Site icon Youth Ki Awaaz

पुरुष के स्त्रीत्व की कहानी है ड्रीम गर्ल

कुछ रोज़ पहले अपने छोटे से शहर की रामलीला को सालों बाद देखा। आज भी बचपन में पापा के कंधों पर बैठकर देखी जाने वाली रामलीला और रावण दहन की यादें कुछ वैसी ही खिल उठती हैं। खैर, इन सालों की थोड़ी बहुत पढ़ाई-लिखाई के बाद एक चीज़ ज़ाहिर हो जाती है कि आज भी कैकेयी, सीता और सारे स्त्री किरदार पुरुष निभाते हैं, खासकर छोटे शहरों में। और ये किरदार बेहद गरिमा के साथ निभाए जाते हैं, अगर स्तर अच्छा हो तो। कुछ ऐसा ही ‘ड्रीम गर्ल’ के हमारे आयुष्मान खुराना का किरदार भी है।

मैंने आखिरी फिल्म ‘आर्टिकल 15’ देखी थी और ‘ड्रीम गर्ल’ ताज़ी देखी हुई फिल्म है। यह आदमी गज़ब का अभिनय कर डालता है। जहां एक ओर यह आपको ‘आर्टिकल 15’ के आर्यन जैसा अधिकारी बनने के लिए प्रेरित करता है, तो वहीं दूसरी ओर ‘ड्रीम गर्ल’ में आपको हंसा-हंसाकर पेट में दर्द करवाता है और अपने अभिनय और भावभंगिमा से आपको बांधे रखता है।

फिल्म ड्रीम गर्ल के एक दृश्य में आयुष्मान खुराना।

कहते हैं हर व्यक्ति के भीतर औरत, आदमी दोनों की ऊर्जा और अंश होता है। अर्धनारीश्वर के इस देश में अकसर हम भूल जाते हैं कि पुरुष  भी इंसान है। मर्द रोते नहीं, भावुक नहीं होते के ढर्रे पर चलते-चलते हम भूल जाते हैं कि यही दबी हुई भावनाएं क्रूर गुस्से, तहस-नहस करने वाली मानसिकता के शिकार पुरुषों को तैयार करती है। पुरुष हिंसा और शक्ति प्रदर्शन के आदी हो जाते हैं। अकेलेपन और भावों की शून्यता या अतिरेक अंततः समाज के लिए घातक होता है।

तो ड्रीम गर्ल मुझे आयुष्मान के बेहतरीन अभिनय और सैकड़ों एक्सप्रेशन्स के ज़रिए स्त्री और पुरुष के भीतर के साम्य की ओर आकृष्ट करती फिल्म लगती है। पर्दे पर अभी-अभी करोड़ों बटोरकर गई ‘कबीर सिंह’ के उग्र किरदार और रोमांस के नाम पर पौरुष का प्रदर्शन भी हमने देखा है, वहीं ‘ड्रीम गर्ल’ में पुरुष के भीतर के इस स्त्री स्वरूप से अब हम अवगत हुए हैं।

फिल्म ड्रीम गर्ल के एक दृश्य में आयुष्मान खुराना।

दिल का टेलीफोन’ गाने में आयुष्मान कहर ढाते हैं। मनजोत सिंह आयुष्मान के किरदार ‘करम’ के बचपन के दोस्त के रूप में  मज़ेदार काम कर जाते हैं। हो सकता है कई लोगों को कहानी खोखली लगी हो पर मुझे कहानी में कसाव और प्रवाह दोनों ही बढ़िया लगे। हो सकता है संवाद लेखक व निर्देशक के चटकते हास्य तक ही आप सीमित रह गए हों।

मुझे इस फिल्म ने ‘किस्सा’ की याद भी दिलाई, जहां एक लड़की को पुत्र प्रेम के चलते अपने पिता द्वारा लड़के की ज़िंदगी जीनी पड़ती है। यहां तक कि एक लड़की से शादी तक करनी पड़ती है। यहां औरत और मर्द होने के बीच की जेण्डर आइडेंटिटी के मध्य का जो घर्षण आप देखते हैं, वह आपको चीर कर रख देता है। जब समाज और व्यक्ति की खुद के भीतर महसूस की जाने वाली पहचान के बीच उसे लड़ना होता है। वह अगर आदमी है तो आदमी की फलां फलां प्रवृत्तियां होंगी, वह घर के लिए आजीविका कमायेगा, वह बाहर घूमेगा, वह अपने पौरुष का प्रदर्शन करेगा अपनी पत्नी पर हाथ उठाकर। पर क्या कभी हमने सोचा कि कहीं हमारा समाज ही दोषी तो नहीं है? हमने ही तो तय किया है कि आदमी और औरत को अलग-अलग सांचे में ढाला जाए।

फिल्म ड्रीम गर्ल के एक दृश्य में आयुष्मान खुराना।

हमने ही तो ये सीमाएं रची हैं कि लड़के हो तो लड़कियों वाले हावभाव क्यों दिखाओ, या ड्रीम गर्ल में करम के पापाजी कहते हैं कि तुम्हारी अम्मा ने कित्ते ब्रत उपवास करके तुमको पाया था और तुम सीता राधा बने जाते हो।

खैर, फिल्म अंततः एक रोचक हालांकि सतही रूप में संदेश देती है कि औरत हो या आदमी अकेलापन आज हर किसी को सता रहा है। हर कोई ‘पूजा’ की तलाश में है।

क्या हम अपने भीतर छुपे स्त्री रूप को, संवेदनाओं, करुणा, सहज निश्चलता को अपना सकते हैं? चाहे हम पुरुष हो, आधुनिक महिला हो या खुद को गे, होमोसैक्सुअल, लेस्बियन, ट्रांसजेंडर (LGBTQ+) की तरह पहचानते हो, क्या हम ड्रीम गर्ल से मनोरंजन के साथ यह संदेश साथ ले जा सकते हैं?

भले ही फिल्म बनाने वालों का यह उद्देश्य ना हो। अगर हम सीता के भेष में ‘करम’ (जो असल में एक पुरुष है) को पूजते हैं तो हम पुरुष के भीतर छुपी भावनाओं को भी साझा करने की आज़ादी उन्हें दे सकते हैं, ताकि यह बाद में समाज के लिए घातक ना साबित हो और स्त्री पुरुष के रिश्तों की असमान शर्तें धूमिल हो सकें।

Exit mobile version