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21वीं सदी में बदलता गुरु-शिष्य परम्परा का स्वरूप

21वीं सदी में बदलता गुरु-शिष्य परम्परा का स्वरूप

नि:संदेह यह विचारणीय प्रश्न है!

गुरु और शिष्य की परम्परा के बीच आस्था भाव का निरन्तर गिरता स्तर और इसके लिए किसे दोष दिया जाए? एक अध्यापक को जिसे खुद इस आधुनिक कहे जाने वाले समाज ने आज बस मास्टरजी शब्द तक ही सीमित कर दिया है या उस शिष्य को जिसे गुरु-शिष्य परम्परा के आदर्शों एवं उससे जुड़ी भावनाओं के अर्थों के बारे में कुछ पता ही नहीं है।

एक हद तक हम सब ही इसके दोषी हैं, क्योंकि हम सबने मिलकर एक सभ्य आदर्श आधुनिक समाज विकसित किया है जो पाश्चात्य सभ्यता और वहां की संस्कृति से प्रेरित और प्रभावित है। जहां आज हमारे इस सभ्य समाज में बहुतों के लिए आस्था का मतलब है- बाबा रामदेव का चैनल।

यद्यपि हमारी भारतीय पुरातन संस्कृति में विख्यात गुरु द्रोण , विश्वामित्र ,चाणक्य अर्जुन, श्रीराम ,एकलव्य ,चन्द्रगुप्त जैसे गुरु-शिष्य परम्परा के महानतम उदाहरण इतिहास के स्वर्णिम पन्नों में दर्ज़ हैं, लेकिन आज भी IIT कानपुर के भौतिकी के प्रोफेसर एच. सी.वर्मा, सुपर- 30 के संस्थापक एवं अध्यापक आनंद कुमार जैसे लोग अपवाद स्वरूप इस गुरु-शिष्य की इस गौरवशाली परम्परा को आगे बढा रहे हैं। इसके बाबजूद यदि हम एक बड़े स्तर पर इस परम्परा को देखें तो हम पाएंगे कि गुरु-शिष्य के मध्य भारतीय शिक्षा के मूल तत्वों एवं आस्था भाव से लेकर अध्ययन की प्रक्रिया भी संतोषजनक नहीं है।

इसके कुछ कारण हैं जो हम देखेंगे और समझेंगे तो आइए इन कारणों को समझते हैं-

शिक्षा का बाजारीकरण

वर्तमान समय में शिक्षा पाना किसी योग्य विद्यार्थी की प्रतिभा और किसी शिक्षक की योग्यता का विषय नहीं है वरन वर्तमान समय में यह व्यक्ति विशेष और धन द्वारा सम्पादित व्यवस्था है। इस शिक्षा व्यवस्था में गुरु और शिष्य के मध्य परस्पर सीधा व्यापार हो रहा है तो गुरु-शिष्य परम्परा में श्रद्धा और आस्था कैसे पैदा होगी? फिर भीहमारे भारतीय शिक्षक अभी भी अपने विद्यालय के विद्यार्थियों से अभिवादन में नमस्ते और चरण स्पर्श प्राप्त कर रहे हैं, जिसके लिए दोनों ही बधाई के पात्र हैं।

पाश्चात्य स्कूली तंत्र व्यवस्था

अंग्रेजों के द्वारा प्रतिपादित इस स्कूल व्यवस्था में कार्य करने का एक सीमित क्षेत्र एवं एक सीमित समय है। एक सीमित व्यवस्था में एक अध्यापक के लिए सभी विद्यार्थियों के मन में शिक्षा एवं अपने प्रति आस्था भाव उत्पन्न करना कठिन है। विद्यालय में कुछ ही विद्यार्थी अपने अध्यापकों के बहुआयामी व्यक्तित्व से परिचित हो पाते हैं मतलब उन्हें बेहतर जान पाते हैं, बाकियों के लिए अध्यापक केवल व्यंग्य का विषय रह जाता है .

वर्तमान आधुनिक वातावरण

हम नितान्त ही मानव पीढ़ी के सबसे विकसित समय में हैं।वर्तमान का युग सूचना का युग है और सूचना स्वयं में एक शक्ति है। प्राचीन काल में केवल गुरु ही एकमात्र सूचना के स्रोत हुआ करते थे, परंतु अब विभिन्न प्रकार की सहायक सामग्री जैसे- ट्यूशन, इंटरनेट, समाज, टीवी, और सिनेमा इन सब ने मिलकर एक ऐसे वातावरण का निर्माण किया है जिसमें गुरु के लिए अपने विद्यार्थियों के समक्ष आदर्श स्थापित करना और भी कठिन हो गया है।

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