भारत में हर कोई महिलाओं और दलितों का हितैषी बनकर अपनी राजनीति करता है लेकिन इन सबके बीच कोई भी देश में विकलांगों के बारे में नहीं सोचता। जबकि देश मे सरकारी आंकड़ों के अनुसार 11 करोड़ से अधिक लोग विकलांग हैं। जिन्हें राज्य सरकार या केंद्र सरकार द्वारा सरकारी सहायता मिली होगी या फिर पंजीकृत हैं। विकलांग लोगों का वोट तो विकलांग नहीं है ना?
मतदान के दिन समाचारपत्र में एक फोटो ज़रूर छपता है। उस फोटो के जरिये बस एक सन्देश दिया जाता है कि विकलांग लोग भी मतदान के लिए जागरूक हैं लेकिन उस फोटो में छिपी संवेदना और विकलांग व्यक्तियों की उम्मीद कभी नहीं छपती।
देश के किसी भी राज्य में ग्राम प्रधान से लेकर विधानसभा, लोकसभा या राज्यसभा की सीटों का कैटेगरी के अनुसार आरक्षण है। मगर विकलांग के लिए देश के किसी भी सदन में कहीं कोई सीट रिज़र्व नहीं। विधानसभा या संसद में ऐसा क्या कार्य होता है जिसे देश का विकलांग वर्ग नहीं कर सकता?
इसके लिए देश के किसी भी राजनीतिक दल ने कोई पहल नहीं की। अगर आप एससी, एसटी या ओबीसी सीट की बात करते हैं तो विकलांग की क्यों नहीं? समाज में विकलांग को उपेक्षित किया जाता है जो न खुलकर जी सकते हैं और न खुलकर अपनी कोई बात कह सकते हैं। क्या देश में विकलांग की हालत रोडवेज़ की यात्रा से बदल सकती है?
विकलांग को सशक्त कर दीजिये। अगर विकलांग सशक्त होगा तो वह अपना टिकट खुद खरीदने में सक्षम होगा और सरकार निःशुल्क यात्रा पास भी नहीं देना होगा। निःशुल्क यात्रा एक लॉलीपॉप है, न कि सामाजिक न्याय!
विकलांग व्यक्ति को आम आदमी की तरह जीवन जीने का कोई हक नहीं है। ना किसी से प्रेम कर सकता, और है ना ही कोई उसके प्रेम को समझता है। अगर शादी हो तो किसी विकलांग लड़की से ही हो? ये कहाँ का नियम है?
कोई विकलांग व्यक्ति यदि अपनी योग्यता, मेहनत और काबिलियत के चलते कुछ हासिल कर लेता है तो क्यों हमारा समाज उसे प्रोत्साहित करने की बजाये दया दिखाता है? हमारे संविधान में अगर कोई किसी को जातिसूचक शब्द कहता है तो उसे सजा तक हो सकती है पर कोई भी विकलांग को लंगड़ा, लूला, अंधा, बहरा आदि से संबोधित करता है तो उसे कुछ नहीं होता।
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