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“आंदोलन से लेकर अन्नदाताओं की मौत तक सब याद रखा जाएगा”

पिछले साल गर्मियों के मौसम में केरल में एक गर्भवती हथिनी विस्फोटक की वजह से मर गई थी। जिसके बाद पुरे देश में संवेदना का एक भुचाल आ गया था। हथिनी की मौत के नाम से लोगों ने पुरी सोशल मीडिया को भर दिया था।

फिर एक उदीयमान फिल्म अभिनेता द्वारा की गई आत्महत्या के बाद भी पुरे देश में शोक की लहर चल पड़ी थी। सोशल मीडिया में भी चहुंओर यह मुद्दा खूब छाया रहा। ऐसा लगा कि हमारे देश में लोग कितने संवेदनशील हैं। हर छोटे-बड़े दु:ख पर एक साथ हो जाते हैं और दु:ख ज़ाहिर करते हैं।

कहते हैं न कि जैसे हर चमकती चीज़ सोना नहीं होती उसी प्रकार हर संवेदना असली संवेदना नहीं होती। बल्कि कुछ सिलेक्टीव भी होती है।

अन्नदाताओं के लिए उफ्फ तक नहीं, क्यों?

विश्व भर को देखने को मिला कि देश में अन्नदाताओं द्वारा पिछले सवा महीने से देश की राजधानी के इर्द गिर्द आंदोलन पर बैठे किसानों की किसी को कोई फिक्र नहीं है। इस दौरान लगभग 60 मौतों के बाद सत्ता समर्थक विचारधारा के लोगों की संवेदना जैसे शायद कहीं पिकनिक मनाने चली गई। वैसे भी इस देश में एक चलन तो स्थापित कर ही दिया गया है कि सत्ता से सवाल पुछना या उसे कटघरे में खड़ा करना देश विरोधी माना जाने लगा है।

इसलिए शायद सत्ता समर्थक या उससे फायदा उठाने वाले इन 60 से अधिक शहीदों की मौत पर भी संवेदना ज़ाहिर नहीं कर पा रहे हैं। बेहद निराशा पुर्ण एवं अवसाद की स्थिति है। यहां अपने ही देशवासियों के मरने का दु:ख शायद बहुत से लोगों को नहीं है।

वाह रे राजनीति, कैसा खेल रचाया है

राजनीति ने देशवासियों को ही एक दुसरे से अलग कर दिया। पालतू गोदी मीडिया से ले कर सोशल मीडिया पर आईटी सेल के ट्रोलर्स की सेना ने लोगों की संवेदनाओं को इस मुद्दे पर मार ही दिया है।

किसानों से अब यही कहने को मन करता है कि क्यों और किसके लिए लड़ रहे हो? जनता का खुन तो बहुत पहले ही पानी बन चुका है। पहले तुम्हें अलगाववादी बता दिया गया अब तुम्हारी ही मौत पर तुम्हारा ही मज़ाक बनाएंगे।

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