‘देवदास’ शरतचंद्र की सबसे मशहूर कहानियों में से एक है। मेरी बहुत पहले से इच्छा थी कि देवदास पढूं। आखिरकार मुझे इस किताब को पढ़ने का मौका मिल गया। यह कहानी है देवदास, पार्वती (पारो) और चंद्रमुखी की। बचपन के प्यार को देवदास समझ नहीं पाता है पर जब पारो उससे दूर होती है तब उसे आभास होता है कि उसने क्या खोया है।
देवदास का विश्लेषण
दरअसल देवदास हम लोगों के जैसा ही है। दो धाराओं में फंसा हुआ विचलित प्राणी, जो खुद को संभाल नहीं पाता है, जो विद्रोह कर रहा है पर किससे यह उसे खुद भी मालूम नहीं है। अक्सर लोग इश्क में पड़े किसी मजनू को देवदास की पदवी से नवाज़ देते हैं पर असल में देवदास कोई आशिक नहीं है।
देवदास एक नासमझ और बेवकूफ इंसान है, जो अपने बीते हुए कल को भुलाने के लिए अपना आने वाला कल तबाह कर देता है और सच से छुपने के लिए नशा करता है। वह किसी का सगा नहीं है, ना पारो का, ना चंद्रमुखी का, ना अपने परिवार का, ना अपने दोस्तों का और ना ही खुद का। देवदास एक कुंठा है जो इस संसार से विचलित हो चुका है।
पारो का विश्लेषण
पारो एक सशक्त लड़की है, जिसे आगे बढ़ना आता है पर पारो भी फंसी होती है। वह प्यार जो उसे बचपन में देव से हुआ था, वह ना चाहते हुए भी उसे भुला नहीं पाती है। आजकल तो वैसे प्यार व्यापार हो चुका है। असल में इश्क तो वह होता है, जहां किसी को देखभर लेने से होठों पर अकस्मात हंसी फुट पड़ती है, उसे भूलना सच में आग का घूंट पीने जैसा होता है। कच्ची उम्र का पहला इश्क तो और भी खतरनाक होता है।
पारो फिर भी जूझती है और आगे बढ़ने की कोशिश करती है। शायद हम सब पारो में खुद को देख सकते हैं। हम छलावा करते हैं कि हमने अपने बीते हुए कल को भुला दिया है पर अंदर-ही-अंदर हमें वे बातें परेशान कर रही होती हैं। ये सब पारो के साथ भी होता है।
चंद्रमुखी का विश्लेषण
चंद्रमुखी एकतरफा इश्क की उदाहरण है। चंद्रमुखी सा इश्क हम सभी ने कभी-ना-कभी तो किया ही है, भले ही समर्पण उतना नहीं होगा। शायद किसी में हिम्मत भी नहीं होगी चंद्रमुखी सा इश्क करने की। ज़लालत और कलंक झेलने के बावजूद अपने इश्क पर अडिग रहना इतना आसान नहीं होता है। भगवान करे हम सबको चंद्रमुखी सा इश्क तो मिले पर हम कभी चंद्रमुखी ना बनें।