कि इनकी वजह से नई नई तरह की मानसिक बीमारियां पैदा होना शुरू हो गयी हैं । उन्ही में से एक बीमारी का नाम है ” स्नैपचैट डिस्मॉर्फिया ” जिसमें अपनी तस्वीर को अधिक सुंदर बनाने के लिए सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर इस्तेमाल किये गए फिल्टर्स जैसे ही रंग प्लास्टिक सर्जरी के द्वारा अपने चेहरे पर करवाते हैं।

मेरी तस्वीर पर ज्यादा से ज्यादा लाइक आएं इसके लिए बच्चे तरह तरह के ढोंग करते हैं और कम लाइक होने से कुंठा एवं मानसिक तनाव का शिकार हो जाते हैं । जो कि एक स्वस्थ मानव का व्यवहार नहीं है।

अंत में यह डाक्यूमेंट्री फ़िल्म कुछ समाधान भी पेश करती है जैसे -अगर हो सके तो इन सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स को अपने फ़ोन से हटा दें या फिर इनका कम से कम इस्तेमाल करें। फिलहाल के लिए यह उचित समाधान हो सकते हैं।

वर्तमान में जानकारी का छोटे से लेकर सबसे बड़ा स्रोत भी आज सोशल मीडिया ही है। उससे एकदम कट के नहीं रहा जा सकता। कोई भी तकनीक कभी खराब नहीं होती, असल सवाल यह है कि तकनीक किसके हाथो में है ?उसे कैसे इस्तेमाल किया जा रहा है और इससे किसको सबसे ज्यादा फायदा है ?

आज वर्तमान युग में तकनीक जिन शासकों के हाथों में है वे सब पूंजीवाद के पुरोधा हैं जिनका धर्म है हर हालत में मुनाफा कमाना चाहे जनता की दिमाग की हालत खराब करने से मुनाफा मिले या उनकी तरह तरह की निजी जानकारियों को अन्य कंपनियों को बेचने से मिले।

यह लूट खसोट ऐसे ही चलती रहे जिसके लिए जरूरी है इस बात का पता रखना की जनता क्या सोचती है और कैसे जनता की सोच को बदला जा सकता है ? इसके लिए सबसे आसान है कि उन्हें एक ऐसा खिलौना पकड़ा दिया जाये जिससे वो खेलते रहें, उन्हें मजा आता रहे। जिससे उन पर अपनी पैनी नजर भी रखी जा सके और उनकी निजी जानकारी को भी चुराया जा सके। जो कि वह बहुत बढ़िया ढंग से यह काम कर रहे हैं।

अब सवाल यह है कि हम स्मार्ट फ़ोन नामक उस खिलौने से खेलते रहें या फिर अपने विवेक शक्ति का उपयोग कर इसका इस्तेमाल मानव जीवन की दुरूह कठिनाईयों को दूर करने, अपने देश की प्रगति में हिस्सा बनने और मानवता के भले में और समाज को सही दिशागति देने में इसका उपयोग करें।

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