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म्यांमार में सैन्य और सरकार का मिलाजुला लोकतंत्र

पूरे म्यांमार में लोकतंत्र की बहाली के समर्थन में बड़े स्तर पर हड़तालें और शांतिपूर्ण व कई जगह हिंसक प्रदर्शन हो रहें हैं, जिस पर सेना के द्वारा की गई कार्यवाही में दर्जनों लोगों की मौत की खबरें भी सामने आ रही हैं। 

जनता द्वारा सेना के साथ असहयोग का एलान व तमाम विरोध प्रदर्शनों-झड़पो के बीच सैन्य सरकार द्वारा 1 साल तक के आपातकाल की घोषणा की गई है और फिलहाल के लिए सड़कों पर सेना उतारने के साथ ही कर्फ्यू लागू किया गया है।

सामने आई कुछ तस्वीरों में विरोध-प्रदर्शन का समर्थन कर रहे लोग अपनी 3 अंगुलियों का इशारा कर लोकतंत्र की बहाली की मांग करते नजर आ रहे हैं। लेकिन सेना द्वारा तख्तापलट और जनता पर प्रदर्शन करने के विरोध में कार्यवाही और अत्याचार कोई नई बात नहीं है, म्यांमार का स्वयं का इतिहास लोकतंत्र की मांग और सैन्य शासन के बीच के संघर्ष से भरा पड़ा है।

म्यांमार में तख्तापलट का इतिहास 

वैसे, म्यांमार के इतिहास में लोकतंत्र कुछ ऐसा रहा है कि 1962 के तख्तापलट के बाद संवैधानिक संस्थाओं को खत्म करने के बाद 1988 तक म्यांमार में सैन्य शासन चला। 1988 के चुनावों में पूर्ण बहुमत लेने वाली म्यांमार सरकार के राष्ट्रपति की बेटी आंग सान सू की द्वारा दो साल तक लोकतांत्रिक शासन संभालने के बाद अचानक 1990 में हुए तख्तापलट के बाद  से 2010 तक चले सेना के सैन्य शासन के दौरान उन्हें नजरबंद रखा गया था।

लोकतांत्रिक मूल्यों के साथ अन्याय करता म्यांमार का लोकतंत्र

साल 2008 में दुनिया भर के तमाम देशों से पड़ रहे अप्रत्यक्ष दबाव के बीच सैन्य शासन द्वारा लोकतंत्र के लिए नए संविधान की घोषणा करते हुए, नए संविधान के जरिये म्यांमार में सेना के वर्चस्व को बनाए रखने के लिए म्यामांर की सैन्य सरकार में सेना के लिए गृह मंत्रालय, सीमा सुरक्षा व रक्षा मंत्रालय, म्यामांर के निचले सदन ( हलुटाव ) में 25 फीसदी सीटों को आरक्षित कर दिया गया।

सेना को असीमित अधिकार देने, कानूनी कार्यवाही से बचाव के साथ ही सेना के कमांडर-इन-चीफ को देश की सर्वोच्च शक्ति बना दिया गया, जिसे देश के राष्ट्रपति के फैसलों को बदलने के अधिकार के साथ ही एक ऐसा अजेय  अधिकार भी दे दिया गया था। जिसके द्वारा कमांडर-इन-चीफ जब चाहे लोकतांत्रिक सरकार से अविश्वास होने पर सत्ता अपने हाथों में ले सकता है। 

दरअसल,कहने को तो म्यांमार में लोकतंत्र है लेकिन लोकतंत्र में सेना का राजनीतिक मामलो में दखल लोकतंत्र के लिए बेहतर नही होता और म्यांमार में तो प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से सेना लगभग वहां हर मामले में दखल देती हुई  दिखाई देती है। इसी संविधान में एक कानून बनाया गया था की ‘ कोई भी व्यक्ति जिसका विवाह किसी विदेशी नागरिक से हुआ हो, वो देश का राष्ट्रपति नही बन सकता है’।

इसी कानून के जरिये आंग सान सू की को राष्ट्रपति पद से दूर रखने की अप्रत्यक्ष कोशिशों के बीच आंग सान सू की व उनकी पार्टी ( नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी ) के प्रमुख नेताओं ने 2010 में सैन्य शासन खत्म होने के बाद लोकतांत्रिक प्रक्रिया से हो रहे 2010 में हुए चुनावो में पक्षपात करने के आरोप के साथ इन चुनावों का बहिष्कार किया था । इन चुनावों में सैन्य समर्थित सेना के पूर्व जनरल थेंन शिन की पार्टी ‘ यूनियन सोलिडेरिटी एन्ड डेवलपमेंट पार्टी ‘ ( जिसके अधिकतर नेता सेना के पूर्व बड़े अधिकारी थे ) ने जीत दर्ज की । जिसके बाद 2015 में हुए चुनावों में आंग सान सू की की पार्टी ने एक बड़े अंतर के साथ जीत दर्ज की जिसकी सरकार 2020 तक चली ।

नवम्बर 2020 में हुए आम चुनावों में आंग सान सू की की पार्टी ने 83% जीतकर बहुमत हासिल किया । सैन्य समर्थित सरकार को इस चुनाव में 476 सीटों में से केवल 33 सीट पर जीत मिली। जिसके बाद सेना ने लोकतांत्रिक तरीके से चुनी सरकार पर चुनाव में धांधली के आरोप लगाने शुरू कर दिए और 31 जनवरी की आधी रात को सेना ने तख्तापलट कर देश की सत्ता अपने हाथ मे ले ली ।

फिलहाल म्यांमार में हालात

म्यांमार में सेना द्वारा तख्तापलट के बाद सैन्य सरकार के गठन करने के साथ ही सेना के कमांडर इन चीफ मिन ऑन लाइंग को देश का प्रभारी व उपराष्ट्रपति मिंट स्वे ( पूर्व सेना कमांडर ) को कार्यकारी राष्ट्रपति बनाया गया ।

गौरतलब है कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया से चयनित राष्ट्रपति व प्रधानमंत्री आंग सान सू की व उनके कुछ करीबी और मंत्री फिलहाल हिरासत में हैं, और उनके बारे में अब तक कोई जानकारी नहीं है कि वे कहां और किस हालात में हैं। 

म्यांमार में सेना द्वारा लोकतांत्रिक रूप से हो रहे विरोध-प्रदर्शनों को दबाने के लिए प्रदर्शनों को गैर कानूनी बताने के साथ ही उन्हें दबाने की कोशिश की जा रही है ।


पुलिस रिपोर्ट में आंग सान सू की पर गैर कानूनी रूप से वॉकी टॉकी जैसे उपकरण रखने व राष्ट्रपति पर कोविड महामारी के दौरान लागू किए गए कानूनों की पालना ना करने का आरोप लगाया गया है, लेकिन इन आरोपों के  आधार क्या हैं? और इसके जरिये सैन्य शासन के किन हितों को साधने की कोशिशें की जा रही हैं, ये किसी से छुपी भी नहीं हैं।

G7, न्यूजीलैंड, बांग्लादेश व नेपाल की इस कार्यवाही पर प्रतिक्रिया

इस पर जी 7 देशों ने भी तख्तापलट की अपने शब्दों में कड़ी निंदा की है व अमेरिका द्वारा म्यांमार में सैन्य शासन के किए गए इस तख्तापलट पर अपनी कड़ी प्रतिक्रिया दर्ज कराई गई है, अमेरिका ने चेतावनी दी है कि यदि सेना द्वारा लोकतंत्र को बहाल नहीं किया गया तो उसे कड़े प्रतिबन्धों का सामना करना होगा।

न्यूजीलैंड ने म्यांमार की सेना के इस तख्तापलट के विरोध में म्यांमार से अपने राजनीतिक सम्बन्धों को खत्म करने के साथ ही  अपने म्यांमार के साथ सैन्य सम्बन्धों को भी निलम्बित कर दिया गया है। बांग्लादेश और नेपाल द्वारा भी म्यांमार में शांति और स्थिरता का आह्वान किया गया है और उम्मीद जताई कि म्यांमार में मौजूदा घटनाक्रम से रोहिंग्या शरणार्थियों की वापसी पर असर नहीं पड़ेगा ।

चीन की प्रतिक्रिया

इस मामले पर चीन की मंशा साफ दिखाई दे रही है, चीन ने पहले भी रोहिंग्या मुद्दे पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में म्यांमार का बचाव किया था और अब भी चीन ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की अहम बैठक में अपनी वीटो की शक्ति का इस्तेमाल करते हुए म्यांमार का बचाव किया जिससे कि बैठक में सहमति नही बन पाई। चीन म्यांमार में एक बहुत बड़ा निवेशक है और चीन के लिये म्यांमार आर्थिक दृष्टि से तो महत्वपूर्ण है ही साथ ही इस सब में चीन की विस्तारवादी नीतियां भी छुपी हैं।

म्यांमार पर भारत और चीन का समान रुख

म्यांमार से जुड़े हर फैसले में भारत की हमेशा से म्यांमार के साथ अपने रिश्ते बेहतर बनाने की कोशिशें रहीं हैं, क्योंकि म्यामांर थाईलैंड और अन्य देशों के एक द्वार होने के साथ-साथ भारत के पूर्वोत्तर के विकास व भारत की कूटनीतिक, रणनीतिक व सुरक्षा की नजर से अहम है ।


म्यांमार और भारत आपस में 1643 किमी की सीमा साझा करते हैं, इन सीमाओं पर चीन समर्थित कुछ अलगाववादी, उग्रवादी व राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरे वाले समूह भी हैं, जिन पर नियंत्रण के लिए भारत और म्यांमार की सेना ने मिलकर कई ऑपरेशनों को अंजाम भी दिया है। म्यांमार की सेना और भारत की सेना के बीच एक अच्छे रिश्ते कायम करने की कोशिशें लगातार होती रहीं हैं, जिसका एक उदाहरण वहां के तख्तापलट पर भारत का बयान भी है ।

इस मामले पर भारत और चीन का रुख लगभग एक जैसा ही है। म्यांमार में हुए तख्तापलट पर नरम रुख अपनाना इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि सिर्फ म्यांमार में लोकतांत्रिक व्यवस्था को बहाल करने के लिए भारत की कूटनीतिक , रणनीतिक और आंतरिक सुरक्षा के साथ खिलवाड़ नही किया जा सकता है। 

म्यांमार में कहने को तो लोकतंत्र है, लेकिन 2008 में सैन्य शासन के दौरान बने संविधान में सेना को असीमित शक्तियां प्रदान हैं जिसके कारण यह भी कहा जा सकता है कि वहां लोकतंत्र होते हुए भी सत्ता के लिए गए हर फैसले पर सेना का दबाव होता है जिसका एक उदाहरण अंतरराष्ट्रीय आलोचना होने पर आंग सान सू की द्वारा रोहिंग्या मुस्लिमों पर हुए अत्याचारों को दबाने की कोशिश भी है।

म्यांमार की सेना का झुकाव यदि चीन की तरफ होता है तो यह सुरक्षा की दृष्टि से ठीक नहीं है। म्यांमार के जरिये चीन की एक मंशा भारत की बंगाल की खाड़ी तक सीधी पहुंच बनाने की भी है ।

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