आज भारत की रौनक उसके शहर में ही दिखाई देती हैं। विदेशी सैलानी भी इसे ही देखकर भारत को एक उभरता हुआ ताकत बता रहे हैं। भारत के लोगों में शायद यह मानसिकता घर गई है कि उन्हें सबकुछ शहर के ही इर्द-गिर्द दिखता है। कोई दबी जुबान में खुद को किसान कहता होगा तो उसे अनपढ़ गंवार समझा जाता होगा।
मेरे पंजाब में जब बिजली आती है और मोटर से पानी निकलता है तो एक जश्न का माहौल होता है। इसलिए कि ये दिन में बहुत कम घण्टों के लिए होती है। अगर किसी दिन थोड़ा ज़्यादा हो गया तो लोग कहते हैं, “आज ऊपर वाले को क्या हो गया? इतनी मेहरबानी कैसे?” गेहूं के लिए पानी थोड़े-थोड़े अंतराल पर चाहिए होता है तो सर्दी के दिनों में पूरा गांव रात को अपने खेत की सिंचाई करता है।
इसलिए कि बिजली रात को आती है मगर इस तकलीफ़ में भी लोगों के चेहरे पर खुशी होती है। ऐसे में तो किसानों की तकलीफ पर पूरी किताब लिख सकता हूं लेकिन आज किसानों की तकलीफ पर मेरा यह आखिरी आर्टिकल है। यहां मैं किसान की मानसिकता और निराशा की बात करूंगा जो हमारी व्यवस्था की देन है। इसके ज़ख्म शारीरिक ज़ख्मों से कहीं ज़्यादा गहरे होते हैं।
आज भी गेहूं की फसल हाथों से ही काटी जाती है। अगर मशीन से कटवानी है तो भूंसा नहीं बन सकता। किसान इस नुकसान को स्वीकार नहीं कर सकता इसलिये हाथों से फसल काटने में ही यकीन रखता है। इस समय उनके हाथ देखियेगा तो काले रंग की गहरी लकीरें ज़ख्म के रूप में खिंची होती हैं।
कहीं-कहीं खून भी लेकिन ये हाथ पर सरसों का तेल लगाकर, घर में रखा कपड़ा बांधकर दूसरी सुबह फिर खेत में कटाई कर रहे होते हैं। इतनी मुश्किल से पैदा की हुई फसल जिसे खुले में हर मौसम में उपरवाले पर भरोसा कर छोड़ दिया जाता है। कई दिनों तक वह मंडी में धूल चाट रही होती हैं। मंडी में फसल के साथ-साथ परिवार के एक सदस्य की उपस्थिति दिन-रात वहीं होती है। खाना-पीना सब घर से जाता है।
कहूं तो मेला लगा होता है। जहां सरकारी अफसर इसकी बोली लगाता है। किसान यहां या तो आढ़तिया या सरकारी अफसर के अधीन होता है। ये अन्नदाता हैं। मेरी गुस्ताखी माफ करना पर अमूमन एक छोटा और मध्यमवर्गी किसान हाथ जोड़े ही खड़ा होता है।
मेरी मौसी का लड़का बिजली के करंट लगने से १० फिट ऊंची कोठरी से गिर गया था। डॉक्टर वहां भगवान था। मोटर का पावर बढ़ाना है तो बिजली घर में रिश्वत के रेट फिक्स हैं। मैंने २००३ में खुद २२०० रुपये दिये हैं और आज भी लोग दे रहे हैं। बैंक से कर्ज मिलता है लेकिन प्रक्रिया बहुत ही जटिल है। पटवारी से जमीन के कागज़ निकालने में रिश्वत दी जाती है। बैंक के मैनेजर की भी यही मांग है।
सरकारी व्यवस्था हर जगह मुंह फाड़कर किसान को निगलने में कोई शर्म महसूस नहीं करती। यहां आप उस निराशा को समझ सकते हैं जो अनाज को पैदा कर रहा है लेकिन व्यवस्था के अधीन है। मुझे नहीं लगता व्यवस्था की तरफ से कोई भी ऐसी पहल हो रही है जिससे किसान को कोई उम्मीद दिख रही हो।
बहुत कठोर मेहनत करनी होती है। इसका एक उदाहरण भी दूंगा। जब पानी, खेतों के नाले से होकर गुजरता हैं तब इसका रूख मोड़ने के लिए मिट्टी की बाड़ बनानी पड़ती है। यह मिट्टी गीली होती है और जब आप इसे काटकर एक जगह से दूसरी जगह रखते हैं तब आप की शारीरिक ताकत की असल परीक्षा होती है। इतनी कठोर मेहनत जहां किसान की शारीरिक शक्ति दम तोड़ रही होती हैं।
मैं ये कल्पना के माध्यम से नहीं कह रहा। खुद किया भी है और दूसरों को भी करते देखा है। यहीं से जीवन में नशा आ जाता है। यहां किसान एक दलील देता है कि मेरा शरीर एक मशीन है और उसे खुराक की ज़रूरत है, अन्यथा उससे काम नहीं होगा। शराब यहां हर घर में प्रचलित है। कोई यकीन माने या ना माने, शराब हर घर में खुद की ही निकाली जाती है या दो-तीन लोग मिलकर इसमें अपना-अपना हिस्सा डाल लेते हैं।
शराब हर तरह के काम के बाद हर मजदूर को खेतों में परोसी जाती है। कटाई के समय कुछ और नशे भी इसमें शामिल होते हैं। अफीम, भूकी, इत्यादि। ये आम हैं। किसान या खेत का मजदूर इसे सेवन करने में कोई कोताही नहीं करता। अगर आप कोई नसीहत देना चाहें तो एक बार गेहूं की कटाई ज़रूर करें। यह मेरी व्यक्तिगत सोच है और मुझे हक दिया मिलना चाहिए कि मैं अपनी बात रख सकूं। जिस तरह से इन नशों का प्रचलन आम हैं वहां शायद ही नशे के खिलाफ कोई रोका-टोकी हो और इसी के चलते आज हेरोइन, मेडिकल दवाई, इत्यादि नशे प्रचलित हैं।
हर गांव में अगर आबादी हज़ार के आस पास भी हैं तो भी 1-2 मैडिकल स्टोर तो होंगे ही। इन मेडिकल स्टोर का पता हमारी व्यवस्था को नहीं होगा ये कहना मुश्किल है। जनाब, ये उड़ता पंजाब नहीं है। ये वह रुका हुआ पंजाब है जिसने पीछे अंधेरा देखा है और आगे भी कोई उम्मीद नहीं दिख रहीं। मगर खुद को बचाने के लिए आज ये उड़ना चाहता है। इस व्यवस्था से दूर भागना चाहता है।
इसी के चलते आज किसान अपनी आने वाली पीढ़ी को खेती से दूर रखना चाह रहा है। फिर उसे चाहे जमीन को ही क्यों ना बेचना पड़ जाए लेकिन एजेंट को पैसे देकर अपने बेटे को विदेश भेजना इसका मकसद बन गया है। मेरे ही गांव में किसानों के कई घर हैं जहां विदेश जाने को लेकर अब ताला लगा हुआ है। ये तादाद बढ़ रही है। मेरा यकीन मानिये, कोई विदेश जाकर वापस अपने गांव खेती करने नहीं आएगा।
मेरे गांव में अगर कहूं तो २-३ किसान ही ऐसे होंगे जिनके पास जमीन ज़्यादा होने की वजह से वह खेती के व्यवसाय को आज मुनाफे के रूप में देख रहे हैं। अन्यथा बाकी सारे किसान कोई अन्य रोजगार के उपाय करने में ही बुद्धिमानी समझ रहे हैं। मैं पंजाब को देखते हुए कह सकता हूं कि वह दिन दूर नहीं जब गांव के बहुताय घरों में ताले लगे होंगे और सुखी जमीन हमारी व्यवस्था को मुंह चिढ़ा रही होगी।
व्यवस्था भूखे पेट की दुहाई भी ना दे पाएगी क्योंकि उसने ना ही किसान को प्रोत्साहित किया और ना ही कोई सहारा दिया। शायद ये लाचार और शर्म से मुंह झुकाकर खड़ी होगी लेकिन इसमें मैं और आप भी गुनहगार होंगे। जिसने व्यक्तिगत कोशिश नहीं की किसान की व्यथा बताने की। मैं कुछ कह चुका हूं और अब आपकी बारी है। लिखिये और हमें बताइये अपने प्रांत में किसान के हालात क्या हैं? जब मिलकर आवाज उठाएंगे तभी कोशिश कामयाब होगी। अन्यथा, गुनगुनाइए। सांसें चल रही हैं। हम ज़िन्दा हैं। व्यवस्था सुन रही हो? हम ज़िन्दा हैं। जय हिंद।
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