This post is a part of Back To School, a global movement to ensure that access to education for girls in India does not suffer post COVID-19. Click here to find out more.
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वैसे तो कोरोना वायरस के प्रकोप से पूरी दुनिया प्रभावित है, लेकिन सबसे अधिक प्रभाव केंद्रशासित प्रदेश जम्मू कश्मीर के सीमावर्ती क्षेत्रों के ग्रामीण इलाकों में रहने वाले बच्चों पर पड़ा है। जो पहले सरहद पार से आने वाली गोलियों के कारण स्कूल नहीं जा पाते थे और अब कोरोना संकट ने उनके स्कूल में ताला जड़ दिया है।
विडंबना यह है कि लॉकडाउन में भी देश के अन्य क्षेत्रों में रहने वाले बच्चे जहां 4G नेटवर्क की सुविधा के कारण ऑनलाइन क्लास के माध्यम से अपनी शिक्षा पूरी कर रहे हैं, वहीं इन क्षेत्रों में 2G नेटवर्क के कारण बच्चों को ऑनलाइन शिक्षा से भी वंचित होना पड़ रहा है।
पाठकों को यह जानकार आश्चर्य हो रहा होगा। लेकिन वास्तविकता यही है कि देश जहां 4G के बाद अब 5G नेटवर्क से लैस होने की ओर तेजी से अग्रसर है, वहीं जम्मू कश्मीर के सीमावर्ती क्षेत्र सुरक्षा की दृष्टि से अतिसंवेदनशील होने के कारण आज भी यहां 2G नेटवर्क ही संचालित होता है। जिससे ऑनलाइन कक्षाओं की बात तो दूर, अक्सर यहां मोबाइल पर सुचारु तरीके से बातचीत भी मुमकिन नहीं हो पाती है।
जम्मू कश्मीर के सीमावर्ती क्षेत्रों के बच्चों की शिक्षा कोरोना से पहले भी सरकार के लिए एक बड़ा चैलेंज रही है क्योंकि सीमावर्ती क्षेत्रों में लाइन ऑफ कंट्रोल पर आए दिन होने वाली फायरिंग के कारण स्कूली बच्चे भी बहुत प्रभावित होते हैं। कई बार तो इसके कारण मासूम बच्चों की जान तक चली जाती है। लेकिन इस लॉकडाउन में ये चैलेंज दोगुना हो गया है, क्योंकि एक तरफ लाइन ऑफ कंट्रोल पर होने वाली फायरिंग की दहशत है तो दूसरी ओर इंटरनेट की खराब स्थिति के कारण ऑनलाइन क्लास तक उपलब्ध नहीं हो पा रही है। सवाल उठता है कि आखिर कब तक बच्चे बंदूक के साए में आधी अधूरी शिक्षा हासिल करते रहेंगे?
गांव के लोग अपने बच्चों के उज्ज्वल भविष्य के लिए उनका नामांकन स्कूल में कराते हैं और यह सोचते हैं कि शिक्षा के प्रकाश से उनके बच्चों की किस्मत भी रोशन होगी। लेकिन होता इसके विपरीत है। सीमा पर तनाव का शिकार बच्चों की शिक्षा भी होती है। इसका सबसे बड़ा नुकसान लड़कियों की शिक्षा को हो रहा है। जो धीरे-धीरे स्कूल से दूर होती जा रही हैं। सरहद से बिल्कुल सटे गांव शाहपुरा के एक सामाजिक कार्यकर्त्ता अब्दुल रशीद शाहवरी कहते हैं कि “जैसे ही इस सरहदी इलाके में दोनों देशों की फौजें आमने सामने होती हैं, सभी स्कूल बंद कर दिए जाते हैं।
आए दिन होने वाले इस खौफ और दहशत के कारण अभिभावक अपने बच्चों को स्कूल भेजने की जगह घर में ही रखना उचित समझते हैं। जाहिर है कि इस खौफ का पहला शिकार लड़कियों की शिक्षा को हुआ है। गोलीबारी के कारण दिव्यांगता की अनहोनी के डर से मां बाप बेटियों को स्कूल भेजने से कतराते हैं।
अब्दुल रशीद कहते हैं कि यहां के बच्चों की शिक्षा एक मजाक बन कर रह गई है। अधिकतर फायरिंग स्कूल टाइम में ही होती है। कई बार क्लास की पहली घंटी बजते ही फायरिंग शुरू हो जाती है। जिससे बच्चों की सुरक्षा के लिए फौरन स्कूल बंद करके उन्हें घर भेज दिया जाता है। यह सिलसिला पिछले कई सालों से चल रहा है। अब्दुल रशीद बताते हैं कि “मेरी बेटी ने दसवीं के बाद हाई स्कूल में दाखिला लिया था। जो हमारे गांव से पांच किमी दूर है। एक पिता होने के नाते मुझे हर समय फायरिंग के परिणामस्वरूप किसी अनहोनी की आशंका लगी रहती है।
यह डर मेरे जैसे सभी यहां के सभी माता पिता को रहता है। कई अभिभावकों की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं होने के कारण वह अपने बच्चों को पुंछ शहर भेज कर डिग्री कॉलेज में नहीं पढ़ा सकते हैं। मेरी बेटी और उसकी सभी सहेलियां दसवीं अथवा बारहवीं की पढाई के बाद शिक्षा छोड़ चुकी हैं।
ज्ञात हो कि इस गांव में एक हाई स्कूल है जो सीमा से बिल्कुल सटा हुआ है। इस स्कूल में दूर दराज गांवों के बच्चे शिक्षा प्राप्त करने आते हैं। लेकिन फायरिंग और घुसपैठ के कारण लड़कियों ने लगभग स्कूल आना छोड़ दिया है। कुछ लड़कियां प्राइवेट से ही दसवीं और बारहवीं की परीक्षा देती हैं। लेकिन शिक्षकों का उचित मार्गदर्शन नहीं मिलने के कारण अधिकतर लड़कियों ने बीच में ही पढ़ाई छोड़ दी है।
स्कूल के हेडमास्टर लाल हुसैन के अनुसार “इस स्कूल को 2005 में अपग्रेड कर दसवीं तक कर दिया गया है। लेकिन आज तक इसमें हाई स्कूल के स्टाफ की नियुक्ति नहीं की गई। वर्त्तमान में स्कूल में 215 छात्र छात्राएं शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। हायर सेकेंड्री स्कूल दूर होने के कारण ज्यादातर लड़कियों की पढ़ाई छुड़ा दी जाती है। वहीं इस स्कूल में दसवीं के बच्चों को पढ़ाने के लिए शिक्षकों के 6 पदों में केवल 2 ही शिक्षक नियुक्त हैं।
जबकि जूनियर ग्रेड के शिक्षकों के 14 पदों में केवल 8 पदों पर ही शिक्षकों की नियुक्ति है, जिससे बच्चों की पढ़ाई का काफी नुकसान हो रहा है। एक तरफ शिक्षकों की कमी तो दूसरी ओर सीमा पार से आए दिन होने वाली गोलाबारी और अब इसके साथ साथ कोरोना महामारी ने बच्चों की पढ़ाई को लगभग ठप्प कर दिया है।
गांव के एक नौजवान अब्दुल गनी बच्चों की प्रभावित होती शिक्षा पर अपनी चिंता प्रकट करते हुए कहते हैं कि “इस क्षेत्र में हर बच्चा बंदूक के साए में जन्म लेता है और गोलियों की बौछारों के बीच अपनी शिक्षा पूरी करता है। बच्चों की अच्छी शिक्षा के लिए केंद्र से लेकर सभी राज्य सरकारें और केंद्रशासित प्रदेश विभिन्न योजनाएं और ऑनलाइन शिक्षा जैसी सुविधा उपलब्ध करा रहे हैं, लेकिन इस सीमावर्ती क्षेत्र के बच्चों के लिए यह योजनाएं और सुविधाएँ केवल एक सपना है।
अफसोस की बात यह है कि फायरिंग के कारण यह क्षेत्र हमेशा मीडिया की सुर्खियों में रहा है, लेकिन किसी मीडिया ने इससे गांव वालों को होने वाली रोजाना की कठिनाइयों और बच्चों की प्रभावित होती शिक्षा को कभी अपना हेडलाइन नहीं बनाया है। सरकार और स्थानीय जनप्रतिनिधियों के असहयोगात्मक रवैये ने भी हमेशा गांव वालों को निराश ही किया है। यही कारण है कि इन क्षेत्रों के अधिकतर बच्चे विशेषकर लड़कियों की शिक्षा सबसे ज्यादा प्रभावित होती आ रही है, लेकिन किसी भी जिम्मेदार संस्था ने कभी इस ओर गंभीरता से ध्यान नहीं दिया।
(यह आलेख संजॉय घोष मीडिया अवार्ड 2019 के अंतर्गत लिखा गया है)
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