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“शिक्षा, नौकरी, खुशहाली में पिछड़ा हमारा देश धर्म-जाति पर अटका है”

हम खुश हैं साहब। हमें ना सरकार से गिला-शिकवा है और ना ही हम किसी अन्य सरकार की चाहत रखते हैं। हम उस दौर के मध्यम वर्ग का ठप्पा लगाए बैठे हैं, जिसमें हम ना ऊंचा मुंह करके चल सकते हैं और ना ही किसी से मांग कर खा सकते हैं। वजह, हम ‘उत्तम’ नागरिक  जो ठहरें। हमें बार-बार परिवार पर कंट्रोल करने को कहा जाता है, जनसंख्या के नाम पर अक्सर ग्रामीण महिलाओं का मज़ाक बनाया जाता है।

यूनिसेफ की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2018 में पांच साल से कम उम्र के बच्चों की मौत के सर्वाधिक मामले भारत में दर्ज हुए हैं, तो बताइए अब जो इस दुनिया में आ गए हैं, उन्हें बचाने पर किसी का ध्यान क्यों नहीं जाता है? या फिर कह दीजिये कि जनसंख्या कंट्रोल करने के नाम पर जो बच्चे जन्म रहे हैं, उन्हें गला घोटकर मार दिया जा रहा है।

अपने देश में लोग खुश नहीं हैं

हमारी छवि अंतरराष्ट्रीय पर्दे पर इस तरह बन गई है कि भारत के लोग मन्दिर-मस्जिद, धर्म-जाति के नाम पर लड़ते हैं और यहां चुनाव मुद्दों पर नहीं धर्म पर लड़े जाते हैं। इन सबके बीच उन्हें यह नहीं दिखता कि हैप्पीनेस रिपोर्ट में हम पाकिस्तान और फिलिस्तीन जैसे देशों से भी पीछे हैं, यहां तक कि एक रिपोर्ट के अनुसार भारत नींद से वंचित लोगों में जापान के बाद दूसरे स्थान पर है।

फोटो प्रतीकात्मक है।

रोज़गार के मामले में तो हम पिछड़ ही रहे हैं

अब सोये कहां से? क्या खाक नींद आएगी उन्हें जिनके पास सैकड़ों परेशानिया हो। हमारा ध्यान इतने बुरे तरीके से भटकाया गया है कि हमारी नज़र रोज़गार से जुड़ी ‘अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी’ के ‘सेंटर ऑफ सस्टेनेबल एम्प्लॉयमेंट’ की रिपोर्ट पर भी नहीं गई। इस रिपोर्ट के अनुसार, आज़ाद भारत के इतिहास में पहली बार 6 वर्षों में 90 लाख नौकरियां घटी हैं।

हम युवा के नाम पर बस जय-जयकार करने वाले और किसी भी राजनीतिक पार्टी के झंडे के नीचे भीड़ बनकर रह गए हैं लेकिन हम यह नहीं देखते हैं कि ‘सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी’ की ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार भारत में बेरोज़गारी दर अक्टूबर महीने में तीन साल के उच्चतम स्तर पर है।

विद्यार्थियों के साथ छलावा

विद्यार्थी भी परेशान हैं, क्योंकि अध्ययन का सफर विद्यालयों और फिर कॉलेजों से ही शुरू होता है और उनका परिक्षण बोर्ड व यूनिवर्सिटी की परीक्षा के रूप में होता है। ज़रूरी नहीं कि बोर्ड का रिज़ल्ट ही भविष्य का एकमात्र आइना हो लेकिन फिर भी बस रिज़ल्ट तक ही हम बात को रखें तो पता चलता है कि री-टोटलिंग के आवेदन हद से ज़्यादा भरे जाते हैं। उनके परिणाम आने के बाद कभी-कभी तो 20 या 30 तक नम्बर बढ़ जाते हैं। मतलब कि यह सिद्ध हो चुका है कि सालभर की मेहनत का परिक्षण महज़ चार-पांच मिनट में ही परीक्षक कर देते हैं या फिर हम यूं कहें कि भविष्य मेहनत पर नहीं परीक्षकों के मूड का दारोमदार है।

हम तो राजस्थानी लोग हैं और हम खेतों के काम में ऊंट का इस्तेमाल करते हैं। ऊंट तो हमारा राज्य पशु भी है लेकिन सरकार इसका हल क्यों नहीं निकालती कि 20वीं पशु गणना में प्रदेश में ऊंटों की संख्या में 34.69 प्रतिशत की गिरावट आई है।

व्यक्तिगत गोपनीयता की भी गारंटी नहीं

खैर, छोड़िए हम इन सबको भुला देते हैं और इंटरनेट व सोशल मीडिया पर आनंद लेते हैं लेकिन फिर हाल ही में व्हाट्सऐप्प के अनुसार पता चलता है कि इज़रायली सॉफ्टवेयर ‘स्पाइवेयर पेगासस’ की ओर से करीब 20 देशों में व्हाट्सऐप्प यूज़र्स की गोपनीय व्यक्तिगत सूचनाओं की जासूसी की गई। तो फिर अब कहां जाएं? चलो फिर भी हम कह देते हैं कि हम खुश हैं लेकिन हमें ये सब क्यों नहीं दिखाते आप?

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