जो लोग उन गरीबों के लिए कहते हैं कि “21 दिन का भी जब राशन नहीं जुटा पाए, इतनी भी बचत नहीं कर सकते तो दिल्ली-बंबई क्यों जाते हैं? घर पर रह कर खेती-बाड़ी क्यों नहीं करते? इस तरह के सवाल उठाने वालों, सबसे पहले तो यह बताओ कि तुमसे किसने कह दिया कि जितने लोग बड़े शहरों में मजदूरी करने जाते हैं उनके पास गांव में बाप दादाओं की हज़ारों एकड़ जमीनें हैं?
जमीनें होती तो गांव की शुद्ध हवा को छोड़़कर 200-400 रुपये दिहाड़ी के लिए कौन जाता वहां जहरीली हवा में बीवी-बच्चों के साथ मजदूरी करने? कौन जाता घर की लंबी-चौड़ी बाखर छोड़कर किराए के छोटे-छोटे दड़बों में भेड़-बकरियों की तरह जीवन जीने?
अगर अपने ही गांव मे रोजगार होता तो कौन जाता अपने बूढ़े मां-बाप को अकेला राम भरोसे छोड़कर?
ये जो पैदल पलायन कर रहे थे न! ये वो लोग थे जो बरसाती और टीन की चादरों से झुग्गी-झोपड़ी बनाकर शहरों में रहते हैं। इनका कोई ठोस ठिकाना भी नहीं होता। इनकी स्थिति जाने बिना तुमने कैसे तंज कस दिया इनपर? अब जरा ये बताएं, क्या ये स्थिति वाकई में सिर्फ 21 दिनों के लिए ही खराब थी? नहीं न?
तो अब यह भी जान लीजिए कि मंहगाई दिन ब दिन बढ़ती ही जा रही है। गरीब व्यक्ति तो क्या अच्छा-खासा आदमी बचत नहीं कर पाता। एक गरीब के भी सौ खर्चे होते हैं और आमदनी तो बहुत सीमित। इस तरह से घरों में बैठकर किसी कि स्थिति का जायजा लिए बिना तंज कसना या मखौल बनाना बहुत आसान होता है लेकिन सच्चाई जानना सबके बस की बात नहीं।
दिहाड़ी मज़दूर रोज़ कमाते हैं, रोज खर्च हो जाता है। कभी पैसा चोरी हो जाता है, तो कभी कोई बीमारी आन पड़ती है तो कभी कोई ठग लेता है। बहुत मुश्किल से ही कभी कुछ बच जाता होगा। जिस दिन कमाई नहीं होती उस दिन खाने को भी सोचना पड़ता है। फिर इनमें से कई लोग बचत करके बूढ़े मां-बाप के लिए घर भी भिजवा देते हैं।
एक आदमी दो-दो परिवारों को पालता है। एक शहर में और एक अपने गांव में। बचत कहां से करेगा? इसीलिए मैं ऐसे कथनों का कतई समर्थन नहीं करता और लोगों से भी अपील करता हूँ कि किसी की स्थिति को समझे बिना बोलना या लिखना सही नहीं होता। मजबूर व्यक्तियों को नसीहत की नहीं अपितु सहायता कि ज़रूरत होती है। यदि वह न कर पाओ तो उसकी निंदा करने से पहले सौ बार सोच लेना आवश्यक है।
हर वर्ग की अपनी-अपनी समस्याएं होती हैं। जो समस्या हमारे लिए तुच्छ या सामान्य होती हैं, वही समस्या हमसे भी निम्न आर्थिक स्थिति वालों के लिए पहाड़ जैसी होती है। ठीक उसी प्रकार हमारी समस्या हमसे उच्च आर्थिक वर्ग वालों के लिए मामूली बात होती है परंतु हमारे लिये बहुत बड़े असम्भव से दिखने वाले लक्ष्य की तरह होती है।
उदाहरण स्वरूप विदेश यात्रा करना हम में से बहुत से लोगों के लिए एक ख्वाब जैसा होता है जिसे जीवन में एक बार सभी पूर्ण करना चाहते हैं। मगर अमीर लोग आए दिन हवाई जहाज में बैठ अलग-अलग देशों में छुट्टियां बिताने या मन बहलाने यूं ही आया-जाया करते हैं। ठीक वैसे ही गरीब किसी बड़े होटल में परिवार सहित भोजन करने को भी एक ख्वाब मानकर जी रहा होता है।
मगर हम जैसे लोगों को आए दिन किसी अच्छे हॉटल या रेस्तरां में कभी भी पार्टी करने का मौका मिल जाता है। आर्थिक रूप से हर वर्ग की स्थिति अलग है। जो काम हमारे लिए आसान है वो शायद उनके लिए न हो। इसीलिए हम उनकी विफलताओं पर टीका टिप्पणी करने की बजाय ये सोचें कि ऐसी स्थिति में उनकी मदद कैसे की जाए तो ज्यादा बेहतर होगा।
आपको पढ़ने-सुनने वालों को भी सकारात्मक ऊर्जा का एहसास होगा और आपको भी अनजाने में हो रही मौखिक हिंसा से खुद को बचाए रखने का लाभ मिलेगा।
धन्यवाद
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