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“कैसे भारतीय मीडिया लोकतंत्र को बर्बाद कर रहा है”

“अध्यक्ष जी आपसे बात करेंगे फोन के दूसरे छोर से आवाज़ आई। संपादक हैरान हो गए कि यह अध्यक्ष जी कौन हैं। क्या यह कोई मज़ाक है? तभी दूसरी आवाज़ उनके कानों में पड़ी “मैं अमित शाह बोल रहा हूं।”

यह बात तब की है जब शाह भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे। इसमें कोई शक नहीं कि वह भारत के दूसरे सबसे शक्तिशाली व्यक्ति थे। 2014 मैं उनकी पार्टी की सरकार बन चुकी थी। उन्होंने संपादक महोदय को बताया कि कारवां द्वारा प्रकाशित एक बड़ी पड़ताल के संबंध में जो प्रेस कॉन्फ्रेंस विपक्ष के नेता करने वाले हैं उसे कवर न करें। आमतौर पर होता यह है कि विपक्षी पार्टियां बड़ी खबर पर कोई राजनीतिक प्रक्रिया देती हैं। बहरहाल यहां तो संपादक महोदय को कॉल आया था कि वह विपक्षी पार्टियों द्वारा किए जा रहे हैं कॉन्फ्रेंस को कवर करें।

प्रधानमंत्री ने नहीं की प्रेस कांफ्रेंस

मोदी जी की पहचान एक “संवाद में माहिर नेता” की है लेकिन 26 मई 2014 को कुर्सी पर बैठने के बाद से आज तक उन्होंने एक भी प्रेस कॉन्फ्रेंस नहीं की। तो इसे सवालों से बचने की रणनीति ही कहा जा सकता है। कुल मिलाकर हमें तो यह प्रतीत होता है कि मीडिया अपने सिद्धांतों को छोड़कर आज के दौर में बाज़ारू हो गया है।

अब यहां बाज़ार और बाज़ारु का फर्क खड़ा होता है। बाज़ार वह है जो बिकाऊ है, जिसका पत्रकारिता के मूल्यों व सिद्धांतों से कोई लेना देना नहीं हैं, जो मीडिया को केवल व्यवसाय समझता है।

पत्रकारिता कब पक्षकारिता में तब्दील हो गई, पता ही नहीं चला

आज न्यूज़ टीवी चैनल सरकार की गोद में बैठ कर देश में नफरत के बीज हो रहे हैं। जिसके अंकुर फूटने शुरू कर दिए हैं, और मॉब लिंचिंग की घटना इसका जीवंत उदाहरण है। टीवी पर ऐसी डिबेट होती है जिसे देखकर लोगों का खून खौलना स्वभाविक है।

लोग आज भी मीडिया पर भरोसा करते हैं और उसके साथ मीडिया के बिकाऊ होने की पुष्टि भी करते हैं। कुछ मीडिया संस्थान और पत्रकार सरकार के हाथों की कठपुतली बन कर रह गए हैं। आज अगर कोई पत्रकार निडर होकर डंके की चोट पर सच लिख रहा है तो गुलामों की पूरी जमात उस निष्पक्ष पत्रकार के विरोध में खड़ी हो जाती है। बहरहाल सोचने की बात यह है कि निष्पक्ष बोलने से उस पत्रकार का निजी लाभ क्या हुआ?

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