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बिहार में टीबी मरीज़ों के पास दो वक्त की रोटी के पैसे नहीं, पौष्टिक आहार तो दूर की बात है

बिहार राज्य ने टीबी को 2025 तक हराने का प्रण लिया है। लेकिन टीबी को हराने के लिए सही जांच और इलाज के साथ पर्याप्त पोषण भी चाहिए। मगर नेशनल फेमिली हेल्थ सर्वे (NFHS) 4 के मुताबिक बिहार भारत का सबसे गरीब राज्य है और यहां भुखमरी और कुपोषण भारी मात्रा में मौजूद है।

गरीबी, भुखमरी और कुपोषण का टीबी से क्या लेना देना?

गरीबी इंसान को ऐसे माहौल में रहने के लिए मजबूर कर देती है जहां भीड़ ज़्यादा हो, साफ सफाई कम हो, और भुखमरी से कुपोषण हो। ऐसे में टीबी जैसे संक्रमण के होने के आसार बढ़ जाते हैं। ये इसलिए क्योंकि टीबी का बैक्टीरिया (जीवाणु) ऐसे वातावरण में ही पनपता है, और ये एक मौकापरस्त संक्रमण है। जो कुपोषण से हुई शारीरक कमज़ोरी का फायदा उठा कर शरीर में बस जाता है।

दूसरी बात ये कि टीबी का बैक्टीरिया मरीज़ की मांसपेशियों को खा जाता है। इस कारण मरीज़ का वज़न घट जाता है। मरीज़ को इस वजह से बहुत कमज़ोरी भी महसूस होती है। एक कमज़ोर मरीज़ के लिए बीमारी और इलाज के दुष्प्रभावों से लड़ना और भी मुश्किल हो जाता है। इसलिए ये ज़रूरी है कि मरीज़ को प्रोटीन से भरपूर आहार मिले जो मांसपेशियों को मज़बूत बनाये और वजन बढ़ाये। ऐसे आहार में पनीर, दूध, दही, मछली अंडे, राजमा, सत्तू जैसी चीज़ों का शामिल होना ज़रूरी है। जिनमें प्रोटीन ज़्यादा होता है।

बिहार में दो वक्त की रोटी भी मिलनी मुश्किल, पौष्टिक आहार तो दूर

वहीं बिहार में कई टीबी मरीज़ों के पास दो वक्त की रोटी तक के पैसे नहीं होते। प्रोटीन से भरपूर आहार मिलना तो दूर की बात है। सरकारी राशन में भी वह प्रोटीन से भरी खाने की चीज़ें नहीं मिलती जो एक टीबी मरीज़ के लिए ज़रूरी है। नतीजा ये कि ये मरीज़ कुपोषित होते हैं। भारत सरकार टीबी मरीज़ों की पौष्टिक ज़रूरतें  पूरा करने के लिए उन्हें निक्षय पोषण योजना द्वारा आर्थिक सहायता प्रदान करती है। इस योजना के अनुसार  भारत के हर राज्य में दाखिल मरीज़ों को हर महीने 500 रूपए दिए जाने चाहिए।

लेकिन यहां बिहार राज्य के संदर्भ में दो प्रकार की समस्याएं खड़ी होती हैं। पहली ये कि इस योजना के तहत धन राशि अक्सर देरी से वितरित की जाती है। बिहार में कुछ मरीज़ों का ये भी अनुभव रहा की उन्हें न तो सरकारी डॉक्टर इस योजना की जानकारी देता हैं और न ही प्राइवेट डॉक्टर। दूसरी समस्या ये है कि 500 रूपए प्रति महीने की धन राशि में तो एक स्वस्थ इंसान की आम पोषण की ज़रूरतें भी पूरी न हों। फिर एक टीबी मरीज़, जिसे एक खास डाइट की ज़रुरत है, इतने कम पैसों में कैसे काम चलेगा?

मरीजों की पौष्टिक ज़रूरतों को कैसे पूरा करें?

राष्ट्रीय स्तर पर ये ज़रूरी है कि राष्ट्रीय सरकार समय पर निक्षय पोषण योजना की धन राशि वितरित करे। राज्य स्तर पर ज़रूरी है कि बिहार में डॉक्टर अपने मरीज़ों को इस योजना के बारे में पूरी जानकारी दें। बिहार की सरकार को भी इस योजना के बारे में जागरूकता अभियान द्वारा जानकारी बढ़ानी चाहिए। लेकिन जैसे की हमने कहा, निक्षय पोषण योजना से भी टीबी मरीज़ को पर्याप्त सहारा नहीं मिलता।

ज़रुरत है कि बिहार सरकार इन मरीज़ों के लिए राज्य स्तर पर एक पोषण योजना चलाये, जैसे छत्तीसगढ़ जैसा राज्य कर रहा है। छत्तीसगढ़ में टीबी मरीज़ों को “फ़ूड बास्केट” के रूप में पोषण सम्बंधित सहारा दिया जाता है। इसके अंतर्गत मरीज़ को आठ महीनो तक राज्य सरकार द्वारा संतुलित आहार प्रदान किया जाता है। बिहार सरकार भी इससे सीख ले कर अपनी पोषण योजना स्थापित कर सकती है।

याद रखें, बिहार की लड़ाई सिर्फ़ टीबी से ही नहीं है, गरीबी और कुपोषण से भी है, जिनकी टीबी से गहरी सांठ-गांठ है। अगर बिहार में टीबी को हराना है तो टीबी मरीज़ को उसकी पोषण की ज़रूरतों के लिए या तो पर्याप्त आर्थिक सहारा, या तो पर्याप्त संतुलित पोषण प्रदान करना ज़रूरी है।


नोट: सौरभ राणे एक डीआर टीबी सर्वाइवर और पब्लिक हेल्थ प्रोफेशनल हैं तथा फिज़ियोथेरेपिस्ट हैं। आशना अशेष एक डीआर टीबी सर्वाइवर, पब्लिक हेल्थ प्रोफेशनल और वकील हैं। दोनों ही सर्वाइवर्स अगेंस्ट टीबी के साथ पेशेंट अधिवक्ता के तौर पर जुड़े हुए हैं।

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