कई बार हम किसी घटना या व्यक्ति से प्रभावित होकर कोई संकल्प तो ले लेते हैं लेकिन उसको निभाना बहुत मुश्किल होता है। बहुत कम ऐसे लोग होते हैं जो अपने संकल्प को पूरा कर पाते हैं। ऐसा ही संकल्प एक बार नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित बाल अधिकार कार्यकर्ता कैलाश सत्यार्थी जी की पत्नी सुमेधा कैलाश जी ने उत्तर प्रदेश के फिरोज़ाबाद में काम कर रहे बाल मजदूरों के कष्ट को देखकर ले लिया। यह संकल्प बाल मजदूरों द्वारा उत्पादित कांच की चूड़ियों को नहीं पहनने का था, जिसको वे आज तक निभा रही हैं।
बाल अधिकार के लिए प्रयासरत सत्यार्थी दम्पति
कैलाश सत्यार्थी देश-दुनिया में बाल मजदूरी के खिलाफ संघर्ष करने के लिए जाने जाते हैं। सत्यार्थी जी ने उत्तर प्रदेश के भदोही, मिर्ज़ापुर और बनारस के कालीन उद्योग में काम करने वाले बाल मजूदरों की दुर्दशा देखी है। उन्होंने मिर्ज़ापुर में बाल मजदूरों को मुक्त कराने हेतु कई सफल अभियान चलाए। इन अभियानों के दौरान सत्यार्थी जी और उनके साथियों पर जानलेवा हमले भी हुए।
मगर इन हमलों की परवाह सत्यार्थी जी ने कभी नहीं की और अपनी पत्नी सुमेधा कैलाश के साथ वे और दोगुने उत्साह के साथ बाल मजूदरों को मुक्त कराने में लगे रहे। उन्हीं दिनों उनके किसी साथी ने बताया कि उत्तर प्रदेश के फिरोज़ाबाद में चूड़ी उद्योग में हज़ारों बाल मजदूर काम करते हैं और उन बाल मज़दूरों पर अनेक प्रकार के अत्याचार किये जाते हैं।
यह खबर सुनकर सत्यार्थी दम्पति अन्य साथियों सहित फिरोज़ाबाद पहुंच गए। वो सभी कई दिनों तक वहां काम कर रहे मज़दूरों को मुक्त कराने की योजना बनाते रहे। इस क्रम में बहुत सारे बाल मजदूरों को मुक्त भी कराया। इसी दौरान सुमेधा जी ने देखा कि नन्हें-मुन्ने बच्चे अपनी जान जोखिम में डालकर कांच की भट्टियों पर चूड़ियां बना रहे हैं। भट्टियों का तापमान 1500 डिग्री सेल्सियस के आसपास होता है।
फैक्ट्री में गंभीर हादसों का शिकार होते बच्चे
गौरतलब है कि कांच की चूड़ियां इससे कम तापमान पर नहीं बनती और अक्सर बाल मजूदरों के शरीर पर खौलता हुआ कांच गिर जाता है। यह पिघला कांच शरीर के जिस अंग पर गिरता है, उस अंग के आर-पार हो जाता है और बाल मजदूर विकलांग हो जाते हैं। सुमेधा कैलाश जी ने उस भयानक मंज़र को देखा, जब बच्चे खतरनाक परिस्थितियों में चूड़ियां बनाने का काम कर रहे थे।
धुएं के कारण बड़ी संख्या में बाल मजदूर टीबी के शिकार हो रहे थे। इलाज के अभाव में उनकी मौत हो जा रही थी। सत्यार्थी दम्पति ने अनेक ऐसे बाल मजूदरों से मुलाकात की जो काम के दौरान अपने शरीर के अंग गंवा चुके थे। यह सब देख सुमेधा जी का हृदय करुणा से भर आया और वो बहुत व्यथित हुईं।
उन्होंने सोचा कि जिन कांच की चूड़ियों को वो पहनती हैं, वो सब बाल मजूदरों ने ही बनाई होंगी। इसीलिए उन्होंने फैसला लिया कि अब वो जीवन में कभी भी कांच की चूड़ियां नहीं पहनेंगी। यह एक बड़ा व कठिन फैसला था लेकिन इस प्रण को सुमेधा जी ने पूरी निष्ठा से निभाई है। अन्य महिलाओं को भी कांच की चूड़ियां नहीं पहनने को प्रोत्साहित करती रहती हैं। आज वो अपने हाथों में कड़ा पहनती हैं।
चूड़ियां त्यागने के बाद बच्चों के अंधेरे जीवन में उजाले का भी संकल्प
इस घटना से पहले सुमेधा जी के कलेक्शन में अनेक प्रकार की चूड़ियों के सेट थे लेकिन अब रंग-बिरंगी खूबसूरत चूड़ियों से उनका कोई लगाव नहीं है। अपने बेटे भुवन तथा बेटी अस्मिता की शादियों में भी उन्होंने कांच की चूड़ियां नहीं पहनीं। मैं सोचता हूं कि सुमेधा जी ने कितना मुश्किल फैसला लिया था?
एक बार मैंने उनसे जब कांच की चूड़ियां नहीं पहनने का कारण पूछा, तो उन्होंने मुझे विस्तार से यह घटना बताई थी। वो कहती हैं कि उन्होंने चूड़ियां पहननी इसलिए छोड़ी, क्योंकि उन्हें हर पल बाल मजदूरों के कष्ट का स्मरण हो जाता है। बाल मजदूरों की पीड़ा और दर्द को सुमेधा जी ने गहरे तक महसूस किया और चूडियां त्यागने के साथ-साथ उन्होंने ऐसे बच्चों के अंधेरे जीवन में उजाले का दीपक जलाने भी संकल्प लिया।
उनका जोर ऐसे बच्चों की पढ़ाई-लिखाई पर ज़्यादा रहता है। वह मुक्त बाल मजदूरों के पुनर्वास हेतु राजस्थान के जयपुर जिले के विराट नगर में एक पुनर्वास केंद्र संचालित करती हैं। इस पुनर्वास केंद्र का नाम बाल आश्रम है। बाल आश्रम में मुक्त बाल मजदूर नि:शुल्क शिक्षा-दीक्षा लेते हैं। बाल आश्रम के आसपास बंजारों के गांव हैं। सुमेधा कैलाश बंजारों के बच्चों के लिए भी स्कूल संचालित करती हैं।
उनके ममतामयी स्नेह और प्यार की वजह से बाल श्रम के बच्चे उन्हें माता पुकारते हैं। सुमेधा जी का चूडियां न पहने का संकल्प सराहनीय तो है ही लेकिन उससे ज़्यादा सराहनीय शिक्षा के माध्यम से वंचित और हाशिए के बच्चों के जीवन में रोशनी बिखेरना है।