Site icon Youth Ki Awaaz

“हमारा एजुकेशन सिस्टम हमारे दिमाग को कैद कर देता है”

21वीं सदी इंटरनेट के लिए जानी जाएगी। फ्रीलांसिंग आज अपने पांव पसारने लगी है। फ्रीलांसिंग वैसे कोई नई बात नहीं, मानव विकास के एकदम शुरुआती चरण में हम सब फ्रीलान्सर ही थे।

ऑफिसों का भविष्य अब खतरे में हैं। आज हमें अपनी शिक्षा व्यवस्था के पुनर्गठन की आवश्यकता है। आज हम अपने युवाओं के भविष्य पर भूत थोपकर उसे जंग लगी ज़ंजीरों से जकड़ बैठे हैं।

फोटो साभार- Flicker

स्कूली व्यवस्था में फंस गया है बच्चों का भविष्य

हम उनके खुले मैदान के अनिश्चित दायरे को कम कर उन्हें एक अचार की बरनी में बंद कर देते हैं,

यह बरनी है स्कूली सिलेबस की। बेहतर शब्दों में कहूं तो स्कूली व्यवस्था की।

हम स्कूल भेजकर बच्चों को एक ऐसे सिलेबस में बांधते आ रहे हैं जिसके बारे में हम स्वयं कुछ ज़्यादा नहीं जानते। बल्कि मैंने तो हर पीढ़ी को उनके भूत की अपेक्षा वर्तमान शिक्षा-पद्धति को कोसते ही देखा है। अरे भाई, जब इतनी बुरी है यह शिक्षा, तो निश्चित तौर पर आपके दिमाग में इससे बेहतर कुछ और नया होगा? मुझे पता है यह सवाल किसी को नहीं भाता।

दरअसल, सवाल यह है कि हमें इंटरनेट युग में दूसरों के बनाए हुए अधूरे बंधे हुए सिलेबस की ज़रूरत है क्या?

हम सब बचपन से सिलेबस के मारे हैं। इतना पढ़ लो कि दूसरी कक्षा में पहुंच जाओ लेकिन साल भर में इतना ही पढ़ना है कि अगले साल दूसरी में ही पहुंचो, इससे आगे ना जा पाओ। दूसरी कक्षा का भी पूरा नहीं पढ़ना है, बस वही पढ़ना है जो परीक्षा में आएगा। परीक्षा में भी अगर आपको सिलेबस का 35% भी आता है तो आप तीसरी कक्षा के लायक हो गये हो।

बच्चों को महसूस ना हो कि उन्होंने कम पढ़ा है इसलिए अब तो नंबर की जगह ग्रेड्स दिए जाने लगे हैं। जब बीज ही ऐसे डाल दिए गये हैं तो हम पौधे से क्या उम्मीद करें।

फोटो साभार- सोशल मीडिया

बच्चों की क्षमताओं को दिन प्रतिदिन सीमित कर रहे हैं

अखबारों में पढ़ा होगा की 8वीं क्लास के बच्चे ने आईआईटी निकाल लिया, सचिन 16 साल की उम्र में इंटरनेशनल खेल लिया। आज कल 10-11 साल के बच्चे प्रोग्रामिंग करना सीख जाते हैं। तो फिर हम क्यों बच्चों की क्षमताओं को दिन प्रतिदिन सीमित करते जा रहे हैं। उनका बोद्धिक स्तर आगे ले जाने के बजाये कम से कम में निपटा रहे हैं।

वैसे क्या ये हमें पहले से पता नहीं है? तो फिर क्यों आखिर अपने बच्चों की पढाई को ऐसे स्कूल सिस्टम के कुएं में धकेल रहे हैं। शायद आपको अपनी संतान से अपने भविष्य से, अपने सहारे से लगाव नहीं।

वैसे संतान मोह से तो हम सभी परिचित हैं। हर पिता अपनी अच्छी-बुरी बातों का निचोड़ अपने लल्ला,मुन्ना के लिए छोड़ जाता है। हर एक पीढ़ी अपनी पिछली सारी पीढ़ियों का अवशेष मात्र होती है। यह अवशेष लगभग उसी रूप में रहेगा। इस संभावना के ज़रिये हम अमरता का सपना देखते हैं।

क्या हमारे पूर्वजों ने हमें उचित शिक्षा नहीं दी?

ज़्यादातर लोग अपने बच्चों को सिखाते हैं कि दुनिया बुरी होती जा रही है, जैसा कि सभी धर्मों में कहा गया है। अगर हम वाकई ऐसा मानते हैं तो इसका मतलब है कि हमारे उस अच्छी दुनिया के पूर्वजों ने हमें उचित शिक्षा नहीं दी।

उन्होंने बचपन में ही हमारी सीखने की, बेहतर होने की, तार्किक होने की ललक खत्म कर दी। उनकी गलत शिक्षा का फल ही तो आज का कलियुग है। अगर उन्हें अंदाज़ा था कि दुनिया बुरी होने वाली है तो उन्हें ज़्यादा ज़िम्मेदारी लेकर हमें इसके उपाय खोजने या इससे लड़ने की शक्ति देकर जाना था। तो शायद आज यह घोर कलियुग नहीं कहलाता। इससे लगता है कि शायद हमारी नींव में ही कहीं खुराफात की गई है।

मैंने कई लोगों को कहते सुना है कि बचपन उनकी ज़िंदगी का सबसे खूबसूरत हिस्सा था। मैं इस बात से सहमत नहीं हूं। बचपन में हम दुनिया के लिए नए थे और दुनिया हमारे लिए। प्रयोगशाला रुपी दुनिया में हम एक खोजी ,एक आविष्कारक, एक वैज्ञानिक से कम नहीं होते। कुछ भी जाने बिना अंधेरे रास्ते पर अपने दिमाग की मद्धम रोशनी की टॉर्च लेकर निकल पड़ते हैं और इसीलिए हम हर छोटे से छोटी चीज़ को बड़े गौर से बड़ी-बड़ी आंखों से टुकुर-टुकुर देखते हैं।

नज़र बड़ी होती है दिमाग छोटा। बड़े होकर अनुभव बढ़ जाता है, दिमाग उतना ही रह जाता है , नज़र छोटी करवा दी जाती है। अगर हमारी पढ़ाई बचपन की तरह ही जारी रहे तो शरीर भले ही साथ ना दे पर दिल तो बच्चे का ही रहेगा। वैसे 12वीं तक की पढ़ाई ऐसी नहीं होती जो एक आम आदमी को नहीं आनी चाहिए।

माता-पता और बच्चे के बचपन के विज्ञान मे 30 साल का अंतर आ चुका होता है। उसे सीखने का, जानने का रवैया कायम रखें तो बचपन शायद ही कभी खत्म हो। फिर ज़िंदगी का हर हिस्सा बचपन की ही तरह खूबसूरत होगा।

शिक्षकों का गिरती गुणवत्ता

वैसे आज कल स्कूलों में सुधार के नाम पर यह हुआ है कि माता-पिता स्कूल में बच्चे का एडमिशन कराने से पहले की सारी ज़िम्मेदारी निभाते हैं। प्रिंसिपल से मिलते हैं, स्कूलों में एसी है या नहीं, सीसीटीवी है या नहीं, गेम्स की व्यवस्था है या नहीं, फर्श पर चिकने पत्थर हैं या नहीं, विदेशी टॉयलेट है या नहीं, ज़्यादा हुआ तो टीचर की डिग्रियां देख ली।

स्कूल में बच्चे, फोटो साभार – getty images

क्या अच्छी शिक्षा के लिए ये पैमाने होने चाहिए? हम सब जानते हैं कि जनसंख्या की अत्यधिक बढ़ोतरी और मार्केट कल्चर के कारण शिक्षा अब धंधा बन चुकी है और शिक्षक होना समाज में गैर-पढ़े लिखों का काम हो गया है।

इनमें से ज़्यादातर टीचर वे हैं जिनका किसी सरकारी नौकरी में सलेक्शन नहीं हुआ, जिनकी डॉक्टरी की दुकान नहीं चली और जो इंजीनियर भी नहीं बन पाये और वे स्कूलों में पढ़ाने लगे। कॉलेज के लड़के-लड़कियां जेब खर्च के लिए भी पार्ट टाइम पढ़ाने का काम किया करते हैं।

हम सब कुछ जानते हुए भी सिर्फ मेहनत से बचने के लिए, ज़िम्मेदारी से बचने के लिए अंजान बनकर अपने बच्चों को इनके हवाले कर देते हैं। मैं देखता हूं कि किस तरह माता-पिता बच्चों की उत्सुकता और शैतानियों से परेशान होकर उन्हें छोटे से बाथ रिंग में कुछ खिलोनों के साथ पटक देते हैं।

उसी तरह हम उन्हें स्कूल नामक बाड़े में डाल देते हैं ताकि अपने काम पर ध्यान दे सकें। काम, मुझे हंसी आती है बड़ों की इन नादानियों पर। आपका सबसे ज़रूरी काम है बेहतर कल का निर्माण लेकिन आपका निर्माण तो रिंग में बंद है और आप भविष्य के निर्माण के लिए सामग्री जुटाने में लगे हैं।

हमारे पहले शिक्षक हमारे अभिभावक

बचपन में हमें ज़िदगी बताने वाले, सिखाने वाले होते हैं माता-पिता। हमारे अभिभावक  ही हमारे पहले शिक्षक होते हैं। जब छोटे बच्चे को पहली बार स्कूल भेजा जाता है तो वह किस तरह बिलखता है। पर हमें वह चीखना-बिलखना नहीं दिखता, हमें दिखता है समाज का वह घिसा-पिटा पैटर्न जो कहता है,

केवल साढ़े तीन साल की उम्र में बच्चे को नर्सरी कक्षा में होना चाहिए।

कुछ दिनों में बच्चा रोना बंद कर देता है, बच्चा हमसे दूर हो रहा होता है और हम खुश हो रहे होते हैं कि बच्चा समझदार हो रहा है। बच्चे का मन स्कूल में लगने लगा है। अरे जब माँ-बाप कुछ नहीं सिखाएंगे तो जो भी उसे सिखाएगा , मन तो उसी से लगेगा।

स्कूल जाते हुए रोता हुआ बच्चा, फोटो साभार – getty images

ज्ञान के प्रति बच्चों का आकर्षण बहुत जायज़ है, इसलिए हम सभी का पहला प्रेम हमारे माता-पिता होते हैं या फिर यूं कहूं कि पहला प्रेम पहला शिक्षक होता है। यह प्रेम हमें शिक्षकों से नहीं बल्कि उनके ज्ञान से होता है। इसलिए हम सभी फिलोस्फर होते हैं।

बचपन में जब ज़िम्मेदारी विद्यालयों पर छोड़ दी जाती है और फिर बच्चों को अपने पहले प्रेम, पहले ज्ञानी, अपने माता-पिता में कमियां नज़र आने लगती हैं, तो उनको लगता है कि मेरे टीचर तो मम्मी पापा से होशियार हैं उनको तो दुनिया के बारे में बहुत कुछ नया-नया पता है।

अब मुझे बताइए कि उन अनपढ़े-अधपढ़े शिक्षकों की संगत में बच्चों का क्या हश्र होगा और इस संगत का ज़िम्मेदार है कौन?

Exit mobile version