सलाम भी कर लेते हैं, संहार भी कर देते हैं
मत रोकना इन वीरों को, माटी पे मर मिटते भी हैं
जब धरा माँ भारती की, बात हो जग उठते हैं
माँ के आंचल-गोदी को स्नेह देना चाहते हैं
संविधान सर्वोच्च है, राजनीति का भी तक़ाज़ा है
अब कोई जयचंद ना छूटे, निज़ाम को ये ठानना है
पुलवामा की चीत्कार को, हम भूल कैसे सकते हैं?
छूट दे दो लालों को, जो बदला लेने बढ़ रहे हैं
पैरों से दब जाए, जो चींटी तो सिहर ये उठते हैं
माँ भारती पे उठी नज़र, तो उसे ख़ाक भी कर देते हैं
सर्दी, गर्मी और बारिश, इनको छूती ही नहीं हैं
भूख-प्यास भी त्याग कर, सरहद की आन रख लेते हैं
पुलवामा, करगिल, द्रास सेक्टर भूलने देना नहीं है
बढ़ गए रणबांकुरों पीछे लौटना नहीं है
मौत देने वालों कहो तुमको कैसी मौत चाहिए
छेड़ने वालों को समझा, करके फिर छोड़ा नहीं है
रोहित सिंह चौहान, जो पेशे से पत्रकार हैं, वर्तमान में पी-एच.डी. शोधार्थी के रूप में अध्ययनरत हैं।