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“देश के मौजूदा लोकतंत्र में हर आंदोलन आतंक का पर्याय बन चुका है”

भारत का भारी भरकम इतिहास उठाकर देखते हैं,तो पाते हैं कि यह तमाम विपदाओं से निकलकर आज इक्कसवीं सदी में दुनिया के सामने एक अपनी नई पहचान लेकर खड़ा है। जिसके पास दुनिया के सर्वश्रेष्ठ मस्तिष्कों का भंडार भी है और दुनिया की सबसे बड़ी युवा शक्ति भी है।

देश को आज एक योग्य नेतृत्वकर्ता की कमी खल रही है

आज भारत इस मुकाम पर खड़ा है कि अपने शक्तियों का बेहतर इस्तमाल करे तो दुनिया के लिए आदर्श बन सकता है। इसके लिए आवश्यक है एक योग्य और कुशल नेतृत्वकर्ता की। मगर भारत का यही दुर्भाग्य रहा है कि यह जितनी बार भी सम्पूर्ण सुविधाओं से परिपूर्ण हुआ है उतनी बार योग्य नेतृत्वकर्ता की आवश्यकता सबसे ज्यादा खली है।

इतिहास में वर्णित है कि भारत सोने की चिड़िया कहलाता था लेकिन तभी तत्कालीन शासकों ने अपनी चन्द महत्वाकाक्षाएं परिपूर्ण करने के लिए आपस में ही लड़ पड़े। जिसका परिणाम हुआ कि हम सालों तक गुलामी का दंश भी झेले।

कड़ी मशक्कत के बाद आखिरकार हम पुनः स्वतंत्र हुए और एक नए सिरे से शुरुआत प्रारम्भ किए। ऐसी शुरुआत जिसमें हमारे पास संसाधन के तौर पर मौजूद थे तो कुछ लूटी हुई रियासतें, हिन्दू-मुस्लिम की कट्टरता में जलते हुए शहर और एक भू-भाग के बंटवारे से आक्रोशित नागरिक।

इन सबके बीच ही जन्म ले चुकी थी स्वार्थपरख राजनीति। इन हालात में सोने की चिड़िया कहे जाने वाले देश को पुनः संभालकर उसे एक नया पहचान दिलाना बहुत ही कठिन कार्य था, परन्तु तत्कालीन राजनीतिज्ञों ने हार न मानकर परिस्थितियों को संभाला और एक सुंदर वातावरण तैयार किया। जिसका परिणाम है कि आज हम दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश होने का तमगा हासिल किए हुए हैं।

भारतीय लोकतंत्र का स्वरूप अब बदलता जा रहा है

कहते हैं कि दुनिया के सबसे दुश्वार कार्यों में से जो कार्य आता है वो है पुरखों की निशानी को संभालकर रखना, क्योंकि आने वाली पीढ़ियां धीरे धीरे ऐतिहासिक महत्व को भूलने लगती हैं। भारत ने तमाम बाधाओं के बाद भी लोकतांत्रिक देश होने का तमगा हासिल कर रखा है तो वह इसलिए नहीं कि उसने संविधान बना लिया और संविधान सम्मत सरकारें चलाकर जनसेवा किया।

भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश इसलिए बना हुआ है क्योंकि इस देश ने खुलकर के सत्ता का विरोध करने वाली आवाज़ों को कभी नहीं कुचला बल्कि शांतिपूर्ण ढंग से अपने आंदोलनों को ज़िन्दा रखने की खुली छूट दी। इस देश ने लोकतंत्र का सबसे बड़ा आंदोलन जेपी आंदोलन देखा तो इतिहास में काला दिन तौर पर चर्चित इमरजेंसी भी देखा है।

मगर इन समस्त बाधाओं से निकलकर देश ने विश्व पटल पर यह साबित कर दिखाया कि लोकतंत्र की आवाज़ इतनी मजबूत है कि तानाशाही रवैये अपनाकर इसे दबाया नहीं जा सकता। जिसका परिणाम है कि दुनिया आज भी भारत के लोकतंत्र की लोहा मानती है।

‘आंदोलन लोकतंत्र का आभूषण होता है।’ लोकतंत्र में सभी को अपने साथ हुए अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाने की खुली छूट है। सत्ता का काम होता है, उठ रही आवाज़ को आश्वस्त करके शांत कराना। हालांकि, कुछ घटनाओं को छोड़ दिया जाए तो भारत में लोकतंत्र का स्वरूप यही था परन्तु दुर्भाग्यवश अब लोकतंत्र का स्वरूप बदल रहा है।

अब आंदोलन आतंक का पर्याय बन चुका है और हर आंदोलनकारी आतंकी बन चुका है। अब लोक के अधिकार नहीं बल्कि कर्तव्यों की बात की जा रही है। जबकि सत्ता पूर्ण रूप से अपने कर्तव्यों से विमुख हो चुकी है। अब सत्ता ‘राष्ट्र’, और लोक उसके अभिन्न अंग हो गए हैं। सत्ता के खिलाफत में कही गई बातें राष्ट्रद्रोह हो चुकी हैं और बात कहने का दुस्साहस करने वाला व्यक्ति राष्ट्रद्रोही।

किसानों को आतंकी, और इनके आंदोलन को देशविरोधी बताया जाने लगा

लोकतंत्र के इस बदलते स्वरूप ने भारत की आत्मा कृषि क्षेत्र को भी नहीं बख्शा। खेतों में खून-पसीना एक करके फसल उगाने वाले धरतीपुत्रों को आखिरकार सड़कों पर लाकर खड़ा कर दिया। सतत् दो महीने तक हाड़ कंपाती ठंड में भी वे सड़कों पर शांतिपूर्वक बैठकर सरकार से गुज़ारिश करते रहे कि मालिक रहम करो और हमारी भी बात सुन लो।

मगर किसी ने एक ना सुनी। जिसका परिणाम हुआ कि कई दिनों तक चिंगारियां जो सुषुप्त अवस्था में थी, आखिरकार अंगार बनकर भड़की और लाल किले को घेरकर तांडव मचाने लगी। लोकतंत्र में हिंसा को जायज़ नहीं ठहराया जा सकता है। यह सरासर ग़लत हुआ। लोकतंत्र की भी एक अपनी मर्यादा है कि लोकतांत्रिक स्थलों का सम्मान आवश्यक होता है परन्तु जब भीड़ बेकाबू होती है तो फिर किसी की नहीं नहीं सुनती है। अपने मन की भी नहीं। फिर दूसरों के मन की बात का क्या ही प्रभाव रह जाता है?

लाल किले को घेरे जाने की इस एक घटना ने दो महीनों तक सतत् चलने वाले इस आंदोलन की दिशा और दशा बदल दिया। अबतक जिन्हें किसानों के नाम पर जनता सहानुभूति प्रदान कर रही थी, अब जनता के मन में जहर खोलकर इन्हें आतंकी साबित करने की कोशिश की जाने लगी। अब मुद्दा तीन कृषि कानून के विरोध की बजाय, देश विरोध के रूप में दिखाया जाने लगा।

आंदोलन के बाद क्या बदल सकता है?

अब खून-पसीने से सिंची गई फसलों में आतंक के बू आने लगे थे और इन सबके बीच आंदोलन का मुख्य उद्देश्य कहीं कोसों दूर पीछे छूटने लगा था। मगर वक्त सबको एक मौका देता है गलतियां सुधारने का। इस आंदोलन को भी एक मौका मिला और यह आंदोलन पुनः और ज़्यादा मजबूती के साथ खड़ा हुआ।

कोई भी आंदोलन अनंत काल तक नहीं चलता है। सबकी एक उम्र होती है। एक निश्चित काल के बाद इस आंदोलन का भी अंत सुनिश्चित है लेकिन आंदोलन को आतंक समझकर कुचलने वालों को यह याद रखना चाहिए कि आंदोलन खत्म होकर इतिहास बन जाते हैं जिसका प्रभाव वर्तमान के साथ-साथ अनंत काल तक भविष्य को भी प्रभावित करता है। इसलिये जब इतिहास की बातें भविष्य को प्रभावित करने लगे तो कभी शांति नहीं मिलती।

ये अन्नदाता जिन्हें आज आतंकी समझने की भूल करके तमाम अफवाह फैला रहे हैं, इससे बहुत कुछ तो नहीं लेकिन एकाध चीज़ें ज़रूर बदल जा सकती है। ये कि जब किसान अपने गांवों को लौट जाएंगे और आप नंगे पांव इनकी गलियों में वोट के लिए दौड़ रहे होंगे तब ये आतंकी यदि आतंक का पर्याय बनकर आपको सुने बगैर ही पुलिस दल समझकर उल्टे पांव खदेड़ देंगे, तब आपको महसूस होगा कि एक चोर को पुलिस दल समझ लेने और एक आम नागरिक को आतंकी समझ लेने का जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है?

तब तक आप “जय जवान, जय किसान” का नारा देते हुए इन्हें आतंकी या अन्नदाता की उपमा स्वेच्छा से प्रदान कर सकते हैं।

जय हिन्द

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