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“मेरे शिक्षक, जिन्हें भेदभाव के कारण फिर से परीक्षा पास करनी पड़ी थी”

दलित यानि क्या? आमतौर पर ‘दलित’ शब्द को हम, अनुसूचित जनजातियों से जोड़कर देखते हैं या कहें हम इस शब्द को सुन सुनकर, इसके इतने आदी हो चुके हैं कि हम सीधा और साफ सा वही मतलब निकाल बैठते हैं।

मूलाधिकारों से दलित वंचित क्यों?

दरअसल दलित का मतलब है समाज की मुख्यधारा से वंचित कोई भी ऐसा व्यक्ति जिसका हक छीना गया हो, जिसे दबाने, शोषित करने की कोशिश की गई हो मगर आप कहेंगे हमने, हमारे संविधान ने समाज की मुख्यधारा से वंचित, शोषितों एवं पीड़तों के सरंक्षण एवं उनके संवर्धन के लिए सबसे ज़्यादा अधिकार तो दलितों को ही दे रखे हैं।

हां, यह सच है लेकिन विचार कीजिए कि संविधान में देश के नागरिकों के लिए ऐसे अधिकारों की आखिर जरूरत ही क्यों रही और क्या वाकई इन अधिकारों एवं संविधान के प्रावधानों ने समाज की मुख्यधारा से वंचितों को शोषण से बचाया है?

छूआछूत का गढ़ बनते स्कूल

ऐसे तो हमारे महान लोकतांत्रिक के तमगे वाले देश में दलितों के साथ छुआछूत, भेदभाव, उनके शोषण के किस्से कुछ नए नहीं हैं, लेकिन उनके साथ होते भेदभाव का सबसे बड़ा गढ़ होता है स्कूल, यानि वो केंद्र जहां हमें भेदभाव से लड़ना की शिक्षा दी जाती है। जी हां, आप ठीक पढ़ रहे हैं, मैंने अपने जीवन में वहीं सबसे ज़्यादा भेदभाव को पनपते देखा है।

हम 21वी सदी के 2021 में भले ही आ गए हों मगर दलितों के साथ होने वाले भेदभाव और छुआछूत जैसी सामाजिक बुराइयां आज भी हमारे समाज में मौजूद हैं, शायद यही वजह है कि उनके (दलित) बच्चे हायर एजुकेशन में पहुंचते-पहुंचते वापस अपने घरों की तरफ मुड़ने लगते हैं।

हर तरफ पसरा भेद-भाव का दंश

हमारे देश में गॉंवों से लेकर शहरों के मोहल्ले और क्लास से लेकर प्रिंसिपल रूम तक यह भेदभाव बहुत आम है। दलित वर्ग वैसे भी सदियों से समाज के कई सामाजिक स्तरों एवं जीवन के विभिन्न प्रकर्मों में भेदभाव झेलते आ रहे हैं।

फिर चाहे वह भेदभाव सामाजिक रूप से हो, स्थानीय हो, आर्थिक हो या फिर शैक्षिक रूप से क्योंकि शहरी क्षेत्र हों या ग्रामीण परिवेश कहीं भी तस्वीर कोई खास बदली नहीं है। दोनों ही जगह उन्हें खुद को स्थापित करने के लिए उस समाज से लड़ना होता है, जो कहता है कि वो उनसे पिछड़े हैं।

तुम पढ़-लिखकर क्या करोगे?

हमारे देश एवं संविधान के मौलिक अधिकार और नैतिकता भले ही कहते हों कि हम एक हैं, लेकिन हकीकत यह है, हम और मैं (सवर्ण/दलित)  में आज भी एक बहुत बड़ा अंतर है।

वह बच्चे जिन्हें हम दलित वर्ग का हिस्सा कहते हैं और यहां-वहां बैठकर उन्हें लेकर आसानी से यह कह दिया जाता है कि तुम आरक्षित हो, तुम्हें क्या फिक्र, तुम्हारे बच्चों को तो भत्ता मिलता होगा? तुम मेहनत करके पढ़-लिखकर क्या करोगे?

भेदभाव नहीं परिवेश समझा जाए

वहीं, पढ़ने-लिखने से भी कई बार समाज के सामाजिक स्तर की असल तस्वीर नहीं बदला करती है, जहां एक ओर उन्हें शिक्षकों द्वारा मुंह खोलकर कह दिया जाता है कि “तुम तो भंगी हो, मेहतर हो? नीच जात हो” और समझा जाता है कि अरे वे बच्चे तो छोटे हैं क्या समझेंगे लेकिन वे इस भेदभाव को समझते भी हैं और महसूस भी कर पाते हैं।

भले ही एक शिक्षक यह ना समझे कि उनका परिवेश इतना कठिन क्यों होता है कि उन्हें किताबों और घर के बीच की खाई को पाटने में एक पूरी उम्र लग जाती है।

उच्च होने पर भी हीन की ग्रन्थि क्यों ?

जब किसी व्यक्ति विशेष को उसके काम, उसकी जाति के नाम पर बार-बार यह कहा जाता है कि वो निचला वर्ग का  है, वह औरों से अलग है तब स्वयं में एक हीन भावना ग्रन्थि (गांठ) बनकर उसके मन में पड़ जाती है और वो शिक्षित और उच्च पद पर पहुंचने के बाद भी खुद को समाज के सामाजिक स्तर में समान नहीं कर पाते हैं।

विचारणीय! क्या उन्हें पीछे धकेलता है?

यदि मेरी बात गलत है तब आप खुद से प्रश्न कीजिए, आप सवर्ण हैं, तब आपके दलित मित्रों की संख्या कितनी है? और यदि आप दलित हैं, तब कितने सवर्ण आपसे मित्रता रखना चाहते हैं?

उन्हें दिया जाने वाला कोई भी भत्ता या आरक्षण का उद्देश्य उन्हें मुख्यधारा से जोड़ना है ताकि वे शिक्षा, नौकरी जैसे क्षेत्र में आगे बढ़ सकें, लेकिन विचारणीय है ना आखिर ऐसा क्या है, जो इस सबके बावजूद भी उन्हें आगे कम पीछे ज़्यादा धकेलता है?

कटघरे में हम या समाज?

क्यों उनकी काबिलियत, उनके व्यक्तित्व को आज भी उनके काम, उनके ग्रेड से नहीं बल्कि उनकी जाति से आंका जाता है? हमारे पास ऐसे बहुत से उदाहरण हैं और उनका सबसे बड़ा चेहरा है रोहित वेमुला, जिनके सुसाइड नोट ने हमारे सभ्य कहलाए जाने वाले समाज एवं उसके सामाजिक स्तरों पर कई प्रश्न खड़े किए, जो हमारे इस ‘सो कोल्ड’ इलीट वर्ग को कटघरे में खड़ा करता है।

कैसे एक पढे-लिखे, पीएचडी के छात्र को हम समाज के सामाजिक शोषण के रास्ते आत्महत्या की बलि चढ़ा देते हैं, लेकिन फिर भी बदलता कुछ नहीं है ना ही कटघरा और ना ही हमारा समाज। ऐसे ही सैकड़ों उदाहरण आपके स्कूल,कॉलेज में होंगे और ऐसी ही एक घटना का ज़िक्र मैं यहां कर रही हूं।

जब कहा आप तो रिज़र्वेशन वाले है ना!

हमारे एक शिक्षक थे, मतलब कहूं तो गणित के मास्टर वाकई वो अपने विषय के मास्टर थे, जिन्होंने अपने पहले प्रयास में एमपी पी-एससी पास किया था लेकिन जब भी वो हम बच्चों को या किसी और को प्रोत्साहन देने के लिए कहते ‘देखो मैंने तो एक बार में पास कर लिया’ तब हर जगह कोई ना कोई ऐसा होता (छात्र), जो उन्हें कह देता, “सर आप तो रिज़र्वेशन वाले हैं, आप तो आसानी से सेलेक्ट हो सकते हैं।”

और वाकई हम उन्हें (दलित) इसी पैमाने पर तौलने के आदी हैं, उनका रंग, रूप, डिग्री, नौकरी। यहां तक कि उनके बोलने-पहनने के ढंग तक को हम कैटेगराइज़ करते हैं।

उन्हें जब एक उच्च परीक्षा पास करने के बाद यह सब सुनना पड़ा, तब स्कूल से लेकर अब तक उन्होंने क्या कुछ नहीं सुना होगा और आपको मेरी बात झूठ लगे तो हिंदी साहित्य के ओमप्रकाश बाल्मीकि की ‘जूठन’ ज़रूर पढ़ें।

खुद दलित सोच से लड़ते दलित

तब बार-बार यह सब सुन सुनकर उन्होंने तय किया और एक बार फिर उन्होंने एमपी पी-एससी की परीक्षा दी और पास भी की लेकिन सामान्य सीट से। मतलब उन्हें लोगों से लड़ने के लिए खुद से फिर लड़ना पढ़ा और जब मैंने उन्हें पूछा, तब उनका कहना था ‘ कम से कम मैं अब तुम लोगों (छात्रों) को बता पाऊंगा और कोई पलटकर मुझसे कह नहीं पाएगा, आप तो रिज़र्वेशन वाले हैं।’

उन्होने आगे कहा क्योंकि मैं किस-किस को बता सकता हूं कि मैंने यह पद अपनी मेहनत से पाया है। बगैर किसी कोटे (रिज़र्वेशन) के पास किया है।

क्यों समाज की दौड़ में पिछड़ते दलित

सोचिए कि एक पढा-लिखा व्यक्ति किस धारणा से लड़ रहा है और यदि अनपढ़ होगा, तब अपनी कोई धारणा वह तय ही नहीं कर पाएगा और यही वो भेदभाव है, जिससे उन्हें हर स्तर पर लड़ना होता है।

जिन्हें यह समाज मन ही मन यह कहकर नकार लेता है कि ‘वो चमार, वो मेहत्तर, वो बनेगा हमारा बॉस (फिर चाहे कॉलेज में प्रेसिडेंट इलेक्शन ही क्यों ना हों) उसकी इतनी औकात नहीं’, हमारे साथ बैठकर खाएगा? बगैरह-बगैरह।

यह बात आपको कड़वी लग सकती है लेकिन यही सच है, कभी विचार कीजिए आपके साथ पढ़ने वाले वो बच्चे जो स्कूल के शुरुआती दिनों में भत्ता लेने बैंक जाया करते थे, वो कॉलेज खत्म होते-होते क्यों कहीं खो जाते हैं? इतनी सुविधाएं, इतने प्रलोभन (पढ़ने का लालच) भी उन्हें बचा नहीं पाते।

क्योंकि हम अपने बीच रहकर भी उन्हें, उनकी ही नज़रों में इतना असहज, इतना महत्वहीन और कुंठित बना देते हैं कि वो इस दौड़ से बाहर हो जाते हैं। एक शिक्षक, एक छात्र, एक समाज के तौर पर हमें अपनी इस सोच को बदलना होगा तभी हम हर स्तर पर बराबर हो पाएंगे।

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