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प्रेमचंद की कहानी के हल्कू और दिल्ली की चौहद्दी पर बैठे किसानों में क्या अंतर है?

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कलम के जादूगर कहे जाने वाले कथाकार प्रेमचंद ने भारतीय ग्रामीण समाज के सामाजिक जीवन के उतार-चढ़ाव पर हिंदी साहित्य में एक से एक बढ़कर कहानियां और उपन्यास लिखे हैं।

ग्रामीण समाज के जीवन खासकर किसानों को लेकर अन्य कई कथाकारों ने अपनी कहानियों और उपन्यासों में जीवन्त किया है। परंतु  ग्रामीण समाज के लोगों के जीवन के बारे में उनके जैसा जीवंत या संजीव वर्णन हिंदी के अन्य कथाकारों के रचनाओं में कम देखने को मिलता है।

पूस की रात कहानी का आज एक जीता जागता सुबूत ज़िंदा है

पूस की रात कहानी प्रेमचंद की उन बेहतरीन कहानियों में से है जिसमें उन्होंने एक गरीब किसान के सर्दी के ठंडी रात में अपनी फसल को नीलगाय से बचाने के जद्दोजहद की कहानी है। कथाकार प्रेमचंद कि कहानी पूस की रात में हल्कू एक समान्य छोटा सा किसान था। वास्तव में हल्कू के खेतों को रौदने वाली नीलगाय और पूस की रात  की  कपकपाती सर्दी एक प्रतीक है। जो हर देशकाल में एक विपत्ती के तरह हर भारतीय किसान के कंधे पर बैठी रही है।

अंग्रेजी हूकूमत के दौर में हल्कू की किसानी अगर अंग्रेजों द्वारा खेती को जान-बूझकर उपेक्षित छोड़े जाने से परेशान थी। आज़ादी के बाद हल्लू की किसानी ज़मीदारों के कर्ज के बोझ तले दबी हुई थी। ज़मीदारों से मुक्ति मिली तो नौकरशाही के एक बड़े तबके जिस पर अंग्रेजीयत हावी रही उससे परेशान रही। उससे थोड़ी निज़ात मिली तो सरकार की सरकारी बीज, यूरिया, सिंचाई के लिए बिजली बिलों, बैकों के कर्ज और अब फसलों के उचित दाम नहीं मिलने से परेशान है।

किसानों के लिए एक नहीं, अनेक समस्याएं हैं

इसके साथ-साथ नई समस्याएं भी जुड़ी हुई हैं। जैसे कुछ फसलों के अधिक उत्पादन हो जाने के कारण वेयर हाउस की कमी की समस्या, कुछ फसलों की अधिक खेती जिसमें पानी की ज़रूरत अधिक होती है। उस भू-भाग में पानी की कमी की समस्या, फसल तैयार हो जाने के कभी मीलों की समस्या तो कभी मंडियों के दलालों की समस्या और परली जलाने की समस्या। इन सभी बातों का प्रभाव यह हुआ कि देश में न जाने कितने हल्कूओं ने आत्महत्या को अपने मुक्ति का रास्ता मान लिया। कहने का मतलब हल्कू की समस्या कभी कम नहीं हुई धीरे-धीरे हिंदी साहित्य से भी प्रेमचंद का हल्कू गायब हो गया।

मौजूदा दिनों में दिल्ली की चौह्द्दी पर पिछले 23-24 दिनों से एक नहीं लाखों किसान हल्कू के तरह अपनी फसल के उचित मूल्य लिए। नीलगायों से नहीं कंपनी बहादुर के नए कृषि कानून से बचाने के लिए कुछ उसी तरह का जतन कर रहे हैं। फर्क इतना है कि दिल्ली की चौहद्दी पर हो लाखों हल्कू जमा हैं। वो प्रेमचंद के कहानियों की तरह विवश और हताश नहीं है। उनके पास देशभर के किसानों का संगठन है और अपने किसानी के अधिकार की चेतना भी है।

पूस की रात और वास्तविक किसान

प्रेमचंद की कहानी के हल्कू और दिल्ली की चौहद्दी पर बैठे किसानों में छोटा सा अंतर यह है कि उनके पास हल्कू के तरह पूस की रात काटने के लिए केवल फटा हुआ कंबल और जबरा कुत्ते का रूपक नहीं है। उन्होंने पूस की रात काटने के लिए मोटे और गर्म लिहाफ का बंदोबस्त कर लिया है। प्रेमचंद की कहानी पूस की रात में हल्कू की फसल तो जलकर राख हो गई थी मगर आज की पूस की रात में लाखों हल्कू सर्दी के कंपकपाहट में अपना हौसला पस्त नहीं होने दिया है।  मुख्यधारा मीडिया के तमाम अनदेखी के बाद भी उन्होंने खेती-किसानी को बहस का मुद्दा तो बना ही दिया है इससे इंकार नहीं किया जा सकता है।

दिल्ली की चौहद्दी पर जो किसान कमोबेश महीने भर से जमा हैं। वे सभी बड़ी खेती के किसान हैं। जिनके साथ छोटे किसान भी अपनी मांगों को नत्थी कर रहे हैं। जाहिर है भले ही उनकी खेती छोटी जोत की है मगर वे भी अपनी फसलों की उचित मूल्य पर सरकारी गारंटी चाहते हैं। अगर फसलों का उचित मूल्य की गांरटी सुनिश्चित होती है तो इसका फायदा उनको भी होगा वह यह जानते हैं।

किसानों के लिए नए बिल में इतनी खामियां क्यों रह गईं?

इस बात में भी कोई दो राय नहीं है कि सरकार भारतीय खेती में आमूलचूल बदलाव चाहती है। नया कानून अगर इस मकसद से ही है तो फिर नए कानून की रचना में कमी कहां रह गई? लगता है कि हर समस्या का हल पूंजीवाद पर टीके निजीकरण को मानने वाले आर्थशास्त्रियों व नौकरशाहों की जमात ने एसीनुमा कमरों में आंख मूंदकर कानून बना दिए हैं, जो देश के अधिकांश किसानों को स्वीकार्य नहीं है।

महत्वपूर्ण सवाल यह भी है पूरे भारत में कृषि सभ्यता-संस्कृति एक ही तरह की नहीं है। मसलन केरल में अधिकांश कृषि उपज मसालों या कैश कार्प की है तो पश्चिम बंगाल, असम और उत्तर पूर्वी इलाकों में चाय बगानों की। फिर पूरे देश के हर कृषि सभ्यता को एक ही तरह के कानून से कैसे हांका जा सकता है? यह भी एक कारण है कि सरकार उहापोह के स्थिति में है और अपने कृषि कानून के पक्ष में जो तर्क दे रही है उसमें एकरूपता का अभाव दिखता है।

सरकार के नए कृषि कानून और आज के दौर के हल्कूओं के समस्या के समाधान के लिए अब ज़रूरी यह है कि सरकार राज्यवर हर किसान नेताओं से वहां की खेती-किसानी की समस्या को सही तरीके से समझे। गौरतलब है कि गृहमंत्री अमित शाह यह स्वीकार कर चुके हैं कि कानून बनाते समय किसान नेताओं से चर्चा नहीं होने की गलती हुई है मगर अब तो चर्चा हो सकती है।

सरकार और किसानों के बीच कुछ मुद्दों पर सहमति बनी है और अन्य मुद्दों पर बातचीत के लिए अगली बैठकों में बातचीत से आगे की दशा-दिशा तय होगी। यह एक अच्छी शुरुआत है इतना तो तय है सरकार जनकल्याण के भाव से ही किसानों के  समस्या का समधान खोज सकती है, पूंजीपत्तियों के तरह हठधर्मिता के तरह नहीं।

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