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आखिर ज़िन्दगी से क्यों हार जाते हैं लोग?

जब घटती है घटनाएं तब ख्याल आता है
आखिर ज़िन्दगी से क्यों हार जाते हैं लोग?
फिर मन में ये भी सवाल आता है
हार जाते हैं या हरा दिए जाते हैं लोग?
ये निराशा आखिर आती कहां से है
क्यों इतने हताश हो जाते हैं लोग?

बहुत आसान होता किसी को ज्ञान देना
ज़िंदगी में मुश्किल वक्त हमेशा नहीं रहता ऐसा कहना
और कहना कि हार-जीत तो लगी रहती है
संघर्ष से ही तो ऊपर उठते हैं लोग!
सच कहूं तो परिस्थितियां इस कदर मजबूर कर देती है ,
अंत में जब रास्ता नहीं दिखता तब कोई ऐसा कदम उठाते हैं लोग!

कहने को तो आत्महत्या होती है पर कुछ कारणों द्वारा मार दिए जाते हैं लोग
जीना कौन नहीं चाहता, खुश रहना कौन नहीं चाहता?
सफल होना कौन नहीं चाहता?
पर हकीकत में अपने सपने पूरे कर पाते हैं बस कुछ लोग!
कुछ अधूरे मन से समझौतों पे ही जीते जाते हैं
पर क्या तनावमुक्त खुद को रख पाते हैं लोग?

कभी भटकावों में गिरकर, कभी अतरिक्त दबाव में पड़ कर
कभी अपनी नासमझियों के कारण गलतियां कर जाते हैं लोग!
कभी बहुत मेहनत कर भी हर बार असफलता पाकर

कभी अपने ही परिजनों के कटु तानों को सुन कर
कभी समाज में अपने परिस्थिति को ले कर
खुद को बेकार समझने लग जाते हैं लोग!

ये सच है कि क्षमताएं सब में एक समान नहीं होती
न ज्ञान का स्तर एक समान होता है
अन्य से कर तुलना जब असफल व्यक्ति हताश होता है
परिवार और समाज के ख्याल से और भयभीत होता है
स्वयं में वो घुटने लगता है
और हीन भावनाओं से खुद को भरने लगता है
ये वक्त जब खुद को अकेला महसूस करते हैं लोग!

अपने सपने और इच्छाओं की ज़लती चिता देखते हैं लोग
ये अकेलापन जब पूरी तरह से हावी हो जाता है
जीवन से सरल वो मृत्यु को पाता है
बस फिर क्या स्वयं को समाप्त कर डालते हैं लोग!
आखिर क्यों विवश किया जाता है किसी को
अपनी इच्छाओं का गला घोट ढोंग का जीवन जीने को?

आखिर क्यों जबरदस्ती थोपा जाता है परिवार द्वारा अपनी इच्छाओं को?
आखिर क्यों डरा कर रखता है समाज परिवार को?
क्यों कोई नहीं समझता कि व्यक्ति से समाज है समाज से व्यक्ति नहीं?
बस इसलिए ज़िन्दगी से हार जाते हैं लोग
कारण कई निष्कर्ष एक किसी अपने से ही आहत होकर खत्म हो जाते हैं लोग!

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