२०१७ में मेरी ज़िंदगी में एक चुनौती आई। मेरी तबियत खराब रहने लगी और मैं पटना में एक डॉक्टर के पास गयी। डॉक्टर ने जांच करके मुझे एक दवाई का परचा थमा दिया। सही से ये तक नहीं बताया कि मुझे क्या बीमारी है?
उन दवाइयों को लेने के बाद मेरी तबियत सुधरने लगी इसलिए फिर मैंने दवाई लेनी बंद कर दी। २०१८ में दोबारा मेरी तबियत खराब हो गई। इस बार मैं दूसरे डॉक्टर के पास गयी जिन्होंने जांच करके बताया मुझे टीबी यानी क्षय रोग है।
टीबी लाइलाज नहीं है लेकिन मरीज को अक्सर ये कोई नहीं बताता कि इलाज के साथ प्रोटीन से भरपूर पोषण भी ज़रूरी है। अगर मरीज को बताया जाता भी है तो ये ध्यान नहीं दिया जाता कि मरीज के पास पर्याप्त पोषण प्राप्त करने के पैसे हैं भी या नहीं? मेरा ही उदाहरण ले लीजिये। मैं एक विधवा थी जो तीन बच्चों को अकेले पाल रही थी।
आमदनी के नाम पर किराये पर लगाए कमरे से हर महीने सिर्फ ३००० आते थे और सरकारी राशन के भरोसे मैं अपना और बच्चों का गुज़र-बसर बड़ी मुश्किल से कर रही थी। ऐसे में अपने लिए दूध, अंडे, पनीर, मछली, राजमा आदि जैसी प्रोटीन वाली चीज़ें कैसे खरीदती? फिर भी मेरे डॉक्टर ने ये पूछना ज़रूरी नहीं समझा कि मैं पर्याप्त पोषण ले पाऊंगी या नहीं?
खैर मैंने डॉक्टर के निर्देशानुसार इलाज शुरू किया। इलाज के दौरान मुझे बहुत कमज़ोरी और थकान महसूस होती है। टीबी के इलाज के दौरान ऐसे होता है, पर उन मरीजों के साथ और भी ज़्यादा होता है जिन्हें सही पोषण नहीं मिल रहा हो क्योंकि बिना सही आहार के बीमारी से लड़ने और दवाई के दुष्प्रभाव सहने की ताकत कहां से आएगी?
दिनभर बस सोने का मन करता था, उठने की हिम्मत नहीं होती थी लेकिन मैं सोये रहती तो मेरे बच्चों का ख्याल कौन रखता? मेरी एक दवा का मेरी आंखों की रौशनी पर इस तरह असर पड़ा कि आज भी मैं सिर्फ एक ही आंख से देख सकती हूं। मेरे आंख के डॉक्टर ने ये तक कहा था कि अगर मुझे प्रोटीन से भरपूर संतुलित आहार मिला होता तो मेरी दवा का शायद आंखों पर इतना गहरा असर नहीं होता। मगर मुझे इलाज से पहले बताया तक नहीं गया कि सही पोषण न मिलने का मेरी आंखों पर ऐसा असर हो सकता है।
ऐसा नहीं है कि टीबी मरीजों को भारत सरकार की तरफ से पोषण के लिए कोई सहारा नहीं मिलता। सरकार ने मरीजों को पोषण संबंधित सहारा देने के लिए निक्षय पोषण योजना चलाई है जिसके तहत दर्ज हुए मरीज को इलाज के दौरान हर महीने ५०० रुपए मिलने चाहिए लेकिन मेरे खुद के सरकारी डॉक्टर ने मुझे इस योजना के बारे में कोई जानकारी नहीं दी। मेरे जैसे और भी मरीज हैं जिन्हें इस योजना के बारे में कुछ भी नहीं बताया जाता है।
जब मुझे कहीं और से इस योजना के बारे में पता चला तो मैंने इसका फॉर्म भरा। यह सोचकर कि चलो देर से ही सही, पोषण के लिए कुछ तो सहारा मिलेगा। मगर यहां तकलीफ ये थी कि समय पर धनराशि वितरित ही नहीं होती, और ना ही पूरी धन राशि दी गई। जहां मुझे एक साल के इलाज में हर महीने ५०० रूपए मिलने चाहिए थे, कुल मिलाकर पूरे साल में सिर्फ १००० रूपए ही मिले।
तीसरी बात ये कि मात्र ५०० रूपए महीने में आज की महंगाई के जमाने में क्या मिलता? ५०० रूपए में आज मिलता क्या है और इतने काम पैसों मैं अपना पेट भरूं या अपने बच्चों का? ये राशि एक पौष्टिक आहार खाने के लिए काफी नहीं है। तभी तो छत्तीसगढ़ जैसे राज्य टीबी मरीजों को पर्याप्त पोषण देने के लिए अपने खुद की योजना चलाता है। मगर बिहार में ऐसी कोई राज्य स्तरीय योजना नहीं है जो खास तौर से टीबी मरीजों के लिए हो।
अब आप सोच रहे होंगे की राज्य स्तर की योजना की क्या ज़रूरत है जब सरकारी राशन मिलता ही है तो? मगर सरकारी राशन में सिर्फ आटा और चावल मिलता है। वह सारी प्रोटीन से भरपूर चीज़ें नहीं जिसकी एक टीबी मरीज को ज़रूरत होती है।
मरीज निक्षय पोषण योजना का लाभ तभी उठा पाएंगे जब वह इसके बारे में जानेंगे। जिनके लिए यह योजना बनी है, अगर हम उन्हें ही इसकी जानकारी न दें तो ऐसी योजना का क्या फायदा? जानकारी देना सरकार और डॉक्टर का फर्ज़ है।
दूसरी बात ये कि सहारा दे रहे हैं तो पर्याप्त सहारा दें। ५०० रूपए में इंसान पूरे महीने के लिए क्या ही खरीद लेगा? इतना तो सिर्फ एक आधा किलो मीट या मछली खरीदने में चले जाते हैं। पूरे महीने के लिए ऐसी प्रोटीन से भरपूर चीज़ें कहां से लाएगा? या तो ये धनराशि बढ़ाई या फिर छत्तीसगढ़ सरकार की तरह बिहार सरकार भी राज्य स्तर पर टीबी मरीजों को पोषण योजना द्वारा सहारा दे।
जब तक हम टीबी मरीजों को सही जांच और सही इलाज के साथ पर्याप्त पोषण प्राप्त करने का सहारा नहीं देंगे तब तक बिहार और भारत सही मायने में टीबी मुक्त नहीं हो सकते। भूखे पेट न ही आसानी से जंग जीती जा सकती है और न ही आसानी से ज़िंदगी जी सकती है।
रीना देवी पटना सिटी से एक टीबी सर्वाइवर हैं।
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