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भारत में कृषि का इतिहास व किसानों की समस्याएं

किसान

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हमारे देश में देखा जाए तो किसान और कृषि का महत्त्व सदियों से छुपा नहीं है। 240 मि हेक्टेयर ज़मीन कृषि क्षेत्र के लिए है, चीन की 140 मि हेक्टेयर और अमेरिका की 120 हेक्टेयर भूमि से कई ज़्यादा 2019 के आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक आज 51% आबादी की आय का स्त्रोत कृषि है। 18% GDP कृषि से आती है, फिर भी उत्पादन में कई साधारण अनाज जैसे चावल, बाजरा, सोयाबीन में हम चीन से बहुत पीछे हैं।

इतिहास पर एक नज़र

थोड़ा इतिहास में झांकें तो अकबर के समय किसानों के कामो में राजा का दखल नहीं था। अकबर ने ज़मीन और फसल के दाम दोनों किसानों पर छोड़ दिए थे। जिससे उस वक्त कृषि को 90% आबादी ने अपना रोज़गार बनाया, Indus valley Civilization से ही Canal irrigation और कई बिंदु नज़र आते हैं। वैसे ही बिंदु अकबर के वक्त भी नज़र आये जब कृषि व किसान की मुख्य यातना शुरू होती है। अंग्रेज़ों के भारत आने से ब्रिटिश सरकार ने देश के सभी खेतों पर आधिकारिक रूप से अपना कब्ज़ा जमा लिया। उनका मुख्य उद्देश्य ब्रिटेन और उसकी सेना के लिए अनाज का उत्पादन करना था।

1793 में Permanent Setllement Act के अंतर्गत उन्होंने हर कस्बे और गांव में जमींदार को स्थापित किया। इन्हें किसानों से अनाज व लगान वसूलने को कहा गया। जो जितना ज़्यादा अनाज वसूलेगा उसे ब्रिटिश सरकार से उतना ज़्यादा पैसा मिलेगा।

किसानों के पास अपने परिवार चलाने के लिए अनाज नहीं बचता था, तब अपना घर चलाने के लिए और ज़मीन बचाने के लिए उन्हें साहूकारों से क़र्ज़ लेना पड़ता था। पीढ़ी दर पीढ़ी यह क़र्ज़ बढ़ता गया। जब 1947 में देश आज़ाद हुआ तो ज़मींदारी खत्म करने के लिए सरकार ने राज्यों को कानून बनाने को कहा। ज़्यादातर विधायक व नेता खुद ज़मींदार थे। कानून तो बना लेकिन इतना कमज़ोर कि आज भी किसान ज़मींदारों के नीचे कुचला हुआ है।

1962 तक किसानों की हालात में जरा भी बदलाव नहीं हुआ

उस समय देश के पास सबसे बड़ी समस्या थी लैंड सेगमेंटेशन दरअसल भारत में भारत में ज़मीन का बंटवारा बराबर भागों में किया जाता है। जिससे कि वह ज़मीन पीढ़ी दर पीढ़ी छोटी होती जाती है इस प्रकार बहुत बड़ा कृषि क्षेत्र कई भिन्न भागो में बट जाता है। 1955-60 की दूसरी FY Policy में कृषि की जगह इंडस्ट्री पर ध्यान दिया गया। भिलाई, राउरकेला और दुर्गापुर में रूस व जर्मनी की मदद से लोहे व स्टील के उद्योग डाले गए।

1959-60 में भारत सूखे की मार झेल रहा था और 62 में भारत चीन युद्ध के बाद भारत में भुखमरी की नौबत आ पहुंची।

अन्न उत्पादन के लिए हमें अमेरिका से अनाज लेना पड़ा, जिससे पूरी दुनिया में भारत की काफी किरकिरी हुई। क्योंकि 62 के युद्ध में अमेरिका ने चीन का साथ दिया था। इस समस्या के लिए सबसे अहम कदम उठाया गया 1964 में। जब एम. स्वामीनाथन ने फिलीपीन्स के नॉर्मन बोरलॉग को भारत लाकर उसी तर्ज़ पर हरित क्रांति के लिए तैयार किया। इसका फायदा यह हुआ कि 1990 तक भारत 200 मिलियन टन अनाज का उत्पादक बन गया।

कभी भुखमरी की आपदा भारत पर नहीं आई

भारत के सभी किसानों और खासकर मध्यम व गरीब किसानों के लिए बिल्कुल कारगर नहीं हुआ। दरअसल हरित क्रांति सिर्फ हरियाणा, पंजाब और पश्चिम उत्तर प्रदेश में गेहूं व चावल के उत्पादन के लिए किया गया। जो तकनीकी रूप से सक्षम भी थे और इसी से वह और ज़्यादा अमीर होते गए और आज भी बिहार, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, विदर्भ का किसान गरीब ब पीड़ित ही है। वह कर्ज़ में दबा हुआ है, तकनीकी रूप से असक्षम हैं।

उसके अनाज की कीमत देश में अब नहीं बची। वह व्यापारियों के कहे दाम पर अनाज बेचने को मजबूर हैं। 1980-90 में यही समाजवादी आंदोलन का कारण भी बना।

पश्चिम बंगाल में जुट का उत्पादन सबसे ज़्यादा होता आया है परंतु ‘सिंथेटिक फाइबर’ के बाद अंतराष्ट्रीय बाज़ारों में जुट की कीमतों और मांग दोनों में गिरावट आई। जिससे वहां का किसान भी चावल उगाने पर मजबूर हो गया। दार्जीलिंग का किसान चाय उगाता है लेकिन फिर भी उसकी आपूर्ति हमारे देश में कहीं ज़्यादा है। जिससे उसे अंतराष्ट्रीय बाज़ार में नहीं बेचा जाता। बिहार का किसान हर साल बाढ़ की मार झेलता है और विदर्भ का सूखे की इन सभी समस्याओं की वजह से हम नहीं जानते और इसी कारण किसानों को राजनेता मोहरा बनाकर चल पड़ते हैं।

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