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कम नहीं हुई हैं आज भी स्त्री शिक्षा की दुश्वारियां

अभी हाल ही में सावित्रीबाई फुले का जन्मदिवस था। पूरा देश उस रोज़ स्त्री शिक्षा की ज्योति जलाये रखने वाली भारत की पहली महिला शिक्षिका सावित्रीबाई और उनकी सहयोगी फातिमा शेख को याद कर रहा था। सावित्रीबाई ने स्त्री-शिक्षा हेतु जो अलख जलाया वह फातिमा शेख के नाम के बिना अधूरा है।

दोनों महिलाऒं ने अपने-अपने समाज से बहीष्कृत होकर भी स्त्री शिक्षा के अपने उद्देश्य को पूरा करने में कोई कसर नहीं रहने दिया। दोनों ही लड़कियों को शिक्षित करने की आवश्यकता के बारे में घर-घर जाकर अभिभावकों को समझातीं और प्रेरित करतीं।

सावित्रीबाई और फातिमा शेख के कोशिशों का नतीजा

सावित्रीबाई और फातिमा शेख के कोशिशों का ही नतीजा है कि आज निजी और सार्वजनिक दोनों ही जगहों पर हमें शिक्षित और आत्मनिर्भर महिलाएं नज़र आती हैं।

उस दौर में जब दोनों समाज में स्त्री-शिक्षा के लिए जद्दोजहद्द कर रही थीं तब समाज में चौधराहट रखने वाले लोग सावित्री बाई और फातिमा शेख के सामने तमाम मुश्किलें पैदा करते थे। जिसमें गोबर-कीचड़ फेंकने से लेकर समाज बहीष्कृत जैसे कदम शामिल थे। बहरहाल उन दोनों के संघर्ष को सलाम और उनको नमन।

आज एक सवाल अपने आप से पूछना चाहिए सावित्रीवाई और फातिमा शेख ने स्त्री शिक्षा का जो अलख जगाया था वह पूरे आत्मविश्वास के साथ अपना प्रकाश समाज में फैला रहा है?

यह दो वज़हों से ज़रूरी है पहला इसलिए कि निजी और सार्वजनिक पब्लिक दायरे में शिक्षित और आत्मविश्वास से भरी लड़कियां तमाम दुश्वारियों के बाद भी डटी हुई हैं। दूसरा, महामारी के दौर में स्त्री-शिक्षा के क्षेत्र में नई चुनौतियां शामिल हो चुकी हैं। मसलन आर्थिक चुनौतियों के कारण कितने ही परिवार के लिए लड़कियों की शिक्षा जारी रखना कठिन है।

सावित्रीबाई और फातिमा शेख के दौर में अभिभावकों के पास अपनी लड़कियों को शिक्षित करने की जो चुनौतियां थी उसमें आर्थिक चुनौतियां और सामाजिक मान्यताएं सबसे प्रमुख थीं।

वक्त के साथ सामाजिक मान्यताओं में थोड़ा-बहुत बदलाव हुआ

इससे देश-कस्बों के स्कूलों में लड़कियों की सख्यां में इज़ाफा भी हुआ है इससे कोई इंकार नहीं कर सकता है। भारत में स्त्री-शिक्षा के आंकड़ों को देखें तो यह लगता है कि स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में देश को कई सावित्रीवाई और फातिमा शेख की ज़रूरत आज भी है। जो देश के नीति-निर्माताओं और लड़कियों के अभिभावकों को यह समझा सकें कि लड़कियों को शिक्षित करना परिवार-समाज-देश के लिए कितना ज़रूरी है।

सैकड़ों या लाखों लड़कियों को केवल स्कूल तक लाना ही एक चुनौती नहीं है। उनकी शिक्षा पूरा करना और अपनी शिक्षा का जीवन के बेहतरी में इस्तेमाल करने के गुण भी सिखाने होंगे। तभी हम स्त्री-शिक्षा के क्षेत्र में “बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ” जैसे नारों को सार्थक मंज़िल तक पहुंचा सकेंगे।

देश के अधिकांश अभिभावकों के पास लड़कियों को शिक्षित करने के लिए आर्थिक चुनौति आज भी एक बहुत बड़ा सवाल है। जिसके साथ एक उम्र में लड़कियों के शरीर में बदलाव भी लड़कियों की शिक्षा को पूरा करवाने में एक बहुत बड़ी चुनौति है। इन सवालों से आज मुंह नहीं मोड़ा जा सकता है।

कई राज्य सरकारों की लड़कियों को स्कूल की दहलीज़ तक लाने के लिए कितनी ही योजनाएं लागू की गई हैं। जैसे साइकिल योजना, मुफ्त पोशाक-किताब-कांपी योजना, मिड-डे मिल, छात्रवृत्ति योजनाएं आदि। जिसका फायदा लड़कियों की शिक्षा के क्षेत्र में मिला भी है परंतु लड़कियों के स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याएं और उससे जुड़ी धारणाएं लड़कियों का स्कूल में ड्रांप-आउट प्रतिशत कम नहीं होने दे रही हैं।

शिक्षा के क्षेत्र में नीति बनाने वाले नीति-निर्माताओं-शिक्षाविद्दों सबों के लिए यह बहुत बड़ी चुनौति है कि वह लड़कियों के शिक्षा में ड्रॉप-आउट प्रतिशत पहले से कम करें या कम से कम संतुलित करें। इस समस्या से राहत अभी मिली नहीं थी कि कोविड-19 की महामारी ने अब तक मिली सफलता पर कमोबेश पानी फेर ही दिया है।

कोरोना के वैश्विक महामारी के दौर में आंकड़े क्या कहते हैं? 

देश में छह से दस वर्ष की उम्रं के 1.8 प्रतिशत बच्चे स्कूली शिक्षा से दूर थे। एनजीओ प्रथम ने शिक्षा पर जारी सालाना रिपोर्ट में दावा किया गया है कि 2020 में यह आंकड़ा तीन गुना बढ़कर 5.3प्रतिशत हो गया। कोरोना महामारी ने न केवल परिवारों को आर्थिक रूप से कमज़ोर किया। बल्कि उनके बच्चों को भी स्कूल से दूर कर दिया है। जो परिवार स्मार्ट फोन या कंप्यूटर-लैपटॉप नहीं खरीद सकते थे, उन्होंने पढ़ाई जारी रखने का विकल्प न मिलने से बच्चों को स्कूल से बाहर कर लिया। इन आकड़ों में लड़कियों का अनुपात बढ़ सकता है क्योंकि परिवार में किसी भी आर्थिक चुनौतियों का भुगतान सबसे पहले लड़कियों को ही करना पड़ता है।

इसके साथ-साथ मौजूदा दौर में कमोबेश हर राज्य में प्राकृतिक आपदा से आर्थिक तबाही का खमियाज़ा लड़कियों को ही भुगतना पड़ता है। प्राकृतिक आपदाओं और कोविड-19 में भी आजीविका के नुकसान के कारण भी गरीब युवाओं के कम उम्र में विवाह के बंधन में धकेल देने की आशंका है। इस तरह के कदम सरकार को उठाने होंगे जिससे आपदा में बाल विवाह की मजबूरी न हो।

नीतिगत स्तर पर लड़कियां स्वयं को शिक्षित और जागरूक करने के लिए स्कूल की दहलीज़ तक पहुंचें और अपनी शिक्षा पूरी कर सकें। इसके लिए दीर्घकालीन नीतियां बनानी होंगी। केवल आर्थिक चुनौतियों का समाधान देकर या स्कूल तक पहुंचने के लिए साइकिल-पोशाक-किताबें और वज़िफा देकर ही स्त्री-शिक्षा के क्षेत्र में बड़ा बदलाव देखने को नहीं मिलेगा।

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