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क्या फांसी, समाज में होते जघन्य अपराधों को रोकने का एकमात्र उपाय है?

क्या फांसी, समाज में होते जघन्य अपराधों को रोकने का एकमात्र उपाय है?

हमारे आज़ाद भारत के इतिहास में, जो महज़ 70-72 सालों का ही है अब तक, ना जाने कितनी ही महिलाओं ने सामाजिक-पारिवारिक जीवन की घुटन से तंग आकर स्वयं को पंखा पर लटकाकर आत्महत्या को गले लगा लिया होगा और ना जाने कितनी ही महिलाओं की हत्या लोगों ने फांसी लगाकर कर दी होगी।

परंतु, अपने देश में आज तक किसी महिला को उसके आपराधिक कृत्य के लिए फांसी की सजा नहीं दी गई थी। औपनिवेशिक शासन के दौरान, अंग्रेजी शासन ने कई महिला क्रांतिकारियों को फांसी की सजा देने के लिए उस दौर में सन 1871 में मथुरा में पहला महिला फांसीघर बनाया था, लेकिन महात्मा गांधी और अन्य नेताओं के विरोध में अंग्रेज सरकार किसी भी महिला क्रांतिकारी को फांसी की सजा नहीं दे पाई, उनकी सजा उम्र कैद तक ही सीमित रखी गई।

 शबनम देश की पहली महिला हैं, जिन्हें फांसी की सज़ा सुनाई है 

औपनिवेशक दौर में महिलाओं को फांसी देने के लिए जिस फांसीघर को बनाया गया। अब शायद इसका इस्तेमाल पहली बार हो सकेगा, क्योंकि अपने सम्पूर्ण परिवार की जघन्य हत्या कांड करने के आरोप में अमरोहा की शबनम को न्यायालय के द्वारा फांसी की सज़ा सुनाई गई है।

शायद, इसलिए क्योंकि इसके पहले दो बहनों रेणुका शिंदे और सीमा गावित को नवजात बच्चों के अपहरण और हत्या के जुर्म में फांसी की सज़ा दी जा चुकी है। देश के पूर्व राष्ट्रपति स्व. प्रणव मुखर्जी ने इन दोनों बहनों की दया याचिका खारिज कर दी थी, पर अभी तक इन दोनों बहनों का डेथ वारंट जारी नहीं किया जा सका है। अमरोहा की शबनम को न्यायालय द्वारा फांसी की सज़ा  सुनाई देने पर उसका भी डेंथ वारंट अभी तक जारी नहीं हुआ है।

देशभर में ना जाने ऐसे कितने ही मामले लंबित पड़े हैं, जिसमें महिलाओं के जघन्य अपराध शामिल हैं। जिसमें पूरे देश को हिला कर रख देने वाले प्रधानमंत्री राजीव गांधी हत्याकांड भी शामिल है। नलिनी श्रीहरण इस हत्याकांड में शामिल थीं, न्यायालय में कई बार उन्हें फांसी देने की मांग हुई, लेकिन गांधी परिवार की उदारता का उन्हें लाभ मिला।

इसी लिस्ट में कभी चम्बल बीहड़ की बागी फूलन देवी और सीमा परिहार का भी नाम था, पर उन्हें आत्मसमपर्ण करने का फायदा मिला। शबनम के मामले में उसको किसी भी तरह की उदारता का लाभ नहीं मिल सका है, हालांकि शबनम के बेटे ने राष्ट्रपति से फांसी की  सज़ा माफ कर उसे उम्रकैद में बदलने की गुहार लगाई थी।

अमरोहा की शबनम को फांसी मिल जाने के बाद हिंदुस्तान में एक नई किस्म की बहस शुरु हो जाएगी, इससे कोई  इंकार नहीं कर सकता है। महिला अपराधों के संगीन मामलों की जिरहों में कोर्ट रूमों में अमरोहा की शबनम का नाम बतौर नज़ीर पेश किया जाएगा। (वैसे नज़ीर तो बहनें रेणुका शिंदे और सीमा गावित का भी पेश किया जा सकता है कि फांसी की सज़ा मिलने के बाद, अब तक डेंथ वारंट क्यों नहीं जारी किया जा सका।)

शबनम की फांसी ना केवल नज़ीर बनेगी, कहने वाले यह भी कह सकते हैं कि यह सज़ा महिला अपराधियों में अपराध के प्रति भय का काम करेगी। महिला अपराधों को रोकने में भी यह अपनी भूमिका निभा सकेगी, यह कहना थोड़ी जल्दीबाजी होगी, क्योंकि कई बार अपराध सनक या हमारी मानसिक मनोवृत्तियों का भी प्रतिफल होता है।

आखिरकार शबनम को किस अपराध की इतनी संगीन सज़ा मिली है? 

आजादी के बाद अब तक यदि किसी महिला अपराधी को अगर सरकार द्वारा फांसी दे दी गई होती, तो यह भी हो सकता था कि कई महिला अपराधियों को उनके अपराधों की अब तक यह सज़ा मिल भी चुकी होती। बहरहाल, अगर हम शबनम के मामले पर वापस लौटें तो अमरोहा की शबनम ने अप्रैल 2008 में अपने प्रेमी के सहयोग से अपने पूरे परिवार को मौत दे दी।

पहले शबनम ने चाय में जहर देकर परिवार के सदस्यों की जान ली। उसके बाद अपने प्रेमी सलीम को बुलाकर सबका कुल्हाड़ी से गला काटकर मार डाला। इस घटना को उसने इसलिए अंजाम दिया, क्योंकि घर वाले शबनम की शादी सलीम से कराने को तैयार नहीं थे। शबनम को जब अपने किए हुए अपराध का अपराधबोध हुआ तब तक सब कुछ खत्म हो चुका था। यह मामला 2008 से लेकर अब तक निचली अदालत से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक हिचकोले खाता रहा, उसके बाद यह राष्ट्रपति के पास दया याचिका के लिए भी पहुंचा पर कोर्ट की  सज़ा सभी जगहों पर मुकर्रर रही।

वैसे, अभी शबनम की फांसी की सज़ा की तारीख तय नहीं हुई है। डेथ वारंट निकल जाने के बाद फांसी की तारीख और समय तय होगा। गौरतलब है कि शबनम से लेकर आज तक के दौर में जब महिलाएं शायद ही ऐसा कोई क्षेत्र होगा, जहां वे अपनी कामयाबी का परचम नहीं लहरा रही हैं। इस दौर में एक महिला अपराधी को उसके जघन्य अपराध के लिए सज़ा-ए-मौत की सज़ा सुनाना, पीड़ा देता है।

शबनम की फांसी की सज़ा, देश की न्यायिक व्यवस्था पर कई सवाल उठाती है   

हालांकि, शबनम की फांसी हमारे लिए कई सवाल भी खड़े करती है और कई सवाल छोडती भी है। मसलन, क्या इस तरह के केसों में उदारता दिखाने का मतलब है? ऐसे महिला अपराधियों के दूसरे केसों को बढ़ावा देना या समाज में ऐसे अपराधियों को निडर बनाना।

जब देश के कानून में सज़ा की व्यवस्था जब सभी श्रेणियों में समांतर रूप से है तो स्त्री-पुरुष में अब तक भेद क्यों किया जाता रहा? क्या शबनम की फांसी सचमु़च महिलाओं से जुड़े अपराधों को रोकने की गारंटी दे सकती है? क्या सचमुच शबनम की फांसी महिला अपराधियों के लिए एक सबक का काम करेगी? पूरे भारत में महिलाओं से ऐसे अपराधों से जुड़े बहुतेरे मामले हैं,  क्या मात्र एक फांसी से ही इन सब प्रश्नों के जवाब जुड़ें हैं ?

इन तमाम सवालों का जवाब हमें मिले या ना मिले लेकिन, इतना तो तय है कि इस फांसी को महिला अपराधों से जुड़े हर मामलों में नज़ीर बनाया जाएगा। शबनम की फांसी महिला अपराधों से जुड़े मामलों में फांसी की सज़ा महिलाओं में डर पैदा करेगी या सफल संदेश का वाहक बनेगी, यह कहना अभी दूर की कौड़ी लाने के बराबर है।

क्या महज़ अंतत: फांसी, किसी भी अपराध को रोकने का एकमात्र उपाय है? इस सवाल पर समाज, अपराधशास्त्र और न्यायविदों को गंभीरता से विचार करने की जरूरत है, क्योंकि यह सज़ा मेसोपोटामिया सभ्यता के “जैसे को तैसा” सिद्दांत आंख के बदले आंख, हाथ के बदले हाथ और कान के बदले कान जैसा प्रतीत होती है।

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