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“हमारे गाँव के स्कूल में दलितों को शौचालय जाने की इजाज़त नहीं है”

आरक्षण पर होने वाली तमाम बहसों के बीच कई लोग कूद पड़ते हैं और कहते हैं कि आरक्षण को खत्म कर देना चाहिए वगैरह-वगैरह। उन लोगों से बस मैं यही कहना चाहूंगी कि दलित समुदाय के लोग जिन भेदभावों को झेलते हैं, आप उन्हें कुछ घंटे जी कर देखिए, फिर आपको अंदाज़ा होगा कि आप सच्चाई से कितने दूर हैं।

खैर, बात करती हूं हमारे स्कूल की। बिहार के समस्तीपुर ज़िले के अंतर्गत पड़ता है एक सब-डिविज़न टाउन, जिसका नाम है रुसेड़ा। वहीं, हमारे गाँव में है एक सरकारी विद्यालय, जहां हम पढ़ने जाया करते हैं।

यहां तक तो ठीक है मगर भेदभाव की दास्तान तब शुरू होती है जब हम दलित स्टूडेंट्स शौच के लिए जाते हैं। हमारे विद्यालय में चार शौचालय हैं, जिनमें से दो शौचालयों में हमेशा ताले लगे रहते हैं। पहले वाले में इसलिए क्योंकि उसका इस्तेमाल सभी शिक्षक और प्रधानाध्यापक करते हैं और दूसरे वाले में इसलिए ताकि दलित स्टूडेंट्स उनमें ना जाएं। बाकि बचे दो शौचालय खुले होते हैं, जिसकी निगरानी करते हैं हमारे प्रधानाध्यापक साहब।

उनकी नज़रे टिकी रहती हैं उन दो शौचालयों पर। जैसे ही कोई दलित स्टूडेंट उस तरफ जाता है कि उस स्टूडेंट को जातिसूचक गालियां देते हुए पुकारा जाता है, ज़लील किया जाता है और हिदायत दी जाती है कि वह आगे से स्कूल के बाहर सड़क किनारे जाकर शौच करे या तो घर से करके आए।

एक रोज़ लंच टाइम से पहले मुझे वॉशरुम जाना था। मैं जैसे ही उस ओर बढ़ी कि प्रधानाध्यापक ने चिल्लाते हुए कहा, “बाबूजी बनवा दिए हैं क्या शौचालय? कल से घर से ही हग-मूतकर आना।” प्रधानाध्यापक का यह शब्द सुनकर मुझे कोई अफसोस नहीं हुआ, क्योंकि मुझे अंदाज़ा था कि ऐसी चीज़ होने वाली है।

हमारे गाँव में भी दलितों को लेकर काफी बंदिशें हैं। इस वजह से स्कूल की शिकायत हम गाँव में भी नहीं कर सकते हैं। यही वो वजह है कि सदियों से हमारे विद्यालय में होने वाले इस भेदभाव के खिलाफ कोई आवाज़ नहीं उठाता। यदि हम आवाज़ उठाएंगे भी तो हमें स्कूल से निकाल दिया जाएगा।

इतना ही नहीं, हम दलितों को एग्ज़ाम में भी टॉप करने से रोका जाता है। दलित समुदाय के स्टूडेंट्स का नंबर एग्ज़ाम में हमेशा सामान्य वर्ग के स्टूडेंट्स से कम होता है। जबकि ट्यूशन में दलित समुदाय के बच्चे आगे रहते हैं। ऐसे में हम दलित समुदाय के स्टूडेंट्स के लिए बड़े सपने देखना वाकई में बेहद मुश्किल हो गया है।

जब गाँव के एक साधारण से विद्यालय में दलितों को लेकर इस तरह की मानसिकता है, तो अंदाज़ा लगाइए कि उच्च शिक्षा में दलित तबके से स्टूडेंट्स को किन भेदभावों का सामना करना पड़ता है। हमारे लिए कोन खड़ा होगा? स्टूडेंट यूनियन? प्रशासन? सरकार? या फिर विपक्ष? कोई भी नहीं!

हम दलितों के लिए भविष्य एक अंधेरे के समान है। आज हालात तो ऐसे हो गए हैं कि बाबा साहब का नाम लो कि सत्ताधारियों को लगने लगता है, हम देशद्रोही हैं। यहां तक कि हमारे गाँव के ही कुछ लोग बाबा साहब के पुतले जलाते हैं, उन्हें गाली देते हैं।

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