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“स्कूलों में अंग्रेज़ी की जगह क्षेत्रीय भाषाओं को प्राथमिकता क्यों नहीं दी जाती?”

फोटो साभार- Flickr

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21वीं सदी को विकास की सदी की संज्ञा देना ठीक है, क्योंकि इसी सदी में ही हर क्षेत्र में विकास हो रहा है, जिसमें सूचना प्रौद्योगिकी, इंटरनेट और सोशल मीडिया की अहम भूमिका है। इंटरनेट के कारण हर खबर क्षण भर में सारी दुनिया में फैल रही है और इसके कारण ही भाषा, समाज और संस्कृति में कई सार्थक परिवर्तन हुए हैं। 

हर क्षेत्र में परिवर्तन होने भी चाहिए क्योंकि क्रांति, परिवर्तन और विकास प्रकृति के शाश्वत नियम हैं। आज भारत में इंटरनेट और सोशल मीडिया का प्रयोग ज़ोरों पर हो रहा है। गाँव-गाँव में सोशल मीडिया का सार्थक उपयोग होते देखा जा रहा है। जो खबरें और समाचार अखबारों और पत्रिकाओं में कुछ घंटों बाद मिलती थीं, उन्हें सोशल मीडिया पर लोग तुरन्त देख पा रहे हैं, वह भी अधिक प्रमाणिकता के साथ। 

सोशल मीडिया ने हर आदमी को अभिव्यक्ति की सच्ची आज़ादी दी है। यह दौर है, बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे अर्थात अपनी हर बात सब तक बेझिझक पहुंचाने का। हर लेखक को सच्चाई लिखकर समाज का सही मार्गदर्शन करके विश्व कल्याण में अपनी भूमिका निभानी चाहिए।

शिक्षित बेरोज़गार युवाओं की भरमार

आज युवा और नए लेखक बहुत बेहतर कर रहे हैं लेकिन स्थापित लेखक नहीं। तथाकथितों द्वारा ऐसा माना जा रहा है कि नरेन्द्र मोदी के शासनकाल में भारत विकसित बनकर उभरा और देश में विकास की गंगा बही लेकिन हकीकत कुछ यूं है कि इस दौर में किसानों की आत्महत्याएं और बलात्कार के मामले हद से ज़्यादा सामने आए हैं।

महाराष्ट्र में सन् 2015 से 2018 के बीच तकरीबन 12 हज़ार से ज़्यादा किसानों ने आत्महत्या की। सारी दुनिया की भूख मिटाने वाले धरती पुत्र को दो वक्त की रोटी भी ठीक से नसीब नहीं हुई। 

यत्र-तत्र किसान आंदोलन हुए लेकिन तानाशाही सरकार से किसान अपना हक पाने में नाकामयाब रहे। मज़दूरों के हालात भी बहुत बुरे रहे और सूखे की मार से ग्रसित बुन्देलखंड हमेशा उपेक्षित रहा। किसानों-मज़दूरों के बच्चों को अच्छी शिक्षा नहीं मिल पाई, क्योंकि कुछ को छोड़कर ज़्यादातर सरकारी स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों की शिक्षा व्यवस्था अस्त-व्यस्त रही।

फोटो साभार- pixabay

प्राइवेट शिक्षण संस्थानों और कॉन्वेंट स्कूलों का हाल और बुरा रहा। स्टूडेंट्स को उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बावजूद रोज़गार और नौकरी के लिए दर-दर की ठोकरें खानी पड़ रही हैं। भारत में शिक्षित बेरोज़गार युवाओं की भरमार हो गई है और युवाओं को सरकार सिर्फ जुमले दे रही है। 

देश में भाषायी भेदभाव कुछ ज़्यादा ही देखने को मिले। हर ओर हिन्दी बनाम अंग्रेज़ी का बोलबाला रहा। आज हिन्दी भाषा आधुनिक भारतीय भाषाओं का नेतृत्त्व कर रही है और देश की आधी से अधिक आबादी हिन्दी का प्रयोग कर रही है। 

हिन्दी दुनिया में सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली भाषा भी बन गई है फिर भी उसकी जन्मभूमि भारत में ही हिन्दी और उसकी जननी संस्कृत की घोर उपेक्षा की जा रही है। 

आज कल सिर्फ अंग्रेज़ी का दौर है

आज दुनिया के विभिन्न देशों के स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में हिन्दी भाषा और साहित्य का अध्ययन-अध्यापन हो रहा है और हमारे भारतीय संविधान के अनुच्छेद 343 में भारतीय संघ की राजभाषा और देश की सम्पर्क भाषा, कई राज्यों की राजभाषा होने के बावजूद विदेशी भाषा अंग्रेज़ी से मात खाती हुई दिखाई दे रही है, जो हम सबके लिए सोचनीय है।

आज कल हमारे देश में अंग्रेज़ी को विकास की भाषा, आधुनिक बुद्धिजीवियों और प्रतिभाशालियों की भाषा के तौर पर देखा जा रहा है। हर जगह हिन्दी सह अंग्रेज़ी की बदौलत हिन्दी बनाम अंग्रेज़ी नज़र आ रही है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 348  में उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय में संसद व राज्य विधानमंडल में विधेयकों और अधिनियमों आदि के लिए प्रयोग की जाने वाली भाषा उपबंध होने तक अंग्रेज़ी जारी रहेगी।

जब देश की आम जनता को न्याय उसकी मातृभाषा में ही ना सुनाया जाए, तो इससे बड़ा अन्याय और क्या हो सकता है? आखिर कब हमें न्याय अपनी भाषा में मिलेगा?

गाँव-गाँव में अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूल

आज हमारे लिए सबसे बड़ी दुःख की बात यह है कि भारतीय संस्कृति पर नाज़ करने वाली, हिन्दूवादी एवं राष्ट्रवादी भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्त्व वाली योगी सरकार प्रदेश के गाँव-गाँव ने अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूल खोल रहे हैं और देश के भविष्य को अंग्रेज़ी का मानसिक गुलाम बना रहे हैं और हमारी मातृभाषा हिन्दी का अपमान कर रहे हैं।

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हमारी शिक्षा व्यवस्था चुस्त-दुरुस्त ना होने की वजह से इन गाँवों के सरकारी स्कूलों में हिन्दी माध्यम की पढ़ाई-लिखाई ठीक से नहीं हो रही है। ऊपर से सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले स्टूडेंट्स के माता-पिता, किसान या मज़दूर हैं, जिन्हें अपने काम से ही फुर्सत नहीं मिलती। यदि फुर्सत मिले तो ही यह अपने बच्चों की पढ़ाई का जायज़ा भी ले सकें।

यह किसान और मज़दूर कर ही क्या सकते हैं, जो करना है सरकार को करना है। सरकार द्वारा अंग्रेज़ी माध्यम के सरकारी स्कूल खोलकर जनमानस में बेरोज़गारी और कुशिक्षा को बढ़ावा देने की साज़िश नज़र आ रही हैं। 

क्षेत्रीय भाषाओं में स्कूल खुलने चाहिए

अंग्रेज़ी माध्यम की जगह सरकार को क्षेत्रीय भाषाओं और बोलियों वाले माध्यमों में स्कूल खोलने चाहिए ताकि स्टूडेंट्स अपनी मातृभाषा में ही शिक्षा प्राप्त कर सके और मातृभाषा का विकास कर सके। माननीय मुख्यमंत्री को हिन्दी के साथ-साथ संस्कृत भाषा को अनिवार्य करना चाहिए और अंग्रेज़ी का पूर्णतः बहिष्कार करना चाहिए तभी हमारी भारतीय संस्कृति की विजयी पताका सारी दुनिया में लहरा सकेगी और भारत देश विकसित देश बन सकेगा।

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