निर्मल वर्मा ने अपनी एक रचना तीन एकांत में कहा है, “जब हमारा कोई करीबी इंसान मरता है, तो हमारे अन्दर का भी कुछ मर-सा जाता है।” सुशांत आज इस दुनिया में नहीं रहे। वे सबके करीबी नहीं थे लेकिन ‘एम. एस. धोनी: द अनटोल्ड स्टोरी’, ‘शुद्ध देसी रोमांस’, ‘छिछोरे’ और ‘काय पो चे’ जैसी फिल्मों में किए उनके यादगार किरदार बहुत लोगों के करीब थे।
खास तौर पर 2002 के नरसंहार पर बनी उनकी फिल्म ‘काय पो चे’ का सबसे अधिक महत्त्व है, क्योंकि जिन व्यक्तियों का इस नरसंहार से एक रिश्ता है वही आज सत्ता में बैठे हैं। उनकी सत्ता में ही उन्होंने बेरोज़गारों के सबसे ज़्यादा सुसाइड का नया रिकॉर्ड कायम कराया है।
अगर आपको सुशांत की मौत के साथ रोहित वेमुला की मौत भी याद आई हो तो मेरा पाठकों के प्रति सम्मान थोड़ा और बढ़ जाएगा। सुशांत के बारे में बताया जा रहा है कि वह डिप्रेशन में थे। उनके तमाम फैन्स उनकी मौत पर दुःख व्यक्त कर रहे हैं।
उनके दुःख का कारण यह भी है कि सुशांत मात्र 34 वर्ष के थे और एक स्टार अभिनेता थे लेकिन हमें यह देखना होगा कि हमारा दुःख एक कम उम्र के सेलिब्रिटी की मौत को लेकर है या सुसाइड की समस्या को लेकर भी है।
मायानगरी को लोग खोखला और गैर-ज़िम्मेदार बता रहे हैं, क्योंकि वे इस सवाल से बचना चाह रहे हैं कि हर साल अलग-अलग फील्ड्स में ही करीब ढाई लाख भारतीय सुसाइड कर लेते हैं।
क्या हम सुसाइड को लेकर तभी भावनाएं व्यक्त करेंगे जब किसी फिल्म, क्रिकेट, राजनीति या किसी धर्म के सेलेब के आत्महत्या की खबर सामने आए या फिर हम समाज के तौर पर इन घटनाओं से बेहतर होने की कोशिश भी करेंगे।
भारत 2020 में विश्व में सुसाइड के मामले में 21वें स्थान पर है। सुसाइड के मामले साल-दर-साल बढ़ते जा रहे हैं। 15 से 39 की साल की आयु वाले लोगों की आकस्मिक मौतों में सुसाइड सबसे आम है। अगर हम पिछले एक साल की बात करें तो युवाओं में सुसाइड का सबसे बड़ा कारण बेरोज़गारी पाया गया है, यह संख्या किसानों की आत्महत्या दर को भी पार कर चुकी है।
यह स्थिति तब है जब भारत में किसी भी ऐसे मामले का असल डेटा मिल ही नहीं पाता है। अगर विकसित और बड़ी जनसंख्या वाले देशों की बात करूं तो इस सुसाइड की इस लिस्ट में रशिया दूसरे, साउथ कोरिया चौथे, जापान 14वें और फ्रांस 17वे नंबर पर है।
ज़्यादातर मामलों में हम पाकिस्तान से तुलना करके खुद को महान साबित करते रहते हैं। वह तो इस मामले में 169वे नंबर पर है। अगर जनसंख्या और संस्कृति की बात है, तो भारत-पाकिस्तान तो एक जैसे हैं। फिर पाकिस्तान में सुसाइड के मामले इतने कम कैसे हैं? वहां रहने वाले लोगों को तो आम तौर पर ज़्यादा कंज़र्वेटिव भी माना जाता है।
इस मामले में आप इंडोनेशिया, युऐई, इराक, सऊदी अरब को भी देख लीजिए। अगर हमारे देश को विश्वगुरु बनना है तो हमें सुसाइड के मामले कम करने होंगे और इन सभी देशों को बहुत पीछे छोड़ना होगा।
हैप्पीनेस इंडेक्स में भी भारत पीछे जा रहा है। इस मामले में आज हम विश्व में 144वें स्थान पर हैं। 2013 में हम 111वें नंबर पर थे, तब पाकिस्तान 81वें नंबर पर था। बांग्लादेश भी भारत से कहीं आगे है।
मैं बार-बार 2013-2014 से भारत के विकास को देखता हूं। कारण समझिए, स्थिति इसके पहले भी कुछ बेहतर नहीं थी लेकिन तब कम-से-कम हम ज़्यादातर सामजिक मूल्यों में बेहतर कर रहे थे। लगभग हर अच्छे मामले में हमारी रैंकिंग बेहतर हो रही थी लेकिन अब इसका उल्टा है। हम मात्र 5 ट्रिलियन की चिंता में लगे हुए हैं। इससे ज़्यादा ना हम कुछ देखना चाह रहे हैं और ना ही हमें देखने दिया जा रहा है।
हमारा देश एक कृषिप्रधान देश है। जब यहां किसान की जेब भरेगी, तभी देश की तरक्की होगी। जब किसानों की आत्महत्याएं हर साल बढ़ रही हों, उनकी आमदनी बढ़ने के बजाय घटने लगी हो और कोई भाषण दे कि आपके अच्छे दिन आ गये हैं, तो दरअसल वह आपको बहलाने की कोशिश रहा है।
आप अब भी समझ नहीं रहे कि चंद मेट्रो शहरों की जगमगाहट से आपका देश आत्मनिर्भर नहीं हो सकता है। किसान लोन नहीं चुका पा रहे हैं। उन पर बढ़ेगा जितना लोन, उतना ही देश पर उधार बढ़ेगा लेकिन आप किसानों के आत्महत्या की बात करने के लिए क्या पांच साल या आपके क्षेत्र के चुनाव का इंतजार करेंगे?
देश को आत्मनिर्भर बनाने का आपका इरादा नेक है लेकिन वह तभी ही हो सकता है, जब भारत के हर गाँव का हर किसान आत्मनिर्भर और आत्मविश्वास से भरपूर होगा। आज किसान मात्र बैंकों पर निर्भर हैं। वह किसान जो आपके लिए अनाज उगाता था, जिससे आप जिंदा रहें। आपको खाने की कमी ना हो जाए लेकिन किसानी के हाल इतने खराब हैं कि वह मजबूरन खुद ही आत्महत्या कर ले रहा है।
आप उस किसान को जानते भी नहीं हैं लेकिन आपकी तमाम तरह की खुराकों में से आपकी सबसे ज़रूरी खुराक वही पूरी करता है। कोई इस बारे में बात करे तो उसे राजनैतिक मुद्दा बोल कर दरकिनार कर दिया जाता है। एक सेलेब की आत्महत्या सामजिक मुद्दा है तो इतने सारे किसानों की आत्महत्या राजनैतिक मुद्दा कैसे हो गई?
एक बात आप जान लीजिए जितने भी सेलेब किसानों, मायनॉरिटी और बेरोजगारों के डिप्रेशन के मुद्दे पर नहीं बोले और मात्र सुशांत की आत्महत्या पर बोल रहे हैं। उन्हें असल मायने में इस मुद्दे से कोई सरोकार ही नहीं है। वे बस इसलिए दुखी हैं क्योंकि वे भी एक सेलेब हैं और जिस तरह के बुरे अनुभव सुशांत ने किए थे, वैसे ही उन्होंने भी किए हैं।
“अरे पागल हो क्या?” ,“ज़्यादा टेंशन मत लिया करो नहीं तो एक दिन दिमाग फट जायेगा।” क्या आपने इस तरह के आम से लगने वाले वाक्य अपने दोस्तों से बोले हैं। ज़रा एक बार दोबारा पढ़िए इन वाक्यों को, और सोचिए कहीं आपका वो दोस्त डिप्रेशन का मरीज़ हुआ, तो इन्हीं वाक्यों को वह किस तरह से लेगा।
आप समझने की कोशिश कीजिए कि हमें किस तरह भेदभाव करने के लिए तैयार किया गया है। आप शादी से पहले के अपने रिश्तों के बारे में नहीं बात कर पाते, सेक्स और पीरियड्स की बात नहीं कर पाते, हर दूसरे बच्चे, खास तौर पर लड़कियों के साथ हुए चाइल्ड अब्यूज़ के बारे में समाज में खुलकर बात तक नहीं हो पाती है।
LGBT कम्युनिटी को आज भी समाज में एक आम स्थान नहीं मिला है। गोरे-काले और जाति का भेद बरकरार है। ऊपर से आजकल धार्मिक व राजनैतिक भेदभाव भी अपने चरम पर है। आपकी वैचारिक और जुबानी आज़ादी पर दिन-ब-दिन अंकुश बढ़ता ही जा रहा है।
डिप्रेशन, अपने तनाव के बारे में बात करने को एक तरह की कमज़ोरी के तौर पर देखा जाता है ना कि एक बीमारी की तरह। इस बीमारी के बारे में बात करना एक तरह का सोशल टैबू हो गया है और यह दो तरफा है।
वह जो बीमार है वह खुद कई बार लोगों से सलाह-मशविरा नहीं करना चाहता है, क्योंकि उसे एक तरह से समाज का अंदाज़ा-सा होता है कि लोग उसे किस तरह देखेंगे और क्या समझेंगे? इस कारण वह खुद अपनी बीमारी को बढ़ाता चला जाता है।
मनोविज्ञान के डॉक्टर के पास जाने में हर तनावग्रस्त व्यक्ति को डर-सा लगता है कि कहीं मुझे वाकई डिप्रेशन जैसी बीमारी तो नहीं है। मैं पागल तो नहीं हो रहा हूं। इस वजह से बीमारी और बढ़ती जाती है और फिर अपनी बातों को दिल खोलकर ना रख पाने के कारण वो एक खुशी का चोला ओढ़ लेता है और अपने दिल की बात किसी से नहीं कहता और अपने में ही घुटता जाता है।
अगर आप उम्मीद कर रहें हैं कि डिप्रेस्ड व्यक्ति आपके पास आ कर आपसे खुलकर बातें साझा करेगा तो यह उम्मीद ही गलत है। अगर वह इतना कर पाता तो शायद वह डिप्रेस्ड होता ही नहीं। अगर कोई आकर अपनी बात साझा कर भी देता है, तो उसे हम साइकेट्रिस्ट के पास ले जाने के बजाय वही पुराने घिसे-पिटे उपाय बताने लग जाते हैं, जो हमने सुने हैं।
आजकल तनाव का बहुत बड़ा कारण तो मोटिवेशन की वो फेक किताबें हैं जो कुछ देर के लिए तो आपको फील गुड कराती हैं और आप उनमे से एक अच्छा-सा वाक्य निकालकर अपनी सोशल मीडिया पर चिपका भी देते हो, मगर इससे होता कुछ भी नहीं है। एक तरह से यह आपकी बीमारी को बढ़ाता ही है।
अगर भारत में डिप्रेशन के मामलों को देखा जाए तो इसका कारण आपको ज़्यादातर मामलों में बचपन से सिखा दी जाने वाली वो हार-जीत की दकियानूसी थ्योरी, लक्ष्य वाली थ्योरी, किसी पर आंख मूंद कर भरोसा करने वाली थ्योरी में ही मिलेगा।
आप किसी से मोहब्बत करने लगते हो यह आपको आपसे मोहब्बत करने की एक बड़ी वजह देता है। आप भूल जाते हो कि आप दोनों दो अलग-अलग ज़िंदगियां हो, फिर यह ज़िन्दगी जब एक-दूसरे से अलग होने लगती है तो आपके दिमाग में आपकी ज़िन्दगी को तबाह करने के ख्याल आने लगते हैं।
आपको सिखाया जाता है कि जीतने के लिए पागलपन ज़रूरी है। आप लक्ष्य हासिल करने के लिए बेइंतहा मेहनत करने लगते हो। कई बार यह मेहनत रंग नहीं ला पाती, जो कि सामान्य बात है लेकिन कई दफा समाज का दबाव इसे ही आप पर एक हार की तरह थोप देता है।
संस्कृति आपको बचपन से अधिकारों के बजाय कर्तव्यों की थ्योरी सिखाती है। आप सिर्फ कर्तव्य पूरे करते रहते हैं। खुद के लिए कुछ भी नहीं करते हैं। बिल्कुल बेकाम की निस्वार्थ भावना से आपको लबालब भर दिया जाता है और आप अपने अधिकारों के लिए लड़ने के बजाय कर्तव्य के दलदल में डूबते चले जाते हो।
पैसा कमाना अब ज़रूरत से ज़्यादा एक स्टेटस बन चुका है। आप रेप्युटेशन के लिए कमाते हो, अपनी ज़रूरतों के लिए नहीं या यूं कहूं कि रेप्युटेशन को ही सबसे बड़ी ज़रूरत बना दिया गया है।
पैसा कमाने के लिए पैसा चाहिए होता है और यह ऐसा चक्रवात है जिसमें जी लेना आप सीख गए तो सीख गए और नहीं सीख पाए तो इसका तूफान कर्ज़ की आंधी बन कर आता है और आपको उड़ाकर अकेलेपन और तनाव से भरे सुनसान जगह छोड़ देता है।
भारत में आज भी एक लाख की जनसंख्या पर 0.75 सायकेट्रिस्ट ही हैं जबकि होने कम-से-कम तीन चाहिए। जब तक आप आपके शहर गली, मुहल्ले, गाँव में हो रहे सुसाइड को लेकर चिंतित नहीं होंगे, आप सिर्फ़ मौतों पर दुःख व्यक्त करने के लिए तैयार रहिए। हर सेलेब यहीं हमारे बीच से ही निकलता है।
क्या आपको नहीं लगता, जब भी आप आपके घर में अगली पीढ़ी के सौदागर एक नन्हे मेहमान को लाने का ख्याल लाते हैं, तो उससे पहले आपको मनोविज्ञान की कुछ बेसिक किताबे तो स्वयं पढ़ लेनी चाहिए?
जिस प्रकार कोरोना ने हमारे समाज में सैनिटेशन की कमी, हेल्थकेयर सुविधाओं की सच्चाई को उजागर कर दिया है। उसी तरह सुशांत जैसे सफल माने जाने वाले व्यक्ति की मौत मेंटल हेल्थ को लेकर सदियों से हमारे द्वारा की जा रही लापरवाही की सच्चाई को उजागर करती है।
आज से नोटिस करना, गिनना, शुरू कर दें कि इस मौत से कोई फर्क पड़ा भी है कि नहीं। एक बात और, जब आपको फेमस व्यक्तियों की मृत्यु की दुःख से फुरसत मिले तो एक बार दिहाड़ी पर काम करने वाले, प्रवासी मज़दूरों, रिफ्यूजियों, छोटे-मोटे ज़ुर्म करने वाले कैदी आदि किस मानसिक तनाव से गुज़र रहे होते हैं, उनके बारे में भी सोचिएगा।
संदर्भ- worldpopulationreview.com, NDTV, wikipedia, The Hindu
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Azinkya Mishra
आत्महत्या के लिए समाज कितना जिम्मेदार होना चाहिए ?
सामाजिक विज्ञान के क्या मायने हैं ?
हम हमारी पीढ़ियों को रेस के घोड़े बनाने के बजाय इंसान क्यों नही बनाते ?
अगर किसी से कुछ हो जाये तो इतना कोसते क्यों हैं, बल्कि हमारी जनजातीय पेड़ों को सुखाने के लिए इस तरह के व्यवहार का उपयोग करती हैं?
मेरा मानना है कि इस लोकतंत्र में जनता ज्यादा दोसी है।
Aditya Agnihotri
समाज कभी भी आत्महत्याओं के लिए ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता. कुछ गिनी चुनी आत्महत्याओं के लिए ज़रूर समाज के कुछ विशेष लोग ज़िम्मेदार ठहराए जा सकते हैं.
समाज में कोई भी परिवर्तन बिना राजनैतिक इक्छाशक्ति के नहीं हो सकता अथवा हमें अमूलचूल परिवर्तन के लिए भी सिर्फ़ समय पर निर्भर होना पड़ता है.आज के समय में राजनीति के साथ इसमें वैज्ञानिक मानवीय दृष्टिकोण और जोड़ दिया जाए तो सामजिक परिवर्तन आसान है.
हमारे लोग सिर्फ़ वोट देने के लिए राजनैतिक हैं जिस दिन समाज के सभी लोग वैचारिक तौर पर राजनैतिक दूरदर्शी हो जायेंगे, कोई भी अच्छा परिवर्तन करना आसान हो जायेगा.
हम अभी तक लोकतंत्र बने नहीं हैं, सिर्फ़ जनता की राय लेना लोकतंत्र नहीं होता, जनता तक सही जानकारी का संचार ही लोकतंत्र का आधार है. तभी उनकी राय महत्वपूर्ण होती है अन्यथा ऐसी राय का कोई अर्थ नहीं बचता.
Karan Tolani
‘डिप्रेशन एक बीमारी है, कमज़ोरी नही।’ यह वाक्य एकदम सटीक तरीके से डिप्रेशन को लेकर जो गलतफहमी सबके मन में है उसे हाईलाइट करता है। जैसी की डायबिटीज है या अस्थमा है वैसी ही यह एक शारीरिक बीमारी है। इसे मानसिक बीमारी कहना भी एक गलत संकेत देना है। यह एक शारीरिक बीमारी है, और बाकी शारीरिक बीमारियों की तरह ही यह उपचार से ठीक हो सकती है। जैसे कि डायबिटीज में इन्सुलिन नही बनने से शुगर नही पचती वैसे ही डिप्रेशन में कुछ न्यूरो हार्मोन्स नही पैदा होने से हमेशा उदासी रहती है। इस बीमारी को लेकर नज़रिया बदलना बहुत जरूरी है।