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भारत के गाँवों को मज़दूर नहीं ‘श्रमिक’ चाहिए

Climate Refugees

प्रवासी मज़दूर

हमारे देश के गाँवों में मज़दूर नहीं श्रमिक होते थे लेकिन तमाम विषयों के हुनरमंद रहे अंग्रेजों ने देशभक्तों को मज़दूर बनाया। यह शब्द 250 साल पहले प्रचलन में आया। वैसे देश के गाँवों की श्रम शक्ति ने देश के शहरों के निर्माण में अपना जीवन लगा दिया। देश की आज़ादी के 70 साल बाद भी हमारे समाज का क्या हाल हैं ?

कोई भी ऐसी समस्या नहीं है जिसका हल मन से खोजें और ना मिले। आज़ादी के बाद देश के सभी दलों को सरकार बनाने का मौका मिला लेकिन सरकारें वोट-वोट खेलती रहीं। उन सब ने आखिर क्या किया? समाज को इसका जवाब देना चाहिए। हमारे गाँव अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए योग्यता के अनुसार स्वरोजगार देते थे। 40-50 साल पहले तक गाँव से लोग शहर से‌ लेकर महानगरों तक बहुत कम जाते थे।

ज़्यादातर लोग केवल सेना में सेवा देते थे या फिर सरकारी नौकरी में गाँव के हर घर का मुखिया अपने परिवार के सदस्यों को उसकी योग्यता के अनुसार उसे काम देता था। घर के मुखिया के पास धर्म सत्ता के साथ समाज की सत्ता भी होती थी।

गाँवों की परंपरागत जीवनशैली और जीवन मूल्य

हर परिवार में पशुपालन, कृषि, वृक्षारोपण, जल, ज़मीन, जन-जीविका के साधन उपलब्ध कराया जाता था। रोटी, कपड़ा और मकान देना घर के मुखिया की ज़िम्मेदारी थी। अगर घर का मुखिया व्यवस्था नहीं कर पाता था तो गाँव में पंच होते थे। यह पंच मिलकर पंचायत करते थे और उचित निर्णय लेते थे।

गाँव की सुरक्षा जल संसाधन, आवागमन के साधन, स्वरोजगार से लेकर एकता, विभिन्न सामाजिक आयोजन, विवाह और वैद्य की व्यवस्था यह सब सामूहिक रूप से तय होता था। गाँव की मर्यादा गाँव के प्रत्येक व्यक्ति की मर्यादा समान होती थी और यह सबकी ज़िम्मेदारी भी थी कि वह इसे बनाए रखें।

हर परिवार में एक शिक्षित, एक पहलवान, दो से तीन किसान, एक हुनरमंद श्रमशील ज़रूर होता था। न्याय के आधार के लिए धर्म ग्रंथों के साथ ईश्वर को साक्षी माना जाता था। जिस समस्या का समाधान गाँव में नहीं होता था वह समस्या राजा के पास जाती थी। राजा परीक्षण के बाद निर्णय लेता था। देश के गाँव में पानी, किसानी, पलायन की कोई भी समस्या नहीं थी। यह बात उस समय की है जब ग्राम पंचायतों को कोई अनुदान नहीं मिलता था।

पंचायत चुनाव के बाद गाँवों का हाल

जब से पंचायत चुनाव होने लगे सरकारी अनुदान मिलने लगा गाँव के विकास की योजना हेतु निर्णय दिल्ली से आने लगा। क्यों नहीं? जो पैसा देगा निर्णय उसका होगा। गाँव में कहां नाली, तालाब, रोड और स्कूल बनना है। आवास, शौचालय, राशन कार्ड किसको देना है। क्या विकास होना है।

यह अब गाँव नहीं एक बाबू तय करता है। किसे भैंस देना है? यह उस बाबू के मानक परीक्षण के आधार पर तय होता है। जो इस परीक्षण में पास हो गया वह गरीब है, सभी सुविधाओं का पात्र है। जिसे उसने फेल कर दिया वह सरकारी सुविधाओं का पात्र नहीं होगा।

गाँवों से पलायन क्यों शुरु हुआ?

गाँव के विनाश का रास्ता 1980 के बाद से शुरू हुआ। पलायन आरम्भ हुए, गाँव की शक्तियां कम हुईं। सुविधाओं के नाम पर ढोल बजाया गया ज़मीन पर कुछ भी नहीं बचा। 1990 के बाद गांव दारीबढ़ी प्रधानों को मनमाना पैसा मिला विकास के लिए एक गाँव के अंदर-अंदर कई गाँव बने। फिर गाँव कई गुटों में बंटे। झगड़े हुए तो गांव दारी हुई, वोट का खेल कोर्ट-कचहरी तक ले गया। फिर लोगों ने कहना शुरू किया गाँव ठीक नहीं है यहां रहना अब ठीक नहीं है।

पलायन करते मज़दूर

कानून ने फिर गाँवों को तोड़ा और यहीं से गाँवों के गरीब श्रम शक्ति ने गाँवों से पलायन किया। जो कमज़ोर था बाप-दादाओं की ज़मीन मकान बेचकर परिवार को जिंदा रखने के लिऐ वह शहर में मज़दूर बन गया। ना चाहते हुए भी एक ओर गाँव से पलायन हुआ और दूसरी ओर गाँव के विकास के नाम पर अरबों रूपये पानी की तरह बहाए गए। देश की ऐसी कोई भी ग्राम पंचायत नहीं है जिसमें इन 35 वर्षों में करोड़ों रुपया खर्च न किया गया हो।

क्या हो‌ सकता था और क्या हो गया?

गाँव की सड़कें रबर की बन सकती थीं। फिर भी गाँव के तालाब सूख गए, कुआं रो रहा है, परंपरागत कुटीर उद्योग खत्म हो गए, रोज़गार की तलाश में गाँव के गाँव खाली हो गए। गाँवों के विकास के नाम पर किसने कितना खाया इसका हिसाब तो प्रकृति लेगी या फिर ईश्वर होगा तो लेगा।

राजाओं के पास थी हुनरमंद श्रम शक्ति

दिल्ली की चर्चा करना चाहता हूं जब दिल्ली बसी तो देश के हर राजा ने अपने राज्य के नाम पर एक भवन बनाया। अपने राज्य से श्रम शक्ति लेकर वह श्रम शक्ति वापस अपने राज्य लाया। हर राजा के राज्य में कुछ मुख्य विभाग थे जिनमें जल संसाधन, हुनरमंद श्रम शक्ति, सुरक्षा सेना, पशुधन, वन वित्त, भोजन भूमि आदि के द्वारा राजा अपने राज्य की जनता को रोज़गार देता था। उनकी सुरक्षा और रक्षा करता था। प्राकृतिक आपदा और अकाल आदि के समय में उसे रोज़गार देता था।

एक राजा के राज्य से दूसरे राजा के राज्य में बगैर किसी उपयुक्त कारण के जाना मना था उसकी अपनी मुद्रा थी जो उसके राज्य में ही मान्य होती थी। हर हुनरमंद के पास परंपरागत ज्ञान था। कपड़ा बुनना, मिट्टी, पीतल, तांबा, फूल के बर्तन बनाना, लकड़ी, लोहे के विभिन्न प्रकार के कृषि रक्षा से संबंधित औज़ार तैयार करना आदि। उस दौर में चित्रकारी, स्वर्णकारी, शिक्षा, व्यापार और सेना में नौकरी कोई भी कर सकता था

किसान को सबसे पहले हुनरमंद श्रमशील श्रमशक्ति वाला माना जाता था किसान का निर्णय सर्वमान्य था। हमारे देश को स्वतंत्र कराने के लिए जिन योद्धाओं, क्रांतिकारियों और देशभक्तों ने अपना योगदान दिया, अंग्रेज़ों ने उन्हें सज़ा के तौर पर मज़दूर बनाया। उन्हें पानी के जहाज़ में बैठा कर अपने अपने-अपने देश ले गए। यहीं से, ‘मज़दूर’ शब्द बना जो अच्छा शब्द नहीं है।

आज तक उनका परिवार पीढ़ी दर पीढ़ी मज़दूरी करता आ रहा है। उन लोगों ने अंग्रेज़ों के भवन बनाए, फैक्ट्री बनाई, फार्म हाउस बनाए, व्यवसाय, पुल, रेल लाइन, हवाई अड्डे, बंदरगाह, बांध और हमारे देश के परंपरागत कुटीर रोज़गार को अंग्रेज़ों ने खत्म किए।

विश्व का‌ पहला मज़दूर संघ

1871 में फ्रांस में पहला मज़दूर संघ बना, भारत में पहला मज़दूर कल्याण संघ 1910 में बना। लोकमान्य तिलक को अंग्रेज़ों से श्रम शक्ति को न्याय दिलाने के लिए 8 वर्ष तक जेल में रहना पड़ा। हमारे देश में हर राज्य के मज़दूरों की अलग-अलग मज़दूरी है। किसी राज्य में मज़दूरी प्रतिदिन ₹446 है तो किसी राज्य में ₹380 है। एक देश-एक मज़दूरी फॉर्मूला क्यों नहीं?

मज़दूरी में भी कुशल-अकुशल मज़दूर हैं। अशिक्षित बेरोज़गार या शिक्षित बेरोज़गार किसने बनाया? शिक्षित को रोज़गार देने की ज़िम्मेदारी किसकी थी? यह सोचना होगा।

रेल की पटरी पर झटके में मज़दूर दुनिया से ही रूख्सत हो गए

हाल ही में 19 मज़दूरों की मौत हुई। हाथ में रोटी लिए वे मज़दूर रेल की पटरी पर पड़े थे। वह भी तो इंसान थे। हो सकता है राजनीति के लिए मज़दूर रहे हों लेकिन अपने परिवार के लिए तो वही सब कुछ थे। अपने बच्चों के लिए आसमान थे। किसी के पिता थे, किसी के पति थे, किसी के बेटे थे, किसी के भाई थे। देश के निर्माण में उनके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता।

ऐसी घटनाएं हमें रोकनी होंगी रेल लाइन किसने बिछाई, रोड किसने बनाए, पुल किसने बनाए, बाग किसने लगाए, हमारे लिए भोजन कौन पैदा कर रहा है। महानगरों के सुंदर महलों से लेकर पांच सितारा होटल किसने बनाए। कपड़ा किसने बनाया, उन्हें ढूंढना होगा विचार करना होगा हम उनके ऋणी हैं।

केवल यह कह देने मात्र से काम नहीं चलेगा कि जनता हमारी मालिक है जो असली मज़दूर हैं, मालिकों को उनके प्रति वफादार बनना होगा। 35 साल पहले गाँव से सरकारी नौकरी करने के लिए मात्र युवा बाहर जाते थे। गाँवों के कुटीर उद्योग और परंपरागत रोज़गार बंद हो गए हैं। जबकि सकल घरेलू उत्पादन का दो तिहाई भाग घरेलू समुदाय उद्यमों कृषि से आता है। 90% रोज़गार गाँव देता है, खेती देती है। 1990 से 2020 तक प्रत्येक गाँव से 40% से अधिक श्रम शक्ति ने पलायन कर लिया है।

महानगरों की ओर कोई भी नौजवान अपने गांव के किसी 60 साल के व्यक्ति से परामर्श कर 35 साल पहले से वर्तमान तक हुए पलायन का आंकड़ा इकट्ठा करे तो उसे पता चल जाएगा किस दशक में कितने लोगों ने गाँवों को छोड़ दिया।

(इस पर काफी कुछ लिखने का मन था फिर कभी अपने विचार साझा करूंगा। अगर किसी को मेरे विचारों से ठेस लगे मैं क्षमा प्रार्थी हूं। यदि उचित लगे तो विचारों को साझा करें मैं विषय का विशेषज्ञ नहीं हूं गांव का आम नागरिक हूं। अपना गांव अपनी जन्मभूमि, अपना परिवार, अपना घर छोड़कर कौन जाना चाहता है। पेट का सवाल है अपनी संतान को भूखे पेट कोई नहीं देख सकता, जानवर भी नहीं। भारत की आत्मा गांवों में बसती है गांव उजाड़े गए तो भारत भारत नहीं रहेगा ऐसी घटनाएं एवं पलायन रोकना है तो सबको भोजन सबको काम मिले।)

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