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कैलाश सत्यार्थी जी के आंदोलन से प्रेरित होकर मैं किसी भी तरह उनसे जुड़ना चाहता था

नोबेल शांति पुरस्‍कार से सम्‍मानित कैलाश सत्‍यार्थी के बाल अधिकारों के क्षेत्र में किए गए असाधारण कार्य से पूरी दुनिया अवगत है। अब तो उनके लिए यह भी कहा जाने लगा है, “बच्‍चों की आस कैलाश।” सत्‍यार्थी जी और उनके आंदोलन की इसी विशेषता को देखकर पूरे भारत के लोग उनसे जुड़ना चाहते हैं। जुनूनी लोगों को लगता है कि समाज सेवा करने के लिए इससे बेहतर मंच कोई और हो ही नहीं सकता। सत्‍यार्थी आंदोलन से वर्तमान में जितने भी लोग जुड़े हुए हैं, लगभग सब की यही कहानी है। इस प्रफेशनल युग में भी सत्‍यार्थी आंदोलन उनके लिए पहली प्राथमिकता और आकर्षण रहा है।

फिरोज़ाबाद कांच फैक्ट्री से सत्यार्थी जी ने हज़ारों बच्चों को मुक्त कराया था

मैं जब 2004 में यूनिसेफ की तरफ से उत्तरप्रदेश के फिरोज़ाबाद में पोलियो उन्‍मूलन कार्यक्रम का प्रतिनिधि था, तब मैंने बचपन बचाओ आंदोलन (बीबीए) के बारे में सुना था। मैंने यह भी सुना था कि यह संगठन जाने-माने बाल अधिकार कार्यकर्ता कैलाश सत्यार्थी जी के नेतृत्व में हाशिए के बच्चों की बेहतरी के लिए काम करता है। मुझे इस बात ने बेहद प्रभावित किया था कि सत्यार्थी जी की धर्मपत्‍नी श्रीमती सुमेधा कैलाश ने फिरोज़ाबाद में बाल मजदूरों के दुखों से दुखी होकर यह प्रण लिया है कि अब वह जीवन में कभी भी कांच की चूड़ियां नहीं पहनेंगी।

यहां इस बात का उल्‍लेख करना ज़रूरी है कि यह वही फिरोज़ाबाद है, जहां हजारों बाल मजदूर कांच उद्योग में चूड़ियां बनाते थे। चूड़ियां बनाने के क्रम में उनकी नाज़ुक उंगलियां और हाथ घायल हो जाते थे। कांच की चिमनियों से निकलते धुएं सीधे उनके फेफड़ों में पहुंचते थे, जिससे वे असमय ही टीबी के शिकार हो जाते थे और बहुत ही कम उम्र में काल के ग्रास बन जाते थे। सत्यार्थी जी ने इन बच्‍चों को मुक्‍त कराने के बाबत अपने साथियों के साथ कई सालों तक कड़ा संघर्ष किया था।

उस दौरान उन्‍हें शारीरिक हमलों का भी सामना करना पड़ा लेकिन उनका संघर्ष रंग लाया और बाल मजदूरों को मुक्ति के साथ-साथ उनके हित में कई काम भी हुए। इस बाबत बीबीए के महासचिव रमाशंकर चौरसिया जी अपने अनुभव को साझा करते हुए कहते हैं – “बच्‍चों की उम्र और स्‍वास्‍थ्‍य का ख्‍याल किए बिना उनको नाममात्र की मजदूरी पर 12-14 घंटे रोज खटाया जाता था। फिरोज़ाबाद के चूड़ी कारखानों में हज़ारों की संख्‍या में बच्‍चे 1400 फारेनहाइट पर पिघला हुआ कांच कलछूलों में भरकर डालते थे।”

अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए चौरसिया जी कहते हैं- “इन कारखानों में मालिक बच्‍चों को इसीलिए काम पर लगाते थे क्‍योंकि इस काम के बदले में बाल मजदूरों को रोज़ाना के हिसाब से मात्र 10 रुपये ही देने पड़ते थे, लेकिन वहीं किसी वयस्‍क को इसके लिए 70 से 80 रुपये देने पड़ते। इसके अतिरिक्‍त ये सारी भट्ठियां कोयले से चलती थीं, जिससे फिरोजाबाद का सारा वातावरण कोयले के धुएं से भरा रहता था।

यही वजह थी कि भारत में टीबी के सबसे ज्‍यादा मरीज फिरोज़ाबाद में ही पाए जाते थे। बीबीए के हस्‍तक्षेप से जहां धीरे-धीरे सारे बच्‍चे काम से हटाए गए, वहीं राष्‍ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) के निर्देश पर कोयले की सारी भट्ठियां बंद करा दी गईं तथा उनकी जगह गैस की भट्ठियां लगाई गईं। इसका परिणाम यह भी निकला कि फिरोज़ाबाद को जहरीले धुएं से मुक्ति मिल गई।”

फिरोज़ाबाद से पहले सत्‍यार्थी जी फरीदाबाद की पत्थर खदानों से भी बंधुआ मजदूरों को मुक्त करा चुके थे। बंधुआ मजदूरों की सामाजिक, राजनीतिक और सांस्‍कृतिक जागरूकता के लिए एक से एक उपक्रम किए गए थे। यहीं बंधुआ मजदूरों के अधिकारों और पुनर्वास के लिए बहुत सारे नए कानून भी बने। फरीदाबाद का आंदोलन फिरोज़ाबाद से भी अधिक संघर्षपूर्ण था।

फरीदाबाद में ही सत्‍यार्थी आंदोलन ने अपने हिरावल दस्‍ते के दो अभिन्‍न और जुझारू साथी धूमदास और आदर्श किशोर को खो दिया। सत्‍यार्थी जी को भी गंभीर चोटें आई थीं लेकिन सौभाग्य से वह बच गए। धूमदास और आदर्श किशोर की शहादत आंदोलन के साथियों के लिए प्रेरणास्रोत के रूप में काम कर रहे हैं। यही वे बातें थीं, जो मुझे श्री सत्‍यार्थी जी और उनके संगठन से जुड़ने के लिए प्रेरित करती रहीं।

मैं किसी भी तरह सत्यार्थी आंदोलन से जुड़ना चाहता था

मैंने ठान रखा था कि समाज सेवा और सीखने के लिए इससे बेहतर मंच और कोई नहीं हो सकता लेकिन मुझे कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था कि इसके लिए मैं क्या करूं? किससे मिलूं? एक कहावत है न कि “जहां चाह, वहीं राह।” यह मुझ पर भी लागू हुई और प्रकृति ने परोक्ष रूप से इसमें मेरी मदद करती रही। सत्यार्थी जी से जुड़ने का मार्ग प्रशस्त होता रहा। 31 दिसंबर 2005 को यूनिसेफ में मेरा आखिरी दिन था। इसलिए मुझे संतोष भी था कि अब मैं स्वतंत्रतापूर्वक बीबीए से जुड़ने को हरसंभव प्रयास कर पाऊंगा।

मैंने बीबीए की वेबसाइट खंगालनी शुरू कर दी। मैंने देखा कि बीबीए की तरफ से उत्तरप्रदेश के लिए एक रिक्ति आई हुई है। मैंने तुरंत अपना बायो-डाटा बीबीए मुख्यालय भेज दिया। मैं इस ऊहापोह में भी था कि मुझे साक्षात्कार के लिए बुलाया जाएगा या नहीं? उधर मेरी निजी परेशानियां भी बढ़ती जा रही थीं क्योंकि मैं बेरोजगार हो चुका था। मेरी माली हालत अच्छी नहीं थी।

मैं बीबीए की तरफ से बुलावे का बेसब्री से इंतज़ार करने लगा। मुझे कई जगह मौके मिल भी रहे थे लेकिन मैं अपनी धुन का पक्का था और किसी तरह बस सत्यार्थी जी के संगठन से जुड़ना चाहता था। आखिरकार वह खास दिन आया जब बीबीए ने मुझे साक्षात्कार के लिए बुलाया। दिल्ली में कालकाजी स्थित एल-6 के ऑफिस मेरा दो राउंड का साक्षात्कार हुआ। आखिरी राउंड का इंटरव्यू तेज-तर्रार अधिवक्‍ता और सत्यार्थी जी के पुत्र भुवन रिभु जी ने लिया।

साक्षात्कार में मैं नाकामयाब नहीं होना चाहता था इसलिए अपने अंदर के आत्‍मविश्‍वास को पूरी तरह से इकट्ठा किया तथा भुवन जी के सवालों के जवाब देने लगा। साक्षात्कार लगभग 15 मिनट चला होगा। अंत में मुझे भुवन जी के जवाब से निराशा हुई लेकिन भुवन जी ने मुझे यह भी आश्‍वस्‍त किया कि आपके लायक भविष्‍य में हमारे संगठन के पास कोई काम होगा तो आपको ज़रूर बुलाया जाएगा। आप सब्र रखिए और उस दिन का इंतजार कीजिए।

खैर इस साक्षात्कार के बाद मैं वापस बुलंदशहर चला गया तथा अपने घरेलू कामकाज में लग गया। विद्यार्थी जीवन में मैं कई सामाजिक कार्यक्रमों में हिस्सा लेता रहता था। नेहरू युवा केंद्र संगठन में जिला प्रशिक्षक, यूथ कांग्रेस में जिला अध्यक्ष व प्रांतीय महासचिव आदि पदों पर मैं कार्य कर चुका था। इस कारण जिला बुलंदशहर में मेरी अच्‍छी खासी जान-पहचान थी।

तमाम निराशाओं को छोड़कर मैं लोगों से मिलने-जुलने में लग गया लेकिन बीच-बीच में दिल्ली स्थित बीबीए के ऑफिस में कॉल भी कर लेता कि मेरे लायक कुछ काम बना या नहीं? इस व्यस्तता में कब मार्च से जुलाई आ गया मुझे पता भी नहीं चला। जुलाई 2007 के पहले सप्ताह में मुझे बीबीए के दिल्ली ऑफिस से कॉल आया कि आपको फाइनल इंटरव्यू के लिए दिल्‍ली आना है। मैं बहुत खुश हुआ।

दूसरे सप्ताह में दिल्ली आया और भुवन जी के समक्ष एक बार फिर प्रस्तुत हुआ। सच कहूं तो मेरा आत्मविश्वास उनके सामने डगमगा गया था तथा बहुत नर्वस हो गया था। भुवन जी ने छूटते ही मुझसे पूछा, “पिछली नौकरी में आपकी सैलरी क्या थी?” मुझे किसी हाल में सत्‍यार्थी आंदोलन से जुड़ना था इसलिए मैंने भी जवाब दिया कि “आप पिछली सैलरी को छोड़िये, जो आप देंगे उसी में मैं ज्‍वाइन कर लूंगा।”

हालांकि जो सैलरी उन्‍होंने मेरे लिए तय की थी, वह पिछली से काफी कम थी। फिर भी मैंने तुरंत हां कर दी क्योंकि मैं हर हाल में भाई साहब और भाभी जी ( सत्यार्थी जी को सभी लोग प्यार से भाईसाहब व उनकी धर्मपत्‍नी श्रीमती सुमेधा कैलाश को भाभी जी कहते हैं ) से जुड़ना चाहता था। मेरा जवाब सुनकर भुवन जी ने मेरा चयन कर लिया। इस प्रकार सत्‍यार्थी आंदोलन से जुड़ने का मेरा सपना पूरा हुआ।

(लेखक प्रोग्रेसिव डेमोक्रेटिक पार्टी के अध्यक्ष हैं)

 

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