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लोकतांत्रिक देशों के मौजूदा हालात क्या कोई बड़े संकट की आहट है?

आज दुनियाभर के लोकतंत्र पर नज़र डालें तो लोकतंत्र प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से भावनात्मक और बुनियादी मुद्दों के बीच पिसता नजर आ रहा है। असहमति होना लोकतंत्र को बनाए रखता है।

मगर वह असहमति कैसी हो? उससे मानवीय लोकतांत्रिक मूल्यों को तो घात न हो ये, सब तब न्याय के नजरिये से देखा/समझा जा सकता है। जब लोकतांत्रिक ढांचे में स्वतंत्रता, समानता, न्याय के आदर्शों पर स्थापित कानूनों के अनुरूप विचार, व्यवहार और न्याय हो।

जनता के बीच भी गैर-लोकतांत्रिक विचारों का प्रभाव बढ़ा है

अमेरिका, रूस और म्यांमार के लोकतांत्रिक इतिहास में हाल में हुई घटनाएं एक बड़ा प्रश्नचिन्ह खड़ा करती है कि विश्व में अभी तो लोकतांत्रिक देशों के हालात कुछ हद तक स्थिर हैं लेकिन भविष्य में कहीं लोकतंत्र पर प्रश्नचिन्ह न लग जाए?

इसलिये कि आज दोबारा से आम जन के बीच कट्टरवाद के कारण गैर लोकतांत्रिक विचार उत्पन्न होने लगे हैं, ताकि उसके जरिये दूसरी विचारधारा को मानने वाले, अल्पसंख्यकों और वंचितों के हक-आवाज़ को दबाकर अपना वर्चस्व बनाया जा सके।

अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के सैन्य इस्तमाल द्वारा लोकतांत्रिक चुनाव व्यवस्था को बाधित करने की तमाम अफवाहों के बीच अमेरिकी इतिहास में 6 जनवरी 2021 की घटना निंदनीय है। ट्रम्प का पहला ऐसा राष्ट्रपति बनना जिसे महाभियोग द्वारा हटाने की कठोर ज़रूरत महसूस किया गया।

दूसरे देशों पर हावी होने वाले महाशक्तियों का आंतरिक कलह

इन सबके बीच अगर अमेरिका अपने लोकतांत्रिक ढांचे को बचा पाया तो वो अमेरिकी संस्थाओं के लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति समर्पन, पारदर्शिता और उसकी स्वतंत्रता पर सरकार का प्रभाव न होना बड़ी वजह है। रूस में भी लोकतंत्र कुछ ऐसा है। लगातार कई सालों से रूस के राष्ट्रपति पद पर काबिज व्लदीमिर पुतिन पर यूं तो चुनावों में धांधली के आरोप लगते रहे हैं लेकिन प्रमुख विपक्षी नेता एलेक्सी नवालनी को जहर दिए जाने के बाद उनके आरोप सीधे व्लदीमिर पुतिन पर ही हैं।

इसलिये कि कथित तौर पर एलेक्सी नवालनी ने व्लदीमिर पुतिन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए थे और एक वीडियो जारी कर उनकी सम्पतियों का भी ब्यौरा दिया था।

एलेक्सी नवालनी को एक स्पेशल टाइप का जहर ( नर्व एजंट ) दिया गया था। हालांकि, वो इलाज के बाद बच गए लेकिन रूस में बड़े स्तर पर प्रदर्शन तो अब शुरू हुए है क्योंकि वो जर्मनी से अपना इलाज करवाकर रूस पहुँचे थे तो उन्हें पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। उनपर आरोप लगाया गया कि उन्होंने परिवीक्षा नियमों का उल्लंघन किया है।

मगर ये ज़रूर ध्यान देना चाहिए कि जब नवालनी कोमा में थे तो वो परिवीक्षा की शर्तों के अनुसार हर महीने अधिकारियों के समक्ष हाजिर नहीं हो सकते थे। अब नवालनी को नियमों के उल्लघंन के आरोप में 3.5 साल की सजा सुना दी गई है। वहां पारदर्शिता या जो भी है सामने है। बाकी पुतिन पर पहले भी विरोधियों की हत्याओं के आरोप लगते रहे हैं।

अमेरिका और रूस के बीच सबकुछ सामान्य तो नहीं लेकिन उनके शासकों पर लोकतांत्रिक और मानवीय मूल्यों पर आघात के आरोप विश्व के लिए अच्छे संकेत नहीं हैं। तानाशाही, गैर लोकतांत्रिक, आतंकवाद या गृह युद्ध के संकटों से घिरे देशों में लोकतांत्रिक मूल्यों को स्थापित करने का दावा करने वाले अमेरिका और रूस जैसे कुछ प्रमुख शक्ति असल में अपना हित साधते हैं। इसके कारण पैदा हुआ वर्चस्व की लड़ाई में द्विध्रुवीय विश्व की स्थिति दिखाई पड़ रही है लेकिन इसका एक और एंगल भी है ।

अमेरिका और रूस के बीच मौजूदा तनाव से चीन की शी जिनपिंग के नेतृत्व वाली कम्युनिस्ट सरकार दक्षिण एशिया के अन्य देशों की सम्प्रभुता पर लगातार हावी होता दिखाई दे रहा है। दक्षिणी चीन सागर में वो खुलेआम अन्य देशों की समुद्री सीमा में घुसकर अपना शक्ति प्रदर्शन करता रहता है।

लोकतांत्रिक देश म्यांमार में सेना द्वारा तख्ता पलट

हाल में ही म्यांमार में चुनी हुई लोकतांत्रिक सरकार का सेना द्वारा तख्तापलट हुआ क्योंकि सेना द्वारा उनपर चुनावों में धांधली का आरोप लगाया जा रहा था। हालांकि, म्यामांर में कुछ वर्षों पहले ही लोकतंत्र बहाल हुआ था और इससे पहले वहां सेना का ही शासन था । सैन्य सरकार द्वारा विरोध को दबाने के लिए एक साल की देशव्यापी एमरजेंसी लगाकर मीडिया और सोशल मीडिया को बैन कर दिया गया है।

म्यांमार में हुए इस तख्तापलट को चीन से जोड़ना कोई मुश्किल बात नहीं क्योंकि म्यांमार में चीन एक बड़ा निवेशक है। अमेरिका से व्यापार में काफी प्रतिबंध झेल रहे चीन को भारत द्वारा भी कई लोकप्रिय एप्स (Apps) को बैन कर अन्य व्यापारिक गतिविधियों में भी सख्ती से झटका लग चुका है। चीन पर कोरोना के जरिये विश्व के प्रमुख देशों की आर्थिक स्थिति बिगाड़ने का आरोप भी लग चुका है।

WHO की टीम को चीन सरकार द्वारा कोरोना फैलने की जांच से रोकना और सहयोग न करना सब स्पष्ट करता है। चीन अब अमेरिका और रूस को पछाड़कर विश्व की महाशक्ति बनना चाहता है। मगर यहां एक बात ये भी है कि चीन ने One belt – One Road के जरिये अपने व्यापार को और ज़्यादा बढ़ाने की कोशिश भी की लेकिन इसके पीछे चीनी कम्युनिस्ट सरकार के साम्राज्यवादी हित छिपे हुए हैं।

चीन के अन्य देशों में बढ़ते दखल को लोकतांत्रिक व्यवस्था वाले देशों द्वारा नजरअंदाज़ करना सही नहीं। चीन पर एक आरोप तो ये भी लगा कि चीन दूसरे देशों की जासूसी के लिए उसके प्लान्टेड एजेंटों द्वारा उन प्रमुख पॉलिसी संस्थानों में भी घुसपैठ कर उनकी नीति और निर्णय को प्रभावित कर रहा है।

लोकतांत्रिक और मानवीय मूल्यों पर आघात अच्छे संकेत नहीं

अमेरिका, रूस और म्यांमार में हाल में हुई इन घटनाओं से दुनियाभर के लोकतांत्रिक व्यवस्था वाले देशों को सीख लेकर अपने लोकतांत्रिक ढांचे को मजबूत करने की कोशिश करनी चाहिए। अगर मौजूदा हालात को देखा जाए तो स्थिति बिल्कुल विपरीत है। जिसका निष्कर्ष अंततः मानवीय मूल्यों के विपरीत होता है, क्योंकि छद्म राष्ट्रवाद और सम्राज्यवाद साथ-साथ चलते हैं।

परिणाम युद्ध, गृहयुद्ध, अघोषित तानाशाही और फिर दमन के लिए या उसके प्रतिकार में अलगाववाद और आतंकवाद को सर उठाते हम कई देशों में देख चुके हैं। ऐसा कुछ इस कारण भी है क्योंकि हम सामाजिक, नैतिक, मानवीय मूल्यों की बजाय धार्मिक मुद्दों, आर्थिक और राजनीतिक वर्चस्व के हितों को अधिक महत्व देते हैं।

जिसके कारण विशेषज्ञ या काबिल लोग उस व्यवस्था का हिस्सा नहीं बन पाते और समान हितों या समान विचारधारा के लोग शासन में आ जाते हैं। फिर जो सब भी है, आज हम देख सकते हैं कि कैसे वैश्विक पटल पर लगभग हर देश में सत्ता पर काबिज़ लोग या तो मानवधिकारों के हनन के आरोपों से घिरे हैं, भ्रष्टाचार या फिर कानूनों का दुरुपयोग तो एक बड़ा मुद्दा है ही।

राजनीतिक के साथ अगर सामाजिक लोकतंत्र न हो तो वह अधिक समय तक नहीं चल सकता

गांधी जी के विचारों ने तो अन्य देशों को प्रभावित किया ही लेकिन बाबासाहब डॉ० भीमराव अंबेडकर जी ने 25 नवम्बर 1949 को भारत की संविधान सभा की अंतिम बैठक के अपने भाषण में भारतीय लोकतंत्र के बारे जो कहा था वो आज विश्व के सभी लोकतांत्रिक व्यवस्था वाले देशों के लिए महत्वपूर्ण हो गया है। उन्होंने इस भाषण में कहा था कि “हम महज राजनीतिक लोकतंत्र से ही संतुष्ट न हो जाएं।

हम अपने राजनीतिक लोकतंत्र को सामाजिक लोकतंत्र भी ज़रूर बनाएं। जब तक राजनीतिक लोकतंत्र के आधार में सामाजिक लोकतंत्र न हो, वह राजनीतिक लोकतंत्र अधिक समय तक नहीं चल सकता।” यह बात सिर्फ भारत पर ही नहीं अपितु किसी भी देश के लोकतंत्र पर लागू होता है।

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