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ट्रांसजेंडरों के सवाल पर हमारे समाज को स्वयं की संस्कृति का अवलोकन करना चाहिए

ट्रांसजेंडरों के सवाल पर हमारे समाज को स्वयं की संस्कृति का अवलोकन करना चाहिए

                                                  ज़िंदगी को समझना है मुश्किल ,या मुश्किल है जीना
                                                  काल के चक्र पर खड़ा हुआ संघर्ष दिखा रहा सीना
                                                  आशाओं के बादल पर उड़कर सुनहरे स्वप्न सलोने
                                                  सच करने की ख़ातिर मुश्किलों का हर घूंट है पीना।

कोरोना के कालचक्र के इस संघर्ष में हम सब महसूस कर रहे हैं कि हर तरफ ज़िन्दगी ठहर सी गई थी और  आहिस्ता- अहिस्ता वक्त करवट लेने लगा है और ज़िन्दगी ने भी बीज से फूटते अंकुर की तरह अपना सिर उठाना शुरू किया है और एक बार फिर से लोगों ने सांस लेनी शुरू की ही थी, कि आपदा ने अवसर तलाश लिया और बदलते मौसम ने भी चेतावनी दे ही दी कि अपने सिर तो उठाओ लेकिन अपनी सीमा में ही रहना ,क्योंकि अभी  ज़िन्दगी और मौत के युद्ध का विराम चिन्ह अभी लगा नहीं ना ही विजय का उदघोष बजा।

दोस्तों, ये खेल प्रकृति का था तो हम मन मे मसोस कर रह गए अगर यही खेल इंसानों ने खेला होता और ज़िन्दगी के विकल्प थम जाते तो हम सभी हर घूंट पर हर आह पर तिलमिलाते, और उन्हें श्राप देते, अपशब्द कहते,फिर भी जब कुछ ना हासिल होता तो जीवन के नए शॉर्टकट सही या गलत रूप में तलाशते।

आप कभी सोचकर देखिए, ना कुछ इसी तरह हमारे प्रेम से उपजाए गए अंकुरों को हमने प्रकृति का दोष देकर उनकी ज़िंदगी  के हर कदम पर प्रश्नचिन्ह लगाकर एक ऐसा विराम लगा दिया है, जहां संभावनाओं के पनपने की वजह तलाशना भी नामुमकिन सी लगने लगे।

ट्रांसजेंडरों पर हमारे तथाकथित सभ्य समाज की संकीर्ण मानसिकता

हमारे घरों, परिवारों में जन्म लेने वाली हमारी ट्रांसजेंडर सन्तानों को जन्म हमने दिया लेकिन हमने ही उनसे जीवन जीने के हर अधिकार को छीन लिया। यह कैसी विडंबना है कि यदि कहीं दो सिर ,तीन आंख ,चार हाथ या फिर पूंछ जैसी विसंगतियों के साथ कोई संतान जन्म ले तो, हमारे मन में भावनाओं का ऐसा सैलाब उमड़ता है जो संवेदना से शुरु होकर भक्ति के चरम पर खत्म होता है।

 लेकिन, हमारे इन भावों में से हमारा एक भी भाव ट्रांसजेंडरों के लिए नहीं उमड़ता। अपने हर दायित्वों से हम पल्ला झाड़ कर सारा दोष कुदरत पर मढ़कर खुद को मुक्त करके, इन्हें किसी दूसरे ग्रह का या एलियन मान लेते हैं। वैसे, यूं तो समाज मे इन बच्चों का कोई मानवीय मूल्य नहीं है और इन्हें महज़ पत्थर समझ ठोकर मार दी जाती है।

लेकिन, इसी समाज में जब व्यभिचारियों (स्त्री व पुरुष दोनों ) की भूख का प्रश्न उठे तो मुम्बई के कमाठीपुरा और दिल्ली की जी. बी. रोड पर आकर ठहरती लम्बी गाड़ियों में बैठी हस्तियों की शाम की रौनक और रंग के लिए सबसे सहज किंतु मूल्यवान सौदा तय होता देखा जा सकता है। शर्म ट्रांसजेंडरों को आनी चाहिए, ऐसा यह हमारा तथाकथित सभ्य समाज कहता है लेकिन, सोचने का विषय है कि इन ठोकर मारे गए पत्थरों में समाज के लोगों को व्यभिचार के लिए मानवीय मूल्य कैसे दिखने लगते हैं? प्यार के नाम पर व्यभिचार के छलावे में ये बच्चे कब मन से पत्थर और अपने तन के व्यापारी बन जाते ,हैं अपने जिंदा रहने के संघर्ष में इनको पता ही नहीं चलता और इसके बाद भी समाज की निर्ममता देखिए कि इन ट्रांसजेंडर बच्चों को ही अपमानित करते हैं।

ट्रांसजेंडर कोई विकृति नहीं, प्रकृति की है सरंचना है

धीरे-धीरे समय बदल रहा है। प्रकृति में जीने का अधिकार सभी को मिला है, प्रकृति कभी भी बेवजह कुछ निर्मित नहीं करती है। ट्रांसजेंडर का जन्म होना भी सार्थक है, समाज को बस इसकी सार्थकता को जानने ,पहचानने और समझने की ज़रूरत है। इन्हें गाली देने अपमानित करने से पहले हमें अपनी परवरिश को परखने की ज़रूरत है।

 हमें पता ही नहीं है कि इनकी परवरिश कैसे की जाए ? क्या हैं इनकी ज़रूरतें,जज़्बात,और एहसास? वैसे संवैधानिक रूप से इन्हें स्वीकृति मिल गई है और धीरे-धीरे इन्हें इनके मूल अधिकार भी मिल रहे हैं। इनकी शिक्षा के लिए भी विकल्प खुल रहे हैं, लेकिन बड़ा प्रश्न अभी भी है कि इनके लिए हमारे घरों के दरवाजे कब खुलेंगे? हमारे दिलों के दरवाजे कब खुलेंगे? ये कब पत्थरों की भांति ठोकर खाते-खाते आंगन के फूल बनेंगे?

अभी समाज में प्रश्न बहुत से उठेंगे, मनुष्य होने के मानवीय मूल्यों पर जब-जब ट्रांसजेंडरों की आवाज़ उठेगी, क्योंकि अब हमारी संवैधानिक अधिकारों की सूची में ट्रांसजेंडरों के मनुष्य होने के प्रमाण मिलने लगे हैं और ट्रांसजेंडर भी पत्थर से इंसान बनकर बोलने लगे हैं। इनका अपने मूल अधिकारों के लिए बोलना हमारे सभ्य समाज के लोगों को कितना भाएगा कितना नहीं इसका कुछ अनुमान तो था, लेकिन इस बात का अनुमान बिल्कुल भी नहीं था कि जब अधिकारों की बात होगी, विकास के लिए विकल्प बनेंगे तबी सरकारें इनके लिए प्रयास करेंगी और नई पीढ़ी के ट्रांसजेंडर बच्चे जब मर्यादाओं की लकीर से हटकर समाज और देश के लिए हर क्षेत्र में चुनौतियों से सामना करने को तैयार होंगे तो एक जंग ट्रांसजेंडरों के कुनबे में ही छिड़ जाएगी।

आज समान अधिकारों के दायरे में ट्रांसजेंडरों को भी शामिल करके, हमें उनके भविष्य के नए विकल्प और उनकी समस्याओं की तरफ विभिन्न राज्यों की पहल दिखने लगी है। लेकिन, वहीं किन्नर समुदाय में कुछ जागरूक डेरों के गुरुओं को छोड़ दें तो पिछड़े,ग्रामीण इलाकों व अशिक्षित समाज के किन्नरों के लिए उनका पुराना काम ही उनके लिए उनकी संस्कृति को सहेजने का आधार है,जीने का आधार है और इस बात को लेकर अलग ही जंग छिड़ी हुई है।

सत्ता लोलुपता का खेल कहें या कुर्सी /गद्दी का अपना आधिपत्य जमाने का रंग जिसे भा जाता है, वो कहीं ना कहीं अनैतिक होने से भी गुरेज नहीं करता। ऐसी बातें राजनैतिक या सामाजिक हों, हमें हर क्षेत्र में देखने को मिलती हैं। ट्रांसजेंडरों से जुड़े मुद्दों पर लगातार कुछ ऐसी खबरें मुझ तक आती रहती हैं, जिसे जानकर लगता है कि यहां इस वर्ग में भी ज़िन्दगी की जद्दोजहद के बावजूद बड़ी उठा पटक है।

जहां एक तरफ बदलते समय के साथ नई ट्रांसजेंडर पीढ़ी खुद को पुराने ढर्रे पर यानी बधाई मांगने/नाचने गाने/वेश्यावृत्ति में लिप्त होने से कतराने लगी है, क्योंकि उसे पढ़कर सम्मान जनक ज़िन्दगी जीने के लिए संघर्ष करना ज्यादा रास आ रहा है। वहीं किन्नर लॉबी में अपनी संस्कृति को बचाये रखने की छटपटाहट भी है, लेकिन इन दोनों ही खूबसूरत विचारों में तमाम किन्नर गुरुओं के डेरों में नई पढ़ने वाली / अलग पहचान बनाने को आतुर ट्रांसजेंडर पीढ़ी रास नहीं आ रही है। क्योंकि, मांगने की चली आ रही परिपाटी का अस्तित्व अब समाप्त होता दिखता है।

हालांकि, सभी डेरों में ऐसा नहीं है, कुछ डेरे के गुरुओं ने परिवर्तन एवं विकास की रफ्तार को बड़े सहज और सकारात्मक ढंग से स्वीकारा है। हमारे ग्रामीण इलाकों में जहां जागरूकता की कमी और अशिक्षित क्षेत्रो में ऐसी समस्या ज्यादा है।

पढ़ी-लिखी ट्रांसजेंडर कम्युनिटी स्वयं के लिए सम्मान चाहती है

एक किन्नर बहन ने ही बताया कि कैसे कुछ किन्नर गुरुओ ने एक गन्दा स्वांग सिर्फ अपनी आबादी बढ़ाने और अधिक कमाई करने के लिए बीड़ा उठा रखा है और इस गन्दी मानसिकता से किन्नर वर्ग के लोगों में भी कहीं ना  कहीं भितरघात/ झगड़े/विद्रोह हो रहे हैं, क्योंकि हर किन्नर या ट्रांसजेंडर बुरे नहीं उनमें भी मानवीय संवेदना है।

किन्नर गुटों में तो ये हो ही रहा है, हद तो तब है जब अपनी अलग पहचान बनाने वाले ट्रांसजेंडर लोगों को भी पीटे जाने के किस्से सामने आते हैं, महज़ इसलिए कि उनकी अलग पहचान किन्नर खेमे की चली आ रही परिपाटी को  स्वीकार नहीं रही है। क्योंकि, वो विकास की रफ्तार में सामान्य जीवन मे आने को तैयार हैं। इस घिनौनी राजनीति का शिकार ट्रांसजेंडर ही तो हो रहे हैं।

आजकल सामान्य युवाओं भी ऐश आराम की ज़िंदगी के लिए आहिस्ता- आहिस्ता किन्नर जीवन को अपनाने को तैयार किये जाने की कवायद एक ट्रेंड बन रही है, जो कि बेहद गलत है। पूरे समाज को जागरूक होने की जरूरत है, ताकि सभी ट्रांसजेंडर को उनकी सुरक्षा/ हक / सम्मान मिल सके और यह राजनीति का घिनौना खेल बन्द हो सके।

एक आदिवासी ट्रांसजेंडर कलाकार (पायल राठवा ) जो कि पेंटिंग बनाती हैं और अपनी संस्था के माध्यम से लोगों की मदद करने के साथ अपनी आदिवासी कला व संस्कृति को ज़िंदा रखने में लगी हुई हैं। उसको किन्नरों ने सिर्फ ईर्ष्या वश इतना मारा की वह सप्ताह भर अस्पताल में संघर्ष करती रहीं। किन्नरों ने उनको मारने के साथ नंगा करके वीडियो बनाया जो कि किसी के लिए भी अपमानजनक है। अन्याय किसी के साथ भी हो गलत ही है।

संविधान में सबको अपनी मर्जी के अनुसार जीने का हक है। ये आदिवासी कलाकार सिर्फ इसलिए पीटी गई क्योंकि ये नाचने गाने, बधाई मांगने और वेश्यावृत्ति की खातिर किन्नर गुरु की शरण लेना नहीं पसंद करती। उसकी संस्था के अन्य ट्रांसजेंडर जो कि इंजीनियरिंग जैसी पढ़ाई कर रहे हैं, अब वो भी न्याय की गुहार के लिए प्रतिबद्ध होते दिख रहे हैं।

मैं सच कहूं तो इन हालातों को देखकर मेरे मन में किन्नर समुदाय के प्रति श्रद्धा और आस्था की छवि तो वाकई धूमिल हो जाती है। इस बारे में हमने कई अलग-अलग क्षेत्रों के लोगों से बात की, पटना बिहार की किन्नर आदर्शी पाठक जो कि एक समाजसेवी भी हैं, वो ख़ुद किन्नर हैं फिर भी खुलकर कहती हैं कि “मैं उन किन्नरों को देश का दूसरा आतंकवादी मानती हूं जो भय दिखाकर समाज में खुद को स्थापित करना चाहते हैं।”

 दोस्तों! किन्नर मंगलमुखी हैं तो अमांगलिक आपराधिक घटनाओं को अंजाम देना किन्नर संस्कृति कैसे हो सकती है? किन्नरों के आने से घरों में खुशहाली की उम्मीद की जाती थी, भय की नहीं। किन्तु। आज भय के कारण इनको देखते ही लोगों के घरों के किवाड़ बन्द हो जाते हैं और डर के साये में ही लोग बधाई देकर बस पीछा छुड़वाना चाहते हैं ।

जहां भय होगा वहां खुशी, प्रेम, स्नेह ,सहयोग की परंपरा कभी विकसित नहीं हो सकती। अपनी संस्कृति को जीवित रखते हुए, नई पीढ़ी को आगे बढ़ने के लिए शिक्षा लेने हेतु प्रेरित करने वाली शख्शियत के रूप में चंडीगढ़ की किन्नर गुरु काजल मंगलमुखी एक मिसाल हैं।

उत्तर प्रदेश की पहली ट्रांसजेंडर रेडियो जॉकी ऋचा सक्सेना कहती हैं कि ट्रांसजेंडरों को खुद को दक्ष बनाना होगा खुद को असहाय दिखाकर लोगों से या सरकार से दया की उम्मीद करना गलत होगा और इसकी शुरुआत अपने घर से करनी होगी, क्योंकि जब घर में अपने अस्तित्व को बना सकेंगे तो समाज मे भी बना ही लेंगे।

बदलते दौर में बदलाव के लिए बस दो कदम साथ की उम्मीद लिए ट्रांसजेंडरों के हक में आवाज़ उठाती हुई मैं आपकी दोस्त शालिनी हूं।

नोट – शालिनी सिंह, जो की रेडियो जंक्शन व रेडियो जॉकी ऑल इंडिया रेडियो की मैनेजिंग डायरेक्टर हैं। 

 

 

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