मैं एक स्त्री हूं। कभी दुर्गा, कभी लक्ष्मी, कभी सरस्वती, कभी गंगा मैया, ना जाने कितने रूप हैं मेरे। मैं देवी भी हूं, मुझे पूजा जाता है। मेरे लिए लोग नौ दिन उपवास भी रखते हैं। मेरे दर्शन के लिए लोग ऊंची ऊंची पहाड़ियों पर चढ़ते हैं। मैं लोगों की श्रद्धा का प्रतीक हूं।
एक ओर तो मुझे इस समाज में देवी बनाकर पूजा जाता है लेकिन दूसरी ओर मुझे डायन बता कर मेरा मुंह काला किया जाता है। मुझे लात, घूसों से मारा जाता है। यहां तक कि मुझे देवी बना कर पूजने वाले भी मेरी निर्मम हत्या करने से नहीं चूकते। ये कौन लोग हैं?
ये वही लोग हैं जो मुझे नवरात्रों में कंजिका बना कर मेरी पूजा तो करते हैं पर देवी माँ से एक बेटा देने की उम्मीद में जगह-जगह भंडारे का आयोजन करते हैं। ये लोग बेटे की चाह में लाखों रुपए खर्च करके माता का जागरण करते हैं और गर्भ में बेटी का पता चलते ही उसकी हत्या करने में अपनी शान समझते हैं। इन्हें अपने घर में धन के रूप में लक्ष्मी और विद्या के रूप में सरस्वती चाहिए लेकिन जब वही स्त्री बिना दहेज़ के उनके घर में प्रवेश करती है तो यही लोग उसे अग्नि के हवाले करने से भी पीछे नहीं हटते।
आखिर एक स्त्री होकर मेरा वजूद क्या है? क्या मैं सिर्फ एक उपभोग की वस्तु हूं? क्या मेरा समाज में कोई अस्तित्व नहीं है? क्यों मुझे समाज की मुख्य धारा से अलग रखा जाता है? मुझे मंदिर में प्रवेश करने का सिर्फ इसलिए अधिकार नहीं है क्योंकि मैं एक स्त्री हूं और मैं अपवित्र हूं। अगर मैं बच्चे को जन्म ना दे पाऊं तो मुझे बांझ कह कर यही समाज मुझे नीचा दिखाता है।
हमारे समाज में स्त्री आज भी अपने अधिकारों से वंचित है। आज भी हमारे समाज में स्त्री की वही दशा है जो पहले थी। आज भी स्त्री पर अत्याचार हो रहे हैं। दहेज़, यौन शोषण, कोख में ही लड़कियों की हत्या जैसी कुरीतियां समाज में आज भी फैली हुई हैं।
ऐसा नहीं है कि ये सारे अत्याचार केवल गरीब और अनपढ़ महिलाओं के साथ हो रहे हैं। इनका शिकार समाज की उच्च तबके की महिलाएं भी हैं, जिनकी आवाज़ उनके बड़े और आलीशान घरों में दब कर रह जाती है। क्या स्त्री के अधिकारों को कभी समाज में एक गंभीर विचारधारा के रूप में आगे लाया जाएगा? या यूं ही हम बस बेटियों के ऊपर स्लोगन बना कर ही खुश होते रहेंगे?
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