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मेरी प्यारी दोस्त गौरैया

मेरी प्यारी दोस्त गौरैया

हमारे समाज में किसी भी प्राणी को लेकर खास उसके लिए एक दिन का मनाया जाना ही अपने आप में उस प्राणी के कम होते महत्त्व को दर्शाता है। आइए हम इसे दूसरे तरीके से भी समझ सकते हैं कि हमने हमने 20 मार्च को गौरैया दिवस मनाने के लिए तय किया गया है, उसके बहाने हम उस विषय पर चर्चा करें और पीछे मुड़कर देखने भी कि हमने उस दिशा में कितना सही कदम उठाया।

चाहे महिला दिवस हो या हैप्पीनेस दिवस, हम उन पर चर्चा तो करते हैं लेकिन कोई ऐसा कदम नहीं उठा पाते जिससे ऐसे दिवस मनाने की आवश्यकता ही ना पड़े। आज विश्व गौरैया दिवस है, इस बहाने ये बात निकल आई, कभी हर घर की खुशहाली का एक अंग थी गौरैया और घर के दो-चार कोनों में उनके घोंसले मिल ही जाते थे।

सुबह होते ही आँगन में चावल के दानों के पास उनका झुण्ड पहुँच जाता और दोपहर में उनके चहकने से घर गुलजार रहता लेकिन अब हमारी इस स्थिति में बहुत बदलाव आ गया है। आप शहर की बात तो छोड़ ही दीजिए लेकिन अब गांवों में भी गौरैया की संख्या लगातार कम होती जा रही है। गाँवों में अब ना घोंसलों के लिए जगह बची है और ना ही उन्हें दाना डालने वाले लोग ही बचे हैं।

बचपन में जब हमारे आँगन में गौरैया आती थी तब मेरी मम्मी उसके लिए चावल डाल देती थीं और एक कटोरे में पानी रख देती थीं। वो वहां तो खाती ही थी साथ ही साथ कूदते-फुदकते हमारी रसोई में भी आ जाती थी। धीरे-धीरे वह गौरैया हम सबसे इतनी घुलमिल गयी कि उसे अब हमसे डर नहीं लगता था और जब मैं कभी खाना खाता तो वह मेरे आस-पास ही फुदकती रहती।

मैं अपने खाने की थाली में से उसके लिए कुछ चावल निकाल कर पास में रख देता लेकिन वह नीचे रखा चावल नहीं खाती थी और मेरी थाली में से ही चावल निकलकर खाने लगती। मैं भी चुपचाप खाता रहता और उसे इस बात का ज़रा भी डर नहीं लगता था। जब तक मैं उसे फुर्र- फुर्र करके ना उडाता तब तक वह मेरे आस-पास ही खेलती कूदती रहती थी।

लेकिन अब कुछ दिनों से यह सिलसिला कम हो गया है, वह गौरैया अब दिखती नहीं है, धीरे-धीरे गाँवों में अब उनके घोंसले भी कम दिखने लगे हैं। गांवों में अब सबका मकान पक्के हो गए हैं, अब जगह बची ही नहीं उनके लिए घोंसला बनाने को।

पशु-पक्षी हमारे पूरक होते हैं, वे हमारे जीवन का एक महत्वपूर्ण अंग होते हैं और हमारी बातें भी समझते हैं। वे वहीं रहते हैं जहाँ उन्हें लगता है कि वे महफूज़ हैं।

ये गौरैया दिवस तभी सार्थक होगा जब हम ये समझेंगे कि उनका विलुप्त होना या हमारे आसपास ना रहना हमारे लिए ही हानिकारक होगा।

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