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समाज मज़दूर को मजबूर क्यों सोचता है?

Migrant Labourers

Migrant Labourers

कोरोना काल में अचानक लॉकडाउन लगा, उसके बाद सभी कंस्ट्रक्शन कंपनी बंद, फैक्टरी बंद, ऑटो, रिक्शे, बाज़ार, दुकान आदि सब बंद। इसी बीच देश की आधी आबादी यानी मज़दूरों का परिवार सड़क पर आ गया। जिनके पास न रहने का घर न खाना न कोई मदद के लिए हाथ उस वक्त मज़दूरों ने एक होकर अपने गांव निकलना बेहतर समझा।

मज़दूर निकल तो गए लेकिन मुसीबत साथ थी

सड़क पर मज़दूर आ तो गए लेकिन अपने गृह निवास जाने के लिए उन्हें मुसीबत का सामना करना पड़ा। उस दौरान रेल से लेकर सभी यातायात व्यवस्था बंद थीं। सभी पैदल हज़ारो कि.मी. तक का सफर तय करने को मजबूर थे। इस दौरान कितने बेगुनाह भूख-प्यास से तड़प कर अपनी जान गवां बैठे।

कितने बच्चे गर्मी से लू की चपेट में आ गए। कितनी मां-बहन पैरों के छाले के कारण चल तक नहीं पाईं। कुछ के साथ तो जो पैसा जमा पूंजी थी उसे भी लुटेरों ने लूट लिया।

मजदूरों ने हार नहीं मानी

जैसे तैसे सभी मज़दूर अपने घर पहुंचे परंतु उन्हें वहां भी इम्तिहान देना पड़ा। उस परीक्षा में कहा गया कि आप शहर से आए हो आपको स्कूल में रहना होगा। 15 दिन उसके बाद गांव आना एक छुआ छूत इस तरह जैसे कोई बीमारी हों अपने ही मां बाप भाई बह^न तक घर में नहीं जाने दिए। ऐसा इस किए कि पुलिस अजाएगी अत: आप स्कूल में रह कर आओ।

यह मज़दूर तब भी मजबूर नहीं हुए। कोरोना काल में सब अपनी-अपनी जगह तो जाने लगे परंतु किसी को यह नहीं पता था कि यह हालात कब तक रहेंगे। इस कशमकश में 4 महीने गुज़र गए। इस दौरान किसी के यहां खाने की दिक्कत तो किसी के यहां दवा की परंतु यह मज़दूर हैं साहब मजबूर नहीं, यह लोग हार नहीं माने ओर गांव में कोई सड़क पर चाय तो कोई कुछ बेचने का काम करने लगे। जब लॉक डाउन खुला फिर सब जीविका की तलाश में वापस जाने लगे।

हुकूमत और राज्य सरकारों ने ऐलान किया कि कोई मकान मालिक किराया नहीं लेगा। कंपनी सभी तनख्वाह देगी परंतु ऐसा कुछ नहीं हुआ।

इन हालातों में मज़दूर परेशान होने लगे लेकिन साहब आखिर मज़दूर तो मज़दूर हैं इस लिए मेहनत से पीछे नहीं हटने वाले। वह मज़दूर ज़रुर हैं परंतु मजबूर नहीं, उन्होंने ने धीरे धीरे मकान का किराया भरना शुरू किया, काम करना शुरू किया और हालत धीरे-धीरे ठीक होने लगे। मज़दूर परेशानी में उस मुसीबत से तो थोड़ा बचे परंतु कोरोना के नाम पर न काम पर कोई रखता न कोई मदद को आगे आता।

जब मेहनत करके मज़दूर साहब को खिला सकते हैं तो अपने बच्चों और अपनों को कैसे छोड़ सकते हैं। मज़दूर पता नहीं क्यों हमेशा मज़दूर रहता है, जबकि सब कुछ करता वही है। देश में खेतों पर मज़दूरी हो या सड़क सफाई, मकान, दुकान बड़ी-बड़ी इमारतें सब तो इनके हाथों से तामीर हुई हैं। फिर पता नहीं समाज मज़दूर को मजबूर क्यों सोचता है? 

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