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मर्दानगी की परिभाषा पुरुष हो या स्त्री, दोनों ने मिलकर अपने-अपने हिसाब से गढ़ा है

“रो क्यों रहे हो? सिमपेथी चाहिए?” उसके कहे उन शब्दों ने मेरे आंसू सूखा दिए और वहीं से मेरे सारे इमोशंस का कत्ल हो गया। आज मैं अपनी कहानी लिख रहा और बताता हूं कि कैसे मेरे अंदर पितृसत्ता या मर्दानगी को जीने वाला जज़्बा प्रवेश हुआ?

जब एक अनकहे प्यार में दूरियां बढ़ती गई

आज हम पितृसत्ता की बात करते हैं लेकिन कभी-कभी कुछ हादसे आपके जीवन में आपको कठोर बनने पर मज़बूर करते हैं। लड़के यूं ही नहीं अपने आप को मर्दानगी या मर्द की केटेगरी में डालते हैं। कहीं न कहीं कुछ हादसे ऐसे होते हैं कि उसके अंदर के तालाब या आंखों को हमेशा के लिए सूखा कर के चले जाते हैं।

मेरी एक दोस्त थी जो मेरे साथ बी टेक में साथ पढ़ती थी। उससे मेरी बहुत गहरी दोस्ती थी। वो मेरी दोस्त ही नहीं, सबकुछ थी लेकिन एक जाति के ना होने के चलते मैं यह कभी उससे कह नहीं पाया कि मैं उसे चाहता हूं। संबंध को सिर्फ दोस्ती तक ही सीमित रखा। जब मेरा बीटेक खत्म हुआ तो वो कहीं नौकरी में लग गयी और मैं तैयारी में जुटा हुआ था। मगर मेरा उससे लगाव इतना ज़्यादा था कि ये उसकी स्वतंत्रता छीनने लग गया।

मुझे भी यह पता नहीं था कि मैं उसकी आज़ादी छीन रहा हूं और एक दिन हम दोनों के रिश्ते का अंत हो गया। मैं डिप्रेशन में चला गया और मुझे करीब आठ महीने लगे उस डिप्रेशन से बाहर आने में। वो भी डॉक्टरी सलाह से। मेरी उस डिप्रेशन के बीच बहुत अनबन हुई। हमारा रिश्ता और भी बिगड़ा और हम दोनों एक दूसरे की ब्लॉक लिस्ट में जा चुके थे।

भावुक इंसान से एकदम कठोर बन गया

करीब दो साल बाद अचानक उसने मुझे जन्मदिन की शुभकामनाएं दी लेकिन उसके साथ-साथ यह भी लिखा कि “जीवन में रोकर सिमपेथी लेने से अच्छा है कि मर्द बनो। अब मुझे कॉल करके मत रोना क्योंकि अब तक बहुत सिमपेथी ले ली लेकिन अब ये नाटक नहीं चलेगा।”

उसके उस मैसेज ने मुझे अंदर तक हिलाकर रख दिया। मैं सोचने लगा कि अब तक जो कुछ मैंने किया, जो सोचा, उससे मिलना, उससे प्यार जताना सब एक सहानुभूति के लिए किया? अब तक मैं इसकी फिक्र करता था। इससे मिलने के लिए दूर तक चला आता था सिर्फ एक झलक पाने के लिए, क्या वो सब एक सहानभूति थी? उस दिन से मैं इतना टूटा कि उसके बाद मेरे ना कभी आंसू बहे और ना ही कभी दिल टूटा।

अब अगर किसी लड़की के साथ कुछ गलत भी होता है तो मुझे फर्क नहीं पड़ता। मैं इग्नोर करते हुए आगे बढ़ जाता हूं। जब मैंने अपने दोस्तों को बताया तो उन्होंने भी यही कहा “क्या लड़कियों की तरह आंसू बहाया करता है? मर्द बनो। ये लड़कियां किसी की भी सगी नहीं होती”। उन्होंने कहा कि मैंने ही गलती की। मुझे खुद उसे छोड़कर चला जाना चाहिए था लेकिन मैं बेबस ही सिसियाता रहा।

हर मर्ज की दवा सिर्फ मर्दानगी?

समाज में जहां कहीं भी मैंने अपनी कहानी किसी को बताई तो वहां भी मुझे सिर्फ मर्दानगी के लिए उकसाया गया। वहीं से मैं सख्त और भावहीन हो गया। ऐसे ना जाने कई हादसे हुए मेरी ज़िन्दगी में जहां लड़कियां और महिलाओं ने ही ताने मारे। एक-दो महिलाओं ने तो यह तक कहा कि अगर तुम लड़कियों को सेटिस्फाई नहीं कर सकते हो और उसको ज़्यादा देर तक बिस्तर पर नहीं रख सकते तो तुम मर्द नहीं हो।

मर्दानगी की परिभाषा किसी एक लिंग ने नहीं बल्कि दोनों लिंग पुरुष हो या स्त्री सबने अपने हिसाब से तय की है।

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