This post is a part of #JaatiNahiAdhikaar, a campaign by Youth Ki Awaaz with National Campaign on Dalit Human Rights & Safai Karamchari Andolan, to demand implementation of scholarships in higher education for SC/ST students, and to end the practice of manual scavenging. Click here to find out more.
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सदियों से इस देश में दो भारत बसते हैं। जाति प्रथा ने इस देश को दो भारत में विभाजित किया है। ऊंची जातियों का भारत अलग और नीची जातियों का भारत अलग। दोनों के बीच की खाई भरने की जगह और गहरी होती जा रही है। फेसबुक पर हो, व्हाट्सएप पर हो, मेट्रो में हो या किसी सहकर्मी से बहस। नीची जाति से घृणा का कारण आरक्षण को ही ठहराया जाता है। एक ही दलील दी जाती है कि आरक्षण का आधार जाति क्यों होनी चाहिए, आर्थिक क्यों नहीं?
जब सदियों से शोषण का आधार जाति रहा है, तो उसके उद्धार का उपाय आर्थिक कैसे हो सकता है? यह उपाय भी जाति के आधार पर ही होगा।
एक भिक्षा मांगने वाला ब्राह्मण भी एक पढ़े-लिखे और समृद्ध व्यक्ति का सिर्फ एक शब्द “चमार” बोलकर अपमान करने को अपना अधिकार मानता है, क्योंकि वह भीख मांगने वाला व्यक्ति ब्राह्मण है और पढ़ा लिखा व्यक्ति व्यक्ति दलित। फिर इनके बीच की असमानता का आधार आर्थिक कैसे हुआ?
आरक्षण को आर्थिक असमानता को पाटने का हथियार मानना ही सबसे बड़ी भूल है। जातीय दंश आर्थिक से अधिक सामाजिक है।
मेरे एक सहकर्मी यह दावा करते हैं कि मैं अपने बाल्मीकि चपरासी के हाथ का पानी पी लेता हूं या उसका टिफिन सप्लाई करने वाला चमार जाति का है, इसलिए यह मान लेना चाहिए कि जाति प्रथा भारत से खत्म हो गई है, तो उनकी इस मासूमियत पर मुझे हंसी आती है। यह ऊंची जाति वालों का भारत है, जो सब देखते बूझते हुए भी अनजान बने रहना चाहता है। यह उस नीची जाति वालों के भारत की ओर देखना ही नहीं चाहते, जहां एक दलित को अपनी बारात में घोड़ी पर बैठने के लिए पुलिस का सहारा लेना पड़ता है और सारी अगडी जातियां उसके खिलाफ लामबंद हो जाती हैं।
ऐसे में न्यूज चैनल पर बोलती हुए उस महिला का चेहरा आंखों के आगे घूम जाता है, जो संविधान और कानून को धता बताकर पूरे दंभ के साथ बोल रही थी,
अब ये लोग हमारी बराबरी करेंगे? ठाकुर तो ठाकुर ही रहेगा, ब्राह्मण-ब्राह्मण रहेगा और चमार-चमार ही रहेगा। ऐसे कैसे ये घोड़ी पर बैठेगा, फिर हमारी क्या इज्ज़त रह जाएगी?
क्या वाकई हम 21वीं सदी में रह रहे हैं? क्या किसी जाति विशेष के घर जन्म लेना अभिशाप है? क्या शिक्षा में इतनी शक्ति नहीं कि वह इस जाति रूपी बुराई का अंत कर सके?
इस बुराई का अंत करने के लिए ज़रूरी नहीं है कि किसी जाति विशेष में ही जन्म लिया जाए। क्या ऊंची जातियों की शिक्षित युवा पीढ़ी खुली सोच के साथ इस बुराई के अंत के लिए अपनी ज़िम्मेदारी समझेगी? अम्बेडकर और आरक्षण से घृणा करना सरल है पर उसे समझने के लिए इस वर्ग की पीड़ा से गुज़रना बहुत कठिन है। खैर, सकारात्मकता सदैव ही सुखद होती है और आशा एक नई सुबह की परिचायक।
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